अव्यवस्था से व्यवस्था : मैंडलब्रॉट, प्रिगोजिन और चकबस्त

चंद्रभूषण
मत-विमत Updated On :

कोई एक सदी पहले गुजरे इंटलेक्चुअल लखनवी शायर बृज नारायण ‘चकबस्त’ का मशहूर शेर है- ‘ज़िंदगी क्या है, अनासिर में ज़ुहूर-ए-तरतीब / मौत क्या है, इन्हीं अजज़ा का परीशां होना।’ यानी, तत्वों में व्यवस्था पैदा होना जीवन है और इनका अस्त-व्यस्त हो जाना मृत्यु। बहुत सारे उलझे हुए दार्शनिक प्रश्नों का इतना सीधा, सुंदर, संक्षिप्त भौतिकवादी उत्तर मिलना सारी वैज्ञानिक तरक्की के बावजूद आज भी बहुत आसान नहीं है।

बहरहाल, इस जवाब से आगे का और कहीं ज्यादा बुनियादी सवाल यह है कि अपने इर्द-गिर्द तो हम उलटा ही होते देखते हैं। कोई समझदार दखल न हो तो चीजें व्यवस्थित से अव्यवस्थित होती जाती हैं। एक घर को खूब साफ-सुथरा करके और ठीक से बंद करके साल भर के लिए कहीं चले जाएं, फिर लौटकर उसका हाल देखें! क्या कोई ऐसा तरीका दुनिया में मौजूद है, जिससे चीजें अपने आप, बिना किसी सचेतन प्रयास के अव्यवस्थित से व्यवस्थित होने लगें?

जैसे, इधर-उधर पड़े पत्थरों से खुद-ब-खुद एक नई कुतुबमीनार खड़ी हो जाए, या फिर सोशल मीडिया की अंतहीन आक्रोशमय गिटपिट से कोई नया ‘अमुकचरितमानस’ तैयार हो जाए? ‘सृष्टि का क्रम खुद से बन जाने’ वाली बात लोगों को पूरे मानव इतिहास में इतनी अटपटी लगती रही है कि अपने इर्द-गिर्द नदियों, पहाड़ों, जंगलों आदि का इंतजाम देखकर इन सब में दैवी तत्वों की और जनहित में इनके नियंता ईश्वर की कल्पना करना ही उनके लिए लाजमी हो गया।

दुनिया के सुदूर, अलग-थलग कोनों में भी कोई ऐसा समाज नहीं खोजा जा सका है, जिसका काम किसी नियामक परमसत्ता की खोज या उससे मिलती-जुलती कोई और लंतरानी झाड़े बगैर चल गया हो। अकेले बुद्ध इस धारणा से जूझते हैं, हालांकि समय बीतने के साथ उनका धर्म भी इसकी जद में आ जाता है। तत्वों में व्यवस्था, ‘अनासिर में जुहूर-ए-तरतीब’ कायम होने का कोई साफ-सुथरा तरीका अगर आम इंसानी समझ के दायरे में होता तो मानव सभ्यता को इस हवा-हवाई अवधारणा पर इतनी बुरी तरह निर्भर न होना पड़ता।

यह भी दिलचस्प है कि पिछली आधी सदी में बात इस दिशा में काफी आगे गई है, लेकिन पश्चिम में हर बौद्धिक प्रस्थापना को जल्दी से जल्दी चलन से बाहर करने का चलन इतना तगड़ा है कि इसकी चर्चा आम लोगों तक पहुंचने से पहले ही गायब हो गई। हम बात कर रहे हैं केयॉस थिअरी’ की। एक पेड़, बादल, पहाड़ और मानव भ्रूण की रक्त नलिकाओं में कुछ भी एक-सा नहीं दिखता, लेकिन खाके के तौर पर इनकी बनावट में बहुत कुछ साझा जान पड़ता है।

अमेरिका की नामी चिपमेकर कंपनी आईबीएम से जुड़े गणितज्ञ बेनुआ मैंडलब्रॉट (1924-2010) ने बेतरतीब सी दिखती ऐसी बहुतेरी चीजों का पैटर्न समझने के क्रम में अव्यवस्था के बीच से व्यवस्था के उदय का एक गणित तैयार किया। फ्रैक्टल एनालिटिक्स नाम के इस गणित से अभी जितना जुड़ाव गणितज्ञों का है, उतना ही जीवविज्ञानियों, कंप्यूटर आर्टिस्टों और शेयर बाजार के धंधे से जुड़े आला दिमागों का भी है।

सृष्टि रचना से जुड़ा ऐसा ही एक बुनियादी काम रूसी रसायनशास्त्री इल्या प्रिगोजिन का है- ‘डिसीपेटिव स्ट्रक्चर्स’। ऐसी संरचनाएं, जो बिना किसी हस्तक्षेप के लगातार व्यवस्थित होती जाती हैं, या दो स्थितियों के बीच आवाजाही करती रहती हैं। कुछ सामान्य रसायनों और समुद्री चक्रवात जैसी निर्जीव चीजों और परिघटनाओं के साथ भी ऐसा देखा जाता है। जिंदा चीजें तो सिर्फ इस चमत्कार का एक अति विशिष्ट रूप भर हैं।

कार्बन डायॉक्साइड और अमोनिया जैसी कुछ सरल गैसों और पानी की भाप से अपने आप जटिल पदार्थों का उदय दिखाने वाले स्टेनली मिलर (1930-2007) के प्रयोग से लेकर उल्काओं में एमिनो एसिड जैसे जैव उत्पादों की उपस्थिति बताने वाले हचीसन मीटियोराइट तक जीवन के रासायनिक उद्भव की जो भी आधी-अधूरी कड़ियां जोड़ी जाती रही हैं, उनकी अकेली समस्या जीवन की मूल इकाई डीएनए के उदय और विकास का ‘वन-ऑफ केस’ बने रह जाना ही रही है। ईंटें अपने आप भले बन जाती हों, मकान नहीं बन पाता।

इवोल्यूशन एक ऐसी सतत प्रक्रिया है, जो अरबों सालों से कितनी ही उच्छेदक घटनाओं के बावजूद न केवल अक्षुण्ण है बल्कि दिनोंदिन और-और जटिल ही होती जा रही है। इसके खिलाफ दी जाने वाली दलील यह रही है कि अजैव पदार्थों से जैविक पदार्थों का उदय और विकास अगर संभव मान लिया जाए तो इसका दावा करने वाले इसके करीब का कोई एक ऐसा केस दिखाएं, जहां चीजें पड़ी-पड़ी बिगड़ती जाने के बजाय दिनोंदिन बनती, सुधरती चली जा रही हों!

मैंडलब्रॉट और प्रिगोजिन जैसे विज्ञानियों ने इस समस्या को ही संबोधित किया है। उनका कहना है कि संसार में चीजें आम तौर पर भले ही व्यवस्थित से अव्यवस्थित होती नजर आती हों, लेकिन अव्यवस्था से व्यवस्था पैदा होना भी कोई असंभव कृत्य या ऐसा अद्भुत अपवाद नहीं है, जितना जीवन के मामले में यह ऊपरी तौर पर लगता रहा है। मामला अभी पूरी तरह सुलझा नहीं है। धरती के बाहर किसी ग्रह-उपग्रह पर एक बैक्टीरिया तक मिलना अभी शेष है। फिर भी, शुक्रिया चकबस्त साहब, दुनिया लौट-लौटकर आपको पढ़ती रहेगी।

(चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)