राम। कहा जाता है कि यह शब्द अपने आप में काफी है। इस शब्द के जरिए “निराकार” को साकार में बदलने की कोशिश की गई है। यूं तो “ईश्वर” के “राम” रूप की भक्ति में हजारों साल से इस देश का एक बहुत बड़ा तबका डूबा हुआ है। लेकिन बीते कुछ दिनों से राम कुछ ज्यादा हावी हुए हैं। इनकी माया के विस्तार में अनेक देवी-देवता विलुप्त होने की कगार पर हैं।
अयोध्या में मस्जिद की कब्र पर इन्हीं राम का भव्य मंदिर बन रहा है। इसके समर्थन और विरोध में अनेक तर्क प्रस्तुत किए जा रहे हैं। जो समर्थन में है उनकी नजर में यह राम के वनवास का अंत है। इन्हें इनका घर मुहैया कराया जा रहा है। धर्म की राजनीति करने वाले बहुत चालाक होते हैं। बताते हैं कि कोई है जो ब्रम्हांड को बना और चला रहा है। फिर उस सर्वशक्तिमान को, उस निराकार को पहले ये आकार, प्रतीक या शब्द में बदलते हैं। फिर उसके लिए धरती के सूक्ष्म से भी सूक्ष्म भाग तय करते हैं। फिर उस आकार, प्रतीक और शब्द के सहारे नफरत का खेल खेलते हैं।
हजारों साल से यही सिलसिला चला आ रहा है। और आज अयोध्या में जो कुछ हुआ है, वह उसी का एक पड़ाव मात्र है। किसी लंबी कहानी का एक सिरा। किसी लंबी साजिश का एक कतरा। अपनी-अपनी मान्यता के हिसाब से आप इसे प्रेम, भक्ति, साजिश कुछ भी कह सकते हैं। वैसे सारा खेल ही मान्यताओं का है। तमाम वैज्ञानिक खोजों के बाद भी अंतत: जीत तो मान्यताओं के ही हिस्से है। विज्ञान के हिस्से तो हार है। जब किसी मरीज की मृत्यु निश्चित हो जाती है तो डॉक्टर भी यही कहता है कि अब भगवान का ही आसरा है। आप उसी से प्रार्थना कीजिए। हर साल करोड़ों लोगों की प्रार्थनाएं अस्वीकार कर दी जाती हैं। लेकिन मान्यता है कि बदलती नहीं। भरोसा है कि टूटता नहीं। भगवान का जयकारा तेज होते जाता है।
मेरे कानों में भी जय श्री राम का नारा गूंज रहा है। श्री राम कहिए या सिया राम-क्या फर्क पड़ता है? हिंदूवाद कहिए या फिर हिंदुत्व क्या फर्क पड़ता है? यह तो खुद को बहलाने का इंतजाम है। मूल सिर्फ इतना है कि आप अपने राम को उन अपराधों के दोष से बरी करना चाहते हो, जो उनके नाम पर किए गए हैं। इस बहाने दरअसल आप यही जतलाना चाहते हो कि आपकी कमीज पर खून के धब्बे नहीं हैं, क्योंकि आपका राम हिंसा को जायज नहीं ठहराता है। बात बस इतनी सी है कि मेरा राम उदार और तेरा राम संकीर्ण। मेरा धर्म अच्छा, तेरा धर्म बेकार।
ऐसी ही दलील सब देते हैं न? लिबरल ईसाइयों की नजर में गॉड लिबरल है, उसका दिल बड़ा है। लिबरल मुसलमानों की नजर में अल्लाह का दिल बड़ा है। वह इंसान और इंसान में भेद नहीं करता। मर्द और मर्द के बीच, मर्द और औरत के बीच और औरत और औरत के बीच के तमाम भेदभाव हमारी आंखों के सामने हैं। नस्ल, जन्म, जाति, क्षेत्र, रंग, भाषा सब तरह के भेदभाव हम देख रहे हैं। दुनिया के तमाम हिस्सों में मौत का तांडव खेला