
डॉ. शिवा श्रीवास्तव
हमारी कुछ पुरानी आदतों मे से शुमार एक – सफेद कपड़ों मे नील लगाना भी रहा है। कुछ वर्षों पहले तक भारतीय घरों मे ‘नील’ जरूर रखा जाता था। स्कूल की सफेद पोशाक हो या घर के सफेद कपड़े, धोने के बाद उनको नील मे डुबो कर ही सुखाया जाता। बड़ी साधारण और महत्वपूर्ण बात थी। साधारण यूं कि कपड़े धोने के बाद लगानी है और महत्वपूर्ण इसलिए लगानी आवश्यक है। परंतु पिछले कुछ सालों मे मैंने अपने घर मे नील का कोई पुड़ा(पैकेट) नहीं देखा, और शायद आप मित्रों के घरों से भी वो नील का पुड़ा गायब हो चुका होगा। तरह तरह के साबुन, सरफों की दूध जैसी सफेदी वाले विज्ञापनों (जिसमे नील का कोई विज्ञापन नहीं होता) ने हम सभी के घरों में बिना नील के ही आंखें चौंधियाने वाली चमकार भर दी।
लाल, पीला नीला ये वो तीन रंग हैं जिनसे बाकी के रंग तैयार किए जाते हैं। सिंथेटिक रंगों की बात ना करे तो प्रकृति ने हमे कपड़े रंगने के लिए लाल और पीला रंग खूब दिया है (प्राकृतिक रंगों से रंगे कपड़ों का उपयोग आजकल ब्रांडेड कंपनियां खूब कर रही हैं और मनमाने दाम वसूल रही हैं)। किन्तु नीला रंग आमतौर पर प्रकृति से भी मुश्किल से मिलता है।
इस नीले रंग का बड़ा महत्व है क्यों कि नील की खेती और उस से जुड़े आंदोलन का एक इतिहास है। यह बात सन 1917 की है। नील और उस से जुडा आंदोलन ‘चंपारण सत्याग्रह’ कहलाया। यह आंदोलन नील की खेती करने वाले किसानों को न्याय दिलाने के लिए था।
भारत मे नील की खेती बहुत पहले से होती आ रही है। इस से ही कपड़े रंगने का नील बनता है, और नीले रंग के कपड़े भी बनते हैं। चंपारण मे अंग्रेजों ने नील की खेती और उसके व्यापार पर भी अपना कब्जा जमा लिया था। उस समय इस खेती से होने वाले व्यापारिक लाभ अंग्रेजों को होते और भारतीय किसान नुकसान झेलते।
बिहार के चंपारण इलाके मे नील का व्यापार करने वाले किसानों से जबरदस्ती खेती कराने वाले अंग्रेज ‘निलहे’ कहलाते थे। सत्ता उनके हाथ मे होने के कारण जमीदारों से ज्यादा ताकतवर हो चुके थे वे। इसलिए किसानों से सस्ते मे फसल खरीदते और बड़े मुनाफे पर उसे विदेश मे बेच देते। जो किसान विद्रोह करते और नील की जगह दूसरी खेती करते तो उनसे ये निलहे दोगुना लगान वसूल करते। चंपारण के इन किसानों पर चौवालीस (44) से ज्यादा अलग अलग तरह के टैक्स लगा दिए गए। कुल मिला कर इन निलहों की मनमानी चल रही थी। दिन ब दिन किसानों के हालत बिगड़ने लगे, उन्होंने अपनी क्षमता से कई आंदोलन किए परंतु कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि अत्याचार और बद गए।
