
नेपाल एक बार फिर से राजनीतिक अनिश्चितता की तरफ बढ़ रहा है। पार्टी के आंतरिक कलह के कारण नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ‘ओली’ ने संसद को भंग करने की सिफारिश कर दी।
नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली की सिफारिश पर रविवार को संसद को भंग कर दिया और 30 अप्रैल को पहले चरण और 10 मई को दूसरे चरण का मध्यावधि चुनाव कराये जाने की घोषणा की है।
यह कदम ऐसे समय में उठाया गया है कि जब सत्तारूढ़ दल नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) में आंतरिक कलह चरम पर पहुंच गई थी। पार्टी के दो धड़ों के बीच महीनों से टकराव जारी है। एक धड़े का नेतृत्व 68 वर्षीय ओली तो वहीं दूसरे धड़े की अगुवाई पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष तथा पूर्व प्रधानमंत्री ‘प्रचंड’ कर रहे हैं।
नेपाल के इस राजनीतिक घटनाक्रम से बहुत से लोग हतप्रभ हैं। लेकिन नेपाल की राजनीति पर नजर रखने वालों के लिए यह घटना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। राजनीति विशेशज्ञों का मानना है कि नेपाल की राजनीति नेपाल से कम बाहरी देशों से ज्यादा संचालित होती है। ऐसे में सवाल उठता है कि भविष्य में भारत-नेपाल का संबंध क्या करवट लेगा।
भारत और चीन की नेपाल की राजनीति खासी दिलचस्पी है। भारत सदियों से नेपाल का पड़ोसी देश रहा है। धार्मिक एवं सांस्कृतिक रूप से दोनों देश एक दूसरे के करीब रहे हैं। लेकिन नेपाल में राजतंत्र के खत्म होने से भारत के राजनीतिक दलों की पकड़ वहां पर कमजोर होती गयी। कुछ साल पहले नेपाल में उभरे माओवादी और मधेसी आंदोलन ने भारत और नेपाल के संबंधों को खासा प्रभावित किया। नेपाल में भारत विरोधी माहौल आम हो गया। नेपाल के राजनेताओं का झुकाव भारत की बजाय चीन की तरफ होता गया।
नेपाल की राजनीति दो दशकों से संक्रमण के दौर से गुजर रही है। राजशाही की समाप्ति और माओवादी आंदोलन से निकले नेपाली राजनेताओं का मानना था कि भारत-नेपाल का संबंध दो ‘बड़े-छोटे’ भाईयों की बजाय दो संप्रभु देशों के संबंध की तरह होना चाहिये। नेपाल की इस उम्मीद पर भारत कभी खरा नहीं उतर सका।
राजशाही की समाप्ति के बाद वहां के राजनीतिक दलों ने नेपाल धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक दलों देश घोषित किया। नेपाल का यह कदम भारत के लिय़े तमाचा था। कांग्रेस के दौर में भारत इस घटना को नेपाल का आंतरिक मामला मानता रहा। लेकिन भारत में कट्टर हिंदूवादी छवि वाले नरेंद्र मोदी की सरकार नेपाल को हिंदू राष्ट्र के चश्मे से ही देखता रहा। जिसके फलस्वरूप भारत-नेपाल संबंध और खराब हुये। भाजपा यह बर्दाश्त नही कर पाती कि अपने को विश्व का एकमात्र हिंदू राष्ट्र कहने वाला नेपाल धर्मनिरपेक्ष हो जाये।
केपी शर्मा ‘ओली’ का झुकाव चीन की तरफ है यह किसी से छिपा नहीं है। चीन-नेपाल का यह गठजोड़ भारत के सिरदर्द को बढ़ाने वाला था। ऐसे में नेपाल के सत्ता से वंचित राजनेता भारत के संपर्क में थे। अब जब नेपाल में संसद भंग हो गयी है और आने वाले दिनों में चुनाव से सत्ता परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है। लेकिन यदि केपी शर्मा ‘ओली’ के हाथों दोबारा सत्ता आयी तो नरेंद्र मोदी सरकार क्या रणनीति अपनायेगी।
क्योंकि केपी शर्मा ओली (68) ने जून में दावा किया था कि उन्हें सामरिक रूप से महत्वपूर्ण तीन भारतीय क्षेत्रों के देश के राजनीतिक मानचित्र में दिखाने के बाद से उन्हें सत्ता से हटाने के प्रयास किये जा रहे हैं।