मुस्तफा कमाल पाशा ( 1881 – 1938 ) की चर्चा अब भारत में कम ही होती है। लोगों ने इन्हें जान-समझ कर बिसरा दिया। सेकुलर और कम्युनल दोनों तबकों ने इनसे किनारा कर लिया है। लेकिन एक समय था जब भारत के विशिष्ट राजनीतिक लोग उनमें गहरी दिलचस्पी ले रहे थे। उन्हें लेनिन से अधिक गंभीरता से देखा जा रहा था। यदि मैं यह कहूं कि उनका व्यक्तित्व हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला था, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मैं उन मित्रों को सम्बोधित कर रहा हूँ, जो अभी युवा हैं। उन्हें जो इतिहास पढ़ाया गया है वह मेरे जानते अधूरा है। प्राचीन और मध्यकालीन तो छोड़ दीजिए हमारे आधुनिक इतिहास को ही इतना विकृत किया गया है, जिसका कोई हिसाब नहीं।यही कारण है कि नयी पीढ़ी को पाशा जैसे लोगों के बारे में या तो जानकारी नहीं है, या है तो बहुत कम। आज उनके विचारों की हमें जरूरत है।
मुस्तफा कमाल पाशा को अतातुर्क यानि आधुनिक टर्की का पिता कहा जाता है। जैसे गांधी हमारे भारत में हैं। लेकिन पाशा का व्यक्तित्व गांधी से कहीं भिन्न था। उन्होंने मुश्किलों के बीच से टर्की को निकाला और फिर वहां सामाजिक-राजनीतिक- आर्थिक बदलावों का एक सिलसिला स्थापित किया। इसे क्रांतिकारी परिवर्तन कहा जायेगा।
1881 में जन्मे मुस्तफा की जीवन गाथा भी दिलचस्प है। उन्होंने मिलिट्री स्कूल में शिक्षा हासिल की और सेना में लेफ्टिनेंट बने। तरक्की करते हुए सेना के चीफ तक बने। उस समय प्रथम विश्वयुद्ध चल रहा था। 1915 में हुए गैलीपोली की लड़ाई में मुस्तफा ने अपनी सैनिक काबिलियत दिखाई और ब्रिटिश सेना के दांत खट्टे कर दिए। इससे मुस्तफा को अपने देश में प्रतिष्ठा हासिल हुई। वह नौजवानों के नायक बन गए। हालांकि इस युद्ध में आखिरकार ओटोमन साम्राज्य बुरी तरह पराजित हुआ। ब्रिटेन और उसके मित्र राष्ट्रों की जीत हुई।
ओटोमन साम्राज्य के टुकड़े-टुकड़े हो गए। लेकिन इसी तूफ़ान से मुस्तफा कमाल ने अपने टर्की को आज़ाद कराया और उसे बिलकुल नए ढंग से विकसित किया। यह एक नए राष्ट्र का ही निर्माण करना भर नहीं था, बल्कि एक नये राजनीतिक फलसफे को भी साकार करना था कि किस तरह राजनीति को धर्म-मजहब के दलदल से अलग कर लोकतंत्र और समाज को आधुनिक और गतिमान किया जा सकता है।
टर्की मुस्लिम बहुल देश था। वहाँ खलीफा का शासन था। सामाजिक कानून दीनी (धार्मिक) थे। शिक्षा भी धार्मिक थी। एक नेशन के तौर पर टर्की पर अरब सामाजिक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद हावी था। इन सब से मुस्तफा ने कैसे मुकाबला किया, इसका दिलचस्प इतिहास है।
मुस्तफा ने क्रांतिकारी ढंग से कार्य किया। उनके युवा अनुयायियों, जिन्हे यंग-टर्क कहा जाता था, के साथ मिल कर अक्टूबर 1923 में उन्होने रिपब्लिक ऑफ़ टर्की का गठन किया। उसके कुछ ही महीनों बाद 3 अक्टूबर 1924 को कॉलिफात या खलीफा के पद को समाप्त कर दिया गया। यह ऐतिहासिक कार्य था। यह पद मुसलमानों के धार्मिक और राजनीतिक प्रमुख का था। इसी पद पर कभी इस्लाम के प्रतिपादक मुहम्मद साहब थे।
स्मरणीय है भारत में भी मुगल पूर्व का सल्तनत राज खलीफा के तहत था। मुसलमानों के बीच यह ईसाइयों के पोप या हिन्दुओं के शंकराचार्य की तरह का पद था। इतना ही नहीं, मुस्तफा ने 1926 में मुस्लिम शरीयत कानून की जगह सेकुलर टर्की पेनल कोड लागू किया। इसी वर्ष इस्लामी अदालतों को बंद कर दिया गया। स्त्रियों के लिए बुरका पहनने की अनिवार्यता ख़त्म कर दी गई। दीनी (धार्मिक) शिक्षा की जगह राष्ट्रीय समान शिक्षा नीति लागू की गई। बच्चों की परवरिश और शिक्षा पर जोर दिया गया क्योंकि मुस्तफा की नजर में बच्चे ही किसी देश के भविष्य होते हैं।
