चीनी चक्र में नाचते नेपाली प्रधानमंत्री


ड्रैगन अमेरिका और भारत की दोस्ती से तिलमिला रहा है। दरअसल चीन ने ही प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को नेपाल की सत्ता पर काबिज करवाने के लिए साम, दाम, दंड और भेद का उपयोग किया था। और ओली के साथ समझौता किया था कि वह चीन का साथ देगें। लिपुलेक मुद्दों पर नेपाल ने आखिर भारत को घेरने वाले कारनामों को अंजाम दिया है। लेकिन चीन के सभी चालों को भारत ने उखाड़ फेंका है।



रुचि सिंह 

नेपाली संसद मे आर्थिक बिल के साथ नये राजनीति नकशे के संबंध में नेपाली कानून मंत्री शिवमाया तुबाहफे ने बिल पेश कर दिया है। गौरतलब है कि सुगौली संधि के 204 वषों बाद लिमिपयाधुरा, लिपुलेक, कालापानी के विवादित क्षेत्रों को अपने क्षेत्र में शामिल कर नेपाल के पुराने नक्शे को बदलना चाहता है। भारत ने नेपाल के नक्शे अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि नेपाल को भारत की संप्रभुता का सम्मान करना चाहिए। इस बिल के समर्थन मे नेपाली कांग्रेस भी आगे आयी है। नेपाली कांग्रेस के नेताओं को यह डर सता रहा हैं कि आने वाले आगामी चुनाव में नेपाली कम्युनिष्ट पार्टी यह मुद्दा न उठा दे कि नेपाल राष्ट्र की सार्वभौमिकता के लिए नेपाली कांग्रेस ने इस बिल को समर्थन देने का मन नहीं बनाया। 

दरअसल नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ‘ओली’ ने भारत को वायरस बता कर नेपाल-भारत सीमा विवाद को और उलझा दिया है। ताज्जुब तो यह है कि ओली बिना सोचे समझे कुछ भी बयानबाजी करने के लिए मशहूर हैं। उन्हें पता ही नहीं था कि मानसरोवर तक सडक़ बन रही हैं। दूसरी ओर नेपाल के विदेश मंत्री नेपाली संसद में कहा कि केपी शर्मा ओली को इसकी जानकारी थी। उनके इस बयान का नेपाल में चौतरफ़ा विरोध होने लगा। प्रधानमंत्री नेपाली संसद में नेपाल का नया नक्शा पास कराने के लिए पेश नहीं कर सके। भारत ने नेपाल के पेश किए नक्शे को खारिज कर दिया। 

इससे यह स्पष्ट हो चुका है कि ड्रैगन अमेरिका और भारत की दोस्ती से तिलमिला रहा है। दरअसल चीन ने ही प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को नेपाल की सत्ता पर काबिज करवाने के लिए साम, दाम, दंड और भेद का उपयोग किया था। और ओली के साथ समक्झौता किया था कि वह चीन का साथ देगें। लिपुलेक मुद्दों पर नेपाल ने आखिर भारत को घेरने वाले कारनामों को अंजाम दिया है। लेकिन चीन के सभी चालों को भारत ने उखाड़ फेंका है। भारत-नेपाल मुद्दे पर सभी पेचीदगियां सुगौली संधि पर अटक जाता हैं।

सुगौली संधि नेपाल अंग्रेज युद्ध की समाप्ति पर हुई थी। इस संधि में नेपाल को अपने अधीन रहे जमीन का एक तिहाई भू-भाग खोना पड़ा था। ब्रिटिश कंपनी के राज्य में दूसरी बार किए गया आक्रमण सन 1814 से 1816 तक चला। हालांकि 2 दिसंबर 1815 में संधि पर हस्ताक्षर हो चुके थे। इसकी पुष्टि 4 मार्च 1816 को हुआ था। नेपाल के नये संविधान के अनुसूची-3 में निशान छाप नकशे में कालापानी भारत के सरहद में है। लिपुलेक, लिमिपयाधुरा, कालापानी में ही आता हैं। कालापानी में भारत संयुक्त फौज रखें या सौ वर्षो के लिए लीज पर दे। कालापानी पूर्व राजा महेंद्र वीर विक्रम शाहदेव ने भारत को दिया था।

सुगौली संधि के अनुचछेद की धारा-5 के अनुसार काली नदी भारत में ही है। इस संधि पर हस्ताक्षर नेपाल की तरफ से राजगुरु गजराज मित्र  चन्द्रशेखर उपाध्याय एवं ब्रिटिश कंपनी की तरफ से लेफ्टिनेंट कर्नल प्यरिस बाडस ने किए थे। संधि में नेपाल द्वारा जीते हुए जमीन को वापस करना था। हालांकि नेपाल को संधि की यह शर्त मंजूर नहीं थी। ब्रिटिश शासन ईस्ट इडिया कंपनी के काठमांडू पर आक्रमण करने की मंशा से नेपाल की जनता को बचाने के लिये संधि पर हस्ताक्षर  किया गया था। नेपाल में पश्चिमी प्रतिनिधि के तौर पर ब्रिटिश के एडवर्ड गार्डनर थे। सुगौली संधि को दोबारा नया रुप देते हुए शांति और मैत्री संधि 1923 में हुआ था। संधि में ब्रिटिश प्रतिनिधि को काठमांडू मे रखना और गोरखाओं को ब्रिटिश सेना में भर्ती करना था। नेपाल जब एक तिहाई भूमि से अलग हुआ तो सिक्कम भी शामिल था।