उन दिनों पूरा हिंदुस्तान गांधी जी की तरफ ही देख रहा था। किसानों ने गांधी जी तक अपनी बात रखना जरूरी समझ। परंतु तब तक गांधी जी को चंपारण और वहाँ की इस समस्या के बारे मे कुछ नहीं पता था। बात पहुँचाने के लिए “राजकुमार शुक्ल’ जो की खुद एक किसान थे और ‘पीर मुहम्मद मुनिस’ पेशे से पत्रकार थे, ने गांधी जी से संपर्क किया। मजबूर किसानों के दुख सुनकर वे बिहार आने को राजी हुए। गांधी जी बस ये सोच कर आए की 2-3 दिन का काम है, जल्दी खत्म करके वापस चले जाएगे। परंतु चंपारण पहुचने पर वहां किसानों की दुर्दशा और किसानों के मन मे निलहों के डर ने गांधी जी का मन बदल दिया। गांधी जी ने तय किया की जब तक किसानों को न्याय नहीं दिलवा देते, वापस नहीं जाएगे। किसानों के मन से निलहों का डर निकालना ही समस्या का समाधन था।
बिहार पहुचने पर कोई और संपर्क न होने से राजकुमार शुक्ल और गांधी जी अकेले थे। तभी इंग्लैंड मे उनके साथ पड़े वकील ‘मौलाना मजहरुल हक’ की याद आई और गांधी जी उनसे मदद मांगने उनके घर चले गए। काम शुरू हुआ। फिर तो बड़े बड़े वकील(जिनकी फीस ही उस समय 10-10000/- रुपये हुआ करती थी) और साधन सम्पन्न लोग इस आंदोलन का हिस्सा बने। डॉ राजेन्द्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, हसन इमाम, धरणीधर प्रसाद, शंभू शरण, नारायण सिन्हा, जीवटराम कृपलानी इत्यादि। ऐसे लोग भी जो समाज मे अपने धन बल से प्रतिष्ठित थे, सब छोड कर गांधी जी के साथ इस सत्याग्रह मे जुड़ गए, और बहुत सादे तरीके से जीने लगे।
शुरुआत मे ही सरकार से तकरार हुई,गांधी जी गिरफ्तार हुए हजारों की संख्या मे किसान उनके साथ थे। पर गांधी जी को कोई हिंसा नहीं करनी थी। वे तो साधारण किसानों की समस्या का समाधान चाहते थे। सरकार ने मामला वापस लिया और गांधी जी से पूछा की उनको क्या मदद चाहिए? गांधी जी ने टेबल और कुर्सी मांगे। बस गांधी जी जहां जाते, उनके पीछे एक बेलगाड़ी मे एक टेबल और तीन कुरसिया चलती। गांव मे बेलगाड़ी रुकती टेबल कुर्सी उतरटी और काम शुरू हो जाता। किसानों के हाल चाल पूछना और रपट तैयार करना काम था।
गांधी जी ने मजबूर किसानों को मजबूत वकीलों से जोडा, और देखते देखते सब एक-दूसरे से जुड़ गए। हिंदुस्तान मजबूत होता गया। गांधी जी के साथ और विद्वान वकीलों की मदद से सरकार से उन सभी को उनकी खेती और जमीनें वापस मिल गई। सभी के सहयोग से यह भारत का पहला सफल सत्याग्रह आंदोलन था, जो की गांधी जी के नेतृत्व मे किया गया था। यह आदोंलन किसानों के लिए किया गया था । किन्तु स्वतंत्रता की लड़ाई मे भारत के इतिहास मे यह पहला सफल कदम था, इसलिए इसका महत्व और अधिक बढ जाता है।
अक्टूबर 2019 मे ‘गांधी-150वी जयंती’ पर बिहार जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। 2017 मे चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष मनाया गया। ‘ज्ञान भवन, पटना’ उसी की याद दिलाता है। सभागार मे चंपारण के किसानों का हाल दिखाटी एक आकृति बनी है, जिसमे किसान खेती करते दिख रहे हैं और जिस पर लिखा है- ‘निलहे आए, निलहे गए’, भव्य सभागार मे पहली बार गांधी जी तक पहुचने वाले उन दो महान व्यक्तियों को समर्पित कक्ष भी हैं, ‘राजकुमार शुक्ल कक्ष’ और ‘पीर मुहम्मद मुनिस कक्ष’। उनको इस सम्मान के साथ यादों मे जीवित रखा है आने वाली पीढ़ियों के लिए यह प्रेरणादायक है।
( डॉ. शिवा श्रीवास्तव भोपाल में रहती हैं।)