जा रहा है। फिर भी वो कहता है कि यह उसका अल्लाह नहीं है। उसका गॉड नहीं है। उसका गॉड या अल्लाह तो पाक है, पवित्र है, प्रेम और करुणा से भरा हुआ है। वैसे ही मेरा राम पाक है, पवित्र है, उदार है, प्रेम है, वह न्याय की प्रतिमूर्ति है। दरअसल हम कुछ और नहीं चाहते हैं। हम बस खुद को और अपने ईश्वर को उन गुनाहों से बचाने की कोशिश करते हैं जो इस मानवता और मनुष्यता की नजर में सबसे बड़े गुनाह हैं। और ऐसा करके हम अगले गुनाह की जमीन तैयार कर रहे होते हैं। वह आधार जिसके जरिए भविष्य में लोग ऐसी हरकतों को नाजायज ठहराते हुए भी उसे पूजते रहें जिसके नाम पर तमाम गुनाह किए गए हैं।
राम मंदिर को लेकर भी यही खेल चल रहा है। एक से बढ़ कर एक बुद्धिजीवियों ने राम मंदिर के पक्ष और विरोध में तर्क रखे हैं। मजेदार ये है कि जो मंदिर के पक्ष में हैं उनके पास तो राम हैं ही, जो खिलाफ हैं उनके पास भी राम हैं। समर्थकों की राय साफ है। अयोध्या राम की नगरी है। वहां पर एक मंदिर पहले था। दावे के मुताबिक बाबरी मस्जिद उस मंदिर पर बनाया गया था। इसलिए उन्होंने वो मस्जिद ढहा दिया और कोर्ट ने न्याय करने की जगह जन भावनाओं का ख्याल रखते हुए वहां मंदिर बनाने की इजाजत दे दी है। अब राम के जरिए वो हिंदुत्व की एकता का नारा बुलंद करना चाहते हैं। ताकि इस शोर में वो तमाम आवाजें दब जाएं जो इस धर्म में न्याय के लिए उठ रही हैं। बराबरी और हिस्सेदारी के लिए उठ रही हैं। मूलत: यह मंदिर ब्राह्मण धर्म का उद्घोष है। जिसे उदार बनाने के लिए कई सौ साल से संघर्ष चल रहा था। यह एक तरीके से उस संघर्ष की हार है और ब्राह्मणों की जीत है।
मंदिर की मांग करने वाले भक्तों के तर्क में कोई दम नहीं है। भक्ति में तर्क की जरूरत नहीं होती है। आस्था होनी चाहिए। इसलिए इन्हें हम यहीं छोड़ देते हैं और बात करते हैं मंदिर के खिलाफ उठे स्वरों की। मंदिर के खिलाफ उठे इन स्वरों में ज्यादातर राम के भक्त हैं। मतलब उन्हें राम चाहिए और मंदिर अगर किसी और जमीन पर बनता तो उन्हें उससे भी गुरेज नहीं होता, चूंकि उस जमीन पर बन रहा हैं जहां कुछ समय पहले तक मस्जिद थी इसलिए उन्हें गलत लग रहा है। और उस क्रम में वो राम को जायज ठहराने की कोशिश कर रहे हैं। वो यहां एक मूल बात भूल जाते हैं कि वो राम को जितना जायज ठहराएंगे और उन्हें तार्किक आधार मुहैया कराएंगे मंदिर बनाने का औचित्य और तर्क उतना ही मजबूत होगा। क्योंकि रामायण और राम हिंदुत्व की राजनीति के केंद्र बिंदु हैं। इसलिए जरूरत धर्म की मूल अवधारणा को चुनौती देने की है। ना कि उसे और मजबूत करने की।
