मोदी की नफ़रती राजनीति के कारण भीड़ हत्या का शिकार हो रहे आम नागरिक

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मत-विमत Updated On :

17 दिसंबर को छत्तीसगढ़ के एक प्रवासी मज़दूर राम नारायण बघेल की केरल में बांग्लादेशी होने के संदेह में पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। इसके एक सप्ताह बाद पश्चिम बंगाल के एक अन्य प्रवासी मज़दूर को ओडिशा में बांग्लादेशी होने के संदेह में मार दिया गया। उसी समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी असम और पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार कर रहे थे और “घुसपैठियों” का भय खड़ा कर रहे थे। ये भीड़ हिंसा की घटनाएँ अलग-थलग नहीं हैं। पिछले कुछ वर्षों में अनेक भारतीय नागरिकों को बांग्लादेशी होने के संदेह में निशाना बनाया गया है।

पिछले एक दशक से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा “घुसपैठियों” के खिलाफ़ एक विषाक्त अभियान चला रहे हैं और विपक्षी दलों पर उन्हें संरक्षण देने का आरोप लगाते रहे हैं। 2025 के अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत की जनसांख्यिकी बदलने के लिए “एक साज़िश और सुनियोजित षड्यंत्र” का आरोप लगाया और दावा किया कि घुसपैठिए देश के युवाओं की आजीविका छीन रहे हैं।

2024 के आम चुनावों के दौरान मोदी ने दावा किया कि विपक्षी दल भारतीय महिलाओं की संपत्ति छीनकर उसे घुसपैठियों में बाँटना चाहते हैं। महाराष्ट्र, झारखंड और बिहार के राज्य चुनावों में भी उन्होंने यही आरोप दोहराया और कहा कि विपक्षी दल घुसपैठियों को शरण दे रहे हैं। अब इन दावों का केंद्र पश्चिम बंगाल और असम बन गया है, जहाँ 2026 में चुनाव होने हैं।

यह सब इस तथ्य के बावजूद है कि 2014 से केंद्र में भाजपा की सरकार है, मोदी इसके नेतृत्व में हैं और सीमा सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उन्हीं की है। सत्तारूढ़ दल की 20 राज्यों में भी सरकारें हैं। इसके बावजूद, भाजपा बार-बार अवैध अप्रवासन के लिए विपक्ष को निशाना बनाती रही है। भाजपा के सोशल मीडिया हैंडल विपक्षी दलों को अवैध अप्रवासन के लिए दोषी ठहराने वाली घृणास्पद तस्वीरें पोस्ट करते रहे हैं। लेकिन बयानबाज़ी से इतर, मोदी सरकार बड़े पैमाने पर अप्रवासन और जनसांख्यिकीय बदलाव के अपने दावों का एक भी ठोस प्रमाण सार्वजनिक नहीं कर पाई है।

मोदी ने चुनाव आयोग की विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) प्रक्रिया पर विपक्ष की आपत्तियों को भी “घुसपैठियों को बचाने” से जोड़कर पेश किया। चुनाव आयोग ने मतदाता सूची में “विदेशी अवैध प्रवासियों” की मौजूदगी को एसआईआर के कारणों में से एक बताया। मोदी ने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान “घुसपैठिया” शब्दावली का लगातार इस्तेमाल किया। लेकिन विशेष गहन पुनरीक्षण अभ्यास समाप्त होने के बाद, आयोग 8 करोड़ मतदाताओं में से केवल 689 विदेशियों की पहचान कर पाया, जिनमें से अधिकांश नेपाल से थे, जिसके साथ भारतीय खुली सीमा और पारिवारिक संबंध साझा करते हैं।

2020 में भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने दावा किया था कि उनके घर पर काम करने वाले कुछ मज़दूर बांग्लादेशी हैं क्योंकि वे पोहा खा रहे थे। अगस्त 2025 में दिल्ली पुलिस के एक पत्र में बांग्ला को “बांग्लादेशी भाषा” कहा गया। जो कोई भी अलग दिखता है या अलग बोलता है, