सत्तापक्ष और विपक्ष लोकतंत्र की दो धुरी हैं। किसी भी देश में लोकतंत्र को साकार करने और अर्थवान बनाने के लिए सत्तापक्ष के साथ विपक्ष को भी मजबूत होना अति आवश्यक है। इसके साथ ही पांच वर्ष या 10 वर्ष के बाद सत्ता परिवर्तन होने से राजनीतिक दलों का जनता से जुड़ाव और बुनियादी सवालों से वास्ता बना रहता है। लेकिन भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि केंद्र या राज्य की सरकारें पांच साल के बाद बदल जाएं। इसके अपवाद भी हैं जब पांच साल बाद कौन कहें,सरकारें साल-दो साल में ही अपने अंतर्विरोध के कारण धराशायी हो गईं।
देश में भाजपा की सरकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में दो आम चुनाव में उनके दल भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला है। सत्तापक्ष के सामने विपक्षी दलों का धीरे-धीरे राजनीतिक पतन हो रहा है। ऐसे में आगामी 2024 के आम चुनाव के मद्देनजर भाजपा को हराने के लिए क्षेत्रीय दलों के गठबंधन की सरकार बनाने की कल्पना अपने उरूज पर है।
2024 के चुनाव के मद्देनजर गठबंधन का राग अलापने वाले इस समय कुछ प्रमुख चेहरों में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव और एनसीपी प्रमुख शरद पवार हैं। लेकिन हाल में सबसे सक्रिय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। नीतीश कुमार की राजनीति भाजपा के साथ गठबंधन और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के विरोध में ही परवान चढ़ी है। लेकिन अब वह एक बार फिर भाजपा को छोड़कर बिहार में राजद के साथ सरकार चला रहे हैं और विपक्षी एकता का राग अलाप रहे हैं।2014 लोकसभा चुनाव के समय भी वह ऐसा कर चुके हैं। उस दौरान उनके आस-पास के लोग उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बताया था। सवाल उठता है कि क्या उस हस्र का कोई सबक नीतीश कुमार को याद नहीं है?
गठबंधन की दूसरी पैरोकार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री की राजनीति कांग्रेस के साथ और माकपा विरोध की रही। लेकिन बाद में ममता ने कांग्रेस छोड़कर माकपा से साथ-साथ कांग्रेस से भी राजनीतिक संघर्ष किया। ऐसे उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए माकपा और कांग्रेस ज्यादा खतरा है बनिस्पत भाजपा के। कमजोर माकपा और कांग्रेस ममता बनर्जी के हित में है, यह वह बखूबी जानती है। ममता बनर्जी अटल-आडवाणी के दौर में भाजपा सरकार में शामिल रहीं।
राहुल गांधी की “भारत जोड़ो यात्रा” शुरू होने के पहले ममता बनर्जी गठबंधन की पक्षधर थीं। लेकिन नीतीश कुमार की अति सक्रियता और भारत जोड़ो यात्रा को केरल में मिलते जनसमर्थन को देखकर तृणमूल कांग्रेस और सीपीएम, दोनों का गठबंधन से मोहभंग होना शुरू हो गया है। इसी कड़ी में ममता बनर्जी ने केंद्रीय एजेंसियों के तथाकथित दुरुपयोग के मामले में पीएम मोदी को बरी करते हुए कुछ अन्य मंत्रियों का हाथ बताया। आसे ममता बन्रजी साफ संकेत दे रही हैं कि देश और बंगाल में कांग्रेस का पुनर्उत्थान की स्थिति में वह गठबंधन या कांग्रेस के साथ जाने से परहेज करेगी। क्योंकि बंगाल में वो कांग्रेस और सीपीएम के साथ गठबंधन करके मुस्लिमों का वोट नहीं ले सकती हैं, ऐसे में वह ऐसे किसी गठबंधन में नहीं जाना चाहती जो पश्चिम बंगाल में उनके आधार वोट पर दावा करे, और वह कांग्रेस या सीपीएम की बजाए बंगाल में भाजपा को विपक्षी पार्टी के रूप में स्वीकार करेंगी।
उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा की राजनीति एक दूसरे के विरोध की रही है। ऐसे में सपा भले गठबंधन की ओर जाए, मायावती गठबंधन के साथ जाने में आनाकानी करती रही हैं। जेडीयू, राजद, सपा, बसपा, टीआरएस, डीएमके और एनसीपी जैसे तमाम दल भाजपा को हटाने के लिए कांग्रेस का साथ तो चाहते हैं, लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार नहीं करना चाहते। नीतीश कुमार, शरद पवार औऱ ममता बनर्जी अपने को प्रछन्न रूप से गठबंधन का नेता मानते हैं, और राहुल गांधी को किसी कीमत पर नेता स्वीकर नहीं करना चाहते। भले ही कांग्रेस आज भी हर क्षेत्रीय दल से ज्यादा लोकसभा सीट जीतने में सक्षम है।
सबसे बड़ी बात यह है कि गठबंधन का नेता कौन होगा, इस पर सवाल हो सकते हैं, कौन-कौन इसमें शामिल होगा, इस पर भी सवाल हो सकते हैं, लेकिन असली बात यह है कि जिसके विरोध में ये तथाकथित गठबंधन बनाने का बात हो रही है, क्या गठबंधन के लोग साल- दो साल बाद या चुनाव के वक्त उस दल के साथ भी गठबंधन कर सकते हैं?
देश में चुनाव पूर्व या चुनाव बाद राजनीतिक दलों का गठबंधन होता रहा है। लेकिन इधर जिस तरह से गठबंधन बनाने का राजनीति चल रही है, उसमें राजनीतिक आदर्श, विचार और दलीय निष्ठा सिरे से गायब है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस गठबंधन की कल्पना में साझा लक्ष्य मोदी सरकार को हटाना या मोदी सरकार में शामिल होना है। गठबंधन का मतलब दल या समाज का लाभ नहीं बल्कि किसी क्षेत्रीय दल के नेता का लाभ-हानि रह गया है।
उत्तर प्रदेश के एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के कुछ जिलों में सामाजिक आधार है। राजभर समाज के लोगों के राजनीतिक-सामजिक उत्थान के लिए इस दल का गठन हुआ। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए यह दल उस दल से समझौता करने को तैयार रहता है, जो इसे ज्यादा टिकट दे दे। 2017 के चूपी चुनाव में यह दल भाजपा के साथ गठबंधन किया। पार्टी के कई विधायक जीते और इसके मुखिया ओमप्रकाश राजभर योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री बनें। लेकिन 2022 विधानसभा चुनाव में सुभासपा ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा, क्योंकि ओपी राजभर को पूरा भरोसा था कि इस बार सपा की सरकार बनेगी। लेकिन फिर से भाजपा की सरकार बनने के बाद वह सपा छोड़कर भाजपा में आने के लिए तड़प रहे हैं।