मुस्तफा उस दौर में थे जब यूरोप में साम्यवाद और फासीवाद का बुखार चढ़ा हुआ था। रूस में बोल्शेविक क्रांति के बाद के दौर को आप याद कर सकते हैं। इटली में फासिस्ट और जर्मनी में उसके एक अलग रूप नाज़ीवाद की चर्चा जोरदार ढंग से हो रही थी। टर्की अपने भूगोल के हिसाब से आधा यूरोपियन और आधा एशियन मुल्क है। इसीलिए इसे यूरेशिया भी कहते हैं। स्वाभाविक था टर्की इससे प्रभावित होता। लेकिन मुस्तफा की समस्याएं कहीं अधिक गंभीर थी।
इस्लामी या कोई भी धार्मिक कट्टरतावाद किसी समाज के लिए फासीवाद से अधिक खतरनाक होता है और बोलशेविक कम्युनिस्ट तरीका इसे ठीक से दूर नहीं कर सकता था। मुस्तफा ने फासीवाद और साम्यवाद से अलग अपने फलसफे विकसित किये, जो अधिक मानवीय और संवेदनशील थे, आधुनिक भी। उसने धर्म के महत्त्व को स्वीकार किया, लेकिन उसके आधुनिकीकरण पर जोर दिया। साम्यवादी अपनी युक्ति में धर्म को पूरी तरह ख़ारिज कर उस पर पाबन्दी लगाने के पक्षधर थे। मुस्तफा लगातार सुधार यानी परिवर्तन के पैरोकार थे। यह एक अलग चीज थी।
अब हम भारत पर आते हैं। मुस्तफा का दौर 1923 से 1938 है। 1938 में केवल 57 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो जाती है। इस दौर में भारत में राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा है। सब जानते हैं जब ओटोमन (उस्मानिया) राज की समाप्ति हुई और खलीफा का खेल ख़त्म हुआ तो हिंदुस्तान के मुसलमानों में बेचैनी थी। इन मुसलमानों ने खलीफा के पक्ष में एक आंदोलन चलाया।
गांधी ने इसे न केवल समर्थन दिया बल्कि कांग्रेस को इससे नत्थी कर हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने की कोशिश की। मुट्ठी भर लोग जिसमें जिन्ना थे, ने गाँधी के इस कदम का समर्थन नहीं किया। जिन्ना ऐसे विदेशी मामले को अपने राष्ट्रीय आंदोलन में नत्थी किये जाने के विरुद्ध थे। लेकिन कुँए में भांग पडी थी। कांग्रेस में उन दिनों नेहरू और सुभाष जैसे लोग सक्रिय और प्रभावशाली नहीं थे। खिलाफत आंदोलन के समर्थन से हिंदुस्तान की मुस्लिम राजनीति का दक़ियानूसीकरण हुआ।
इसके दुष्प्रभाव का पता लोगों को बाद में जाकर लगा। तब तक पानी काफी गुजर गया था। मुस्तफा ने जब खिलाफत प्रथा ख़त्म की तब भारतीय राजनीति में एक नयी सोच का प्रादुर्भाव हुआ। बल्कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन पर धर्मनिरपेक्ष प्रभाव मुस्तफा द्वारा ही हासिल हुआ। इसकी व्याख्या इतिहासकारों द्वारा कम ही की गई है।
राष्ट्रीय नेताओं में जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, जिन्ना जैसे लोगों पर मुस्तफा का प्रभाव सीधे तौर पर परिलक्षित है।नेहरू ने ग्लिम्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री नामक अपनी किताब में (जो उनकी बेटी इंदिरा को लिखी गई चिट्ठियों का एक पुलिंदा है) मुस्तफा के सामाजिक-धार्मिक और राजनीतिक सुधारों की जम कर प्रसंशा की है। ऐसा लगता है वह लम्बी कविता लिख रहे हैं। सुभाष बोस अपने नेता गांधी में मुस्तफा कमाल पाशा की छवि देखना चाहते हैं।
जिन्ना अपनी बिटिया को उसके जन्मदिन पर एक किताब देते हैं। उन्होंने एच सी आर्मस्ट्रांग द्वारा लिखी गई मुस्तफा कमाल पाशा की जीवनी ‘ग्रे वूल्फ’ को इसके लिए उपयुक्त माना। राजमोहन गाँधी ने जैसा कि अपनी किताब “मुस्लिम माइंड ऑफ़ इंडिया” के जिन्ना अध्याय में लिखा है जिन्ना की बेटी पिता को ग्रे वूल्फ कह कर चिढ़ाती थी और वह प्रसन्न होते थे। यह दुखद है कि मुस्तफा के व्यक्तित्व को पसंद करने वाले जिन्ना ने बाद में अपना रास्ता बदल दिया और धर्म केंद्रित राजनीति के प्रस्तावक बन गए।