इंडियन एक्सप्रेस में प्रताप भानु मेहता लिखते हैं कि राम वह जमीन है जिस पर उनका वजूद टिका है। राम सोचने, समझने की शक्ति हैं। राम उपासना हैं। और इस मंदिर में उन्हें उनके राम नहीं मिलेंगे। वो वाल्मीकि से लेकर तुलसी तक के रामायण में राम के चरित्र का उदाहरण देते हुए यह बताने की कोशिश करते हैं कि राम को यह मंदिर स्वीकार नहीं होता। वो राम को दलित ऋषि शंबूक की हत्या, वानरराज बाली की हत्या और सीता को घर से निकाले जाने जैसे सभी अपराध से बरी करते हैं। और कहते हैं कि इतिहास एक किस्म का बूचड़खाना रहा है और हम अधिक से अधिक यह कर सकते हैं कि जहां से भी संभव हो हम सुकुमार-नाजुक-मुलायम न्याय के तत्व बटोर लें। तमाम तर्क गिनाने के बाद मेहता पूछते हैं कि हम (हिंदू) कब से इतना असुरक्षित महसूस करने लगे कि अपने सामूहिक अहंकार/आत्मपूजा के लिए एक कायरतापूर्ण हरकत करें।
दरअसल, यह तर्क प्रताप भानु मेहता के ही नहीं हैं बल्कि उनके जैसे अनगिनत लोगों के हैं। वो सभी यहां एक बड़ी भूल कर रहे हैं। पहली बात तो यह कि राम इतिहास नहीं हैं। राम धर्म हैं। राम में उतने ही दोष हैं जितने धर्म में हैं। जब धर्म थोड़ा उदार हुआ है तो दोष कम हुए हैं। दूसरी बात धर्म और ईश्वर की उत्पत्ति ही असुरक्षा के अहसास से हुई है। अनिश्चितता के भय से हुई है। धर्म में इसी असुरक्षा और अनिश्चितता के हल के तौर पर अमरत्व का तत्व जोड़ा गया है। “आत्मा अमर है”- जैसे तर्क गढ़े गए हैं। स्वर्ग और नर्क, जन्नत और जहन्नुम, हैवेन और हेल, प्रायश्चित और मोक्ष जैसी अवधारणाएं रची गई हैं। इसलिए पौराणिक, धार्मिक कथाओँ और काल्पनिक गाथाओं में न्याय के तत्व ढूंढने से कुछ हासिल नहीं होगा।
बेहतर होगा कि हम आज की बात करें या फिर अतीत की उन घटनाओं का जिक्र करें जिनका साक्ष्य हमारे सामने मौजूद है। ईश्वरीय तत्वों की जगह मानवीय तत्वों की बात करें। मनुष्यता की बात करें। हम हर रोज न्याय और अन्याय के अनगिनत उदाहरण देखते हैं। हम चाहे तो उनसे सबक ले सकते हैं। हर रोज अखबार के पन्नों में मनुष्यता कराहती हुई नजर आती है। वो बेगुनाह सिसकियां दर्ज होती हैं जो हमारे आसपास कहीं से गूंजती हैं मगर हम उन्हें अनसुना करके आगे बढ़ जाते हैं।
बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराया जाना वैसी ही एक आपराधिक घटना थी, जिसे हम सभी ने अपनी आंखों के सामने घटित होते देखा है। इसलिए उस घटना को गलत ठहराने के लिए हमें राम की शरण में जाने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि राम के चरित्र में बहुत उलझन है। और यह उलझन बेवकूफी भरी नहीं है बल्कि शातिरपने की वजह से है। इसे ऐसे समझिए कि पक्ष और विरोध के तमाम तर्क समाहित किए गए हैं ताकि आप खुद को सांत्वना दे सकें। राम के चरित्र की सभी उलझनें राम की निजी उलझने नहीं है बल्कि धर्म की उलझनें हैं। धर्म का काम ही है उलझाए रखना। इससे मुक्त होना है तो धर्म के जाल को काटना होगा। धर्म का जाल जितना कटेगा, इंसान और इंसानियत को उतनी ही मुक्ति मिलेगी।
(समरेंद्र सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)