सिक्कम के राजा छोग्याल ने ब्रिटिश युद्ध में अंग्रेजों को पराजित किया था। सन 1857 के विद्रोह को दबाने मंत नेपाल के सहयोग के मद्देनजर तराई के कुछ भू-भाग जनकपुर,कपिलवस्तु, बाके,कैलाली, कंचनपुर वापस 1865 मे वापस किया था। दरअसल ब्रिटिश सर्वे आफ इंडिया ने 1827 में गढवाल कुमाऊं का नाम देकर एक नक्शा बनाया था। इस नकशे में लिमिपयाधुरा से निकलने वाली नदी को काली नदी कहते हैं। उतराखंड के दारचुला-लिपुलेक होते हुए मानसरोवर के लिए सड़क निर्माण के खिलाफ नेपाल ने चीन के इशारे पर भारत के साथ संबंध खराब करने का मन बना डाला। दरअसल 1954 में भारत का चीन के साथ समझौता हुआ था कि व्यापारिक समझौते के लिए दोनों देश इस रास्ते का प्रयोग करेंगे। 

विगत सन्दर्भ को देखें तो 1992 में चीन और भारत के बीच लिपुलेक होते हुए मानसरोवर तक के लिए व्यापारिक मार्ग खोलने की सहमति हुई थी। 2015 में व्यापारिक पोस्ट खोलने की सहमति प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति जिनपिंग में समझौता हुआ था। नेपाली संसद में इसका विरोध हुआ था। 23 जून 2018 मे चीन भ्रमण के समय प्रधानमंत्री केपी ओली ने कहा था कि लिपुलेक, लिपियाधुरा, कालापानी नेपाल का भू भाग है। काबिलेगौर है कि डोकलाम विवाद के बाद कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए 2017 में नाथुला मार्ग बंद करके लिपुलेक से जाने का रास्ता खोला। डोकलाम विरोध के बाद ड्रैगन ने लिपियाधुरा,लिपुलेक कालापानी में हस्तक्षेप करना शुरू किया है। 

फिलहाल चीन-भारत-नेपाल के त्रिकोणीय सीमा विवाद को तूल देने का कार्य नेपाल करता रहता है। जबकि काली नदी के पश्चिमी इलाके से कोई लेना देना नही है। भारत ने अपनी सीमा के अंतर्गत ही फीडर रोड बनना शुरू किया है। भारत चीन सीमा जो तीन हजार पाच सौ किमी है। लिहाजा अब चीन और भारत को आपसी समझ ही इस मुद्दे को हल कर सकती है। भारत चीन की रस्साकशी से नेपाल को यह समझ आ रहा है कि भारत से कूटनीति नहीं अपने पन से बात करने में ही फायदा है। नेपाल की ओली सरकार ने ही नेपाल के नये नक्शे को संसद मे पेश करने मे आनाकानी की है। सवाल यह पैदा होता है कि यदि ओली इस तरह से चीन के कहने पर चलते रहेंगे तो आपसी संबंधों का क्या अंजाम होगा। 

इस समूचे परिदृश्य में नेपाल को बेरोजगारी और आर्थिक मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता हैं। भौगोलिक कारण से ये भू-भाग सामरिक दृष्टि से भारत और चीन के लिए बेहद उपयोगी और संवेदनशील हैं। 2002 से बन रही सड़क पर नेपाल 18 सालों तक चुप रहने का नाटक करता रहा। अब चीन के शह पर चल पडा है। रोटी-बेटी, धार्मिक-सांस्कृतिक-पौराणिक रूप से जुड़े संबंधों को एक झटके में नेपाल खत्म करना चाहता हैं। फिलहाल प्रधानमंत्री ओली को अपनी सत्ता जाने का भय उनके दिल मे घर कर गया है। प्रचंड भी चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। नेपाल का बुद्धिजीवी वर्ग इस विवाद को शांति से सुलझाने में विश्वास करता है। भारत सदैव ही ऐसी समस्या को बातचीत और कूटनीतिक तरीकों से हल करता रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मित्र राष्ट्र का सदैव सहयोग किया है। अब देखना होगा कि ओली का ऊंट किस करवट बैठता है।

(रुचि सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और नेपाल की समाजवादी पार्टी की जनसंपर्क अधिकारी हैं।)