मुस्तफा की विशेषता यही थी कि उन्होंने मुस्लिम समाज में बदलाव की बुनियाद रखने की कोशिश की, जिसके लिए आमतौर से कोई साहस नहीं करता। उन्होंने सेकुलर राजनीति पर जोर तो दिया ही स्त्रियों और बच्चों के सामाजिक महत्त्व को स्वीकार किया। 23 अप्रील की तारीख टर्की में बाल दिवस घोषित हुआ। स्त्रियों को मताधिकार से लेकर उनके लिए नेशनल असेम्बली में स्थान सुरक्षित करने की पहल की। शिक्षा के समानीकरण की आज बहुत चर्चा होती है। लेकिन इसकी पहल मुस्तफा ने की।
इन सब से बड़ी उनकी देन है कि उन्होंने अरबी सामाजिक साम्राज्यवाद की मुश्किलों को गहराई से देखा और एक झटके में उसे दूर कर दिया। संभव है अरब के रेत भरे वातावरण में औरतों केलिए बुरका काम की चीज कभी रही हो, लेकिन वह उन जगहों पर क्यों रहे जहाँ यह फ़ालतू-सी चीज है। तुर्की में बुरका बंद कर दिया गया। बकरे-कट दाढ़ी पर पाबंदी लगा दी गई। अरबी गोल टोपी की जगह तुर्की टोपी प्रचलित की गई। अरबी सांस्कृतिक गुलामी की हर चीज को ख़त्म कर दिया गया। कुरान को हर हाल में तुर्की जुबान में पढ़ना जरूरी हो गया। अरबी लिपि पर पाबन्दी लगा दी गई।
भारत में जवाहरलाल नेहरू पर पाशा का प्रभाव कोई भी देख सकता है। उन्होने अपने जन्मदिन को बालदिवस के रूप में मनाने की परिपाटी बनाई तो यह मुस्तफा का ही प्रभाव था।
भीमराव आम्बेडकर ने एक धर्मनिरपेक्ष संविधान की प्रस्तावना की तब मुस्तफा का प्रभाव उन पर झलक रहा था। हिन्दू कोड बिल और समान सामाजिक संहिता के लिए जिन लोगों ने भी समर्थन किया है, वह चाहे श्यामाप्रसाद मुखर्जी हों या राममनोहर लोहिया उन पर पाशा का प्रच्छन्न प्रभाव दिखता है।
लेकिन इन सब से अधिक पाशा का महत्त्व यह है कि उन्होने एक कट्टर और रूढ़ मुस्लिम समाज को गातिशील आधुनिक और चेतनायुक्त बनाने की संभव कोशिश की। इसकी जरूरत तो आज भी पूरी दुनिया के मुस्लिम समाज को है।
आज तुर्की में मुस्तफा की परंपरा भंग की जा रही है। मौजूदा प्रेजिडेंट रजब तैय्यब इर्दोगान पूरी कोशिश कर रहे हैं कि वह तुर्की में सेकुलर की जगह इस्लामी राजनीति एक बार फिर लागू कर दें। मुस्तफा चौक पर मस्जिद खड़ा कर उन्होंने वैसी ही हरकत की है जैसे हमारे देश में प्रधानमंत्री मोदी ने राममंदिर बनवा कर की है।
दिलचस्प बात यह है कि प्रेजिडेंट इर्दोगान भी प्रधानमंत्री मोदी की तरह सामान्य परिवार से आए हैं। दोनों में सामान्य बात यह भी है कि मोदी बचपन में जैसे चाय बेचते थे, इर्दोगन फ्रूट जूस बेचते थे। आज एक नेहरू की परंपरा को ध्वस्त कर रहे हैं दूसरे मुस्तफा के।
काश ! भारत में मुस्तफा को आज भी समझा जाता। भारतीय मुस्लिम राजनीति आज तक दकियानूसी विचारों के साये में है।
मेरी समझ से इसका मुख्य कारण असरफ मुसलमानों का इसकी राजनीति पर हावी होना है जो चाहे जिस कीमत पर हो शरीयत और अरबी तौर-तरीकों को बनाए रखना चाहते हैं।
आप 1986 को याद कीजिए कि किस तरह इनलोगों ने शाहबानो मामले पर कोहराम मचाया था। राजीव गांधी के एक दकियानूसी फैसले ने किस तरह मुल्क को एक बार धर्मकेंद्रित राजनीति के गह्वर में धकेल दिया। नौजवानों को यह सब समझना चाहिए।
आज भारत में यदि भाजपा की धर्मकेंद्रित राजनीति हावी है तो इसके मूल में कांग्रेस नेता और उस दौर के प्रधानमंत्री राजीव गांघी का वह दकियानूसी फैसला है जो उन्होंने शाहबानो प्रकरण पर लिया था। यह संविधान का शीलभंग करना था। यह कितना हास्यास्पद (या विडंबना) है कि आज उसी कांग्रेस के नेता देश भर में संविधान बचाने केलिए छाती पीट रहे हैं।
(प्रेमकुमार मणि लेखक-साहित्यकार हैं)