हांगकांग पर नए क़ानून से विवादों में घिरता चीन


चीन का हिस्सा होने के बावजूद इसके खुलेपन और अन्य विशिष्टताओं के चलते यूरोप और एशियाई देशों के असंख्य नागरिक भी हांगकांग के वासी बन गए। बाहर से आकर हांगकांग में निवास करने वालों में भारतीय भी बड़ी संख्या में हैं। 1997 में जब यह तय हो गया कि हांगकांग चीन को सुपुर्द कर दिया जाएगा तो हांगकांग के नागरिकों को अपने भविष्य की चिंता होने लगी थी।



किसी न किसी मामले को लेकर चर्चा में रहने वाला चीन आजकल फिर चर्चा में है। अभी कुछ महीने पहले ही तो अमेरिका के इस आरोप के चलते चीन अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों की सुर्खी बना था कि चीन ने अपनी लैब में कोरोना वायरस विकसित किया है जिसकी वजह से पूरी दुनिया के सामने भयंकर संकट खड़ा हो गया है। यही नहीं अमेरिका ने इस मामले में चीन पर विश्व स्वास्थ्य संगठन को गुमराह करने का भी आरोप लगाते हुए यह फैसला भी ले लिया कि अमेरिका इस संगठन को वित्तीय मदद नहीं करेगा।
अमेरिका के अनुसार विश्व स्वास्थ्य संगठन पैसा तो अमेरिका से लेता है लेकिन काम चीन के इशारे पर करता है। कोरोना वर्तमान सन्दर्भ में इतना बड़ा मुद्दा है कि इससे जुड़े किसी भी मामले को लेकर दुनिया का कोई भी देश बहुत जल्दी अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां बटोर लेता है। चीन तो वैसे ही चर्चा में रहता है लेकिन एक कदम और आगे बढ़ कर चीन इसलिए भी सुर्ख़ियों में बना हुआ है कि उसने हांगकांग के मसले पर एक नया क़ानून बना कर हांगकांग के हस्तांतरण के समय बने क़ानून और दोनों पक्षों के बीच आपसी सहमति से बने समझौते के प्रावधानों का उल्लंघन किया है। 

हांगकांग एक सदी से अधिक समय तक किसी न किसी रूप में ब्रिटेन के प्रशासनिक नियंत्रण में रहा था और 1997 में 99 साल की लीज अवधि समाप्त होने के बाद इसका चीन को हस्तांतरण हुआ था। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि चीन में कम्युनिस्ट सरकार है। इस वजह से वहां के आर्थिक तंत्र में खुलापन नहीं है, राजनीतिक और सामाजिक सन्दर्भ में भी कम्युनिस्ट शासन की अन्य बंदिशें वहां मौजूद हैं। इसके विपरीत हांगकांग 150 साल तक ब्रिटेन के और उससे पहले जापान के नियंत्रण में रहने के कारण यूरोप की तरह उन्मुक्त और खुलेपन का अहसास कराने वाला एक खूबसूरत द्वीपीय देश है। 

चीन का हिस्सा होने के बावजूद इसके खुलेपन और अन्य विशिष्टताओं के चलते यूरोप और एशियाई देशों के असंख्य नागरिक भी हांगकांग के वासी बन गए। बाहर से आकर हांगकांग में निवास करने वालों में भारतीय भी बड़ी संख्या में हैं। 1997 में जब यह तय हो गया कि हांगकांग चीन को सुपुर्द कर दिया जाएगा तो हांगकांग के नागरिकों को अपने भविष्य की चिंता होने लगी थी। सभी को ऐसा लगता था कि चीन की सरकार अपने क़ानून लागू कर उनका जीना मुहाल कर देगी और व्यापार तो चौपट हो ही जाएगा। 

इसी तरह की चिंता भारतवंशी नागरिकों की भी थी। दुनिया के सभी देश अपने- अपने नागरिकों के भविष्य को लेकर चीन के साथ अलग -अलग चर्चा कर रहे थे। इसी सन्दर्भ में भारत ने भी चीन के साथ कई दौर की वार्ता शुरू कर दी थी। उधर, चीन को भी यह अहसास था कि हांगकांग के हस्तांतरण के साथ ही उसे भी अपनी अर्थ व्यवस्था में बदलाव करना पड़ सकता है ताकि हस्तांतरण के बाद चीन की “क्लोज डोर” और हांगकांग की “ओपन डोर” आर्थिक व्यवस्था के बीच तालमेल बैठाया जा सके। इसके लिए चीन ने करीब तीन दशक पहले ही हांगकांग की अर्थव्यवस्था से मेल खाने वाले शेनझेन और शंघाई जैसे अनेक मुक्त व्यापार केन्द्रों की स्थापना करना शुरू कर दिया था।

भारत ने इस सम्बन्ध में चीन के साथ 1985 से बातचीत का सिलसिला शुरू कर दिया था। तब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और चीन के साथ सम्बन्धों को मजबूत बनाने की गरज से खुद चीन का दौरा किया था। 1962 में हुए भारत- चीन युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच बातचीत तक के रिश्ते ख़त्म हो चुके थे उन रिश्तों को राजीव सरकार ने पुनर्जीवित किया था। राजीव गांधी उस समय युद्ध के बाद चीन का दौरा करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए थे। 1989 में राजीव गांधी की पार्टी चुनाव हार गई थी और वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की गठबंधन सरकार बनी लेकिन उसे चीन या दुनिया के किसी भी देश के साथ सम्बन्ध बनाने का ध्यान ही नहीं रहा था।

1991 में यह सरकार अपने ही अंतर्विरोधों का शिकार होकर गिर गई थी। वीपी सिंह के स्थान पर चंद्रशेखर के नेतृत्व में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से समाजवादी जनता पार्टी सरकार का गठन हुआ था। चंद्रशेखर की सरकार भी अधिक समय तक नहीं चल सकी थी लेकिन जितने महीने भी यह सरकार वजूद में रही उसने पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने में कोई संकोच नहीं किया। इसी कड़ी में भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री स्वर्गीय विद्याचरण शुक्ल की अध्यक्षता मंत एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल ने 1991 के लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले जनवरी के अंतिम सप्ताह में चीन का दौरा किया था। 

इस प्रतिनिधिमंडल के साथ कुछ पत्रकार भी चीन की यात्रा पर गए थे उनमें एक नाम इन पंक्तियों के लेखक का भी शामिल था। करीब दस दिन तक चलने वाली इस विदेश यात्रा की शुरुआत श्रीलंका से हुई थी। इसी दौरे में कई तरह के अनुभव भी हुए और बहुत कुछ जानने-समझने को भी मिला। भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ चीन के नेताओं की इस वार्ता का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि जब 1997 में चीन के हस्तांतरण से एक दो साल पहले चीन और ब्रिटेन के शीर्ष नेतृत्व के बीच इस मामले पर अंतिम बातचीत हुई तो भारतीय पक्ष को भी इस चर्चा में शामिल कर लिया गया था। इस तरह हांगकांग में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों की चिंताएं भी एक लिहाज से ख़त्म ही हो गईं थीं। आज ये चिंता फिर से पैदा हो गई है। चीन ने हस्तांतरण के समय ब्रिटेन के साथ जो समझौता किया था उसके कई प्रावधानों का अपने नए राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून में उल्लंघन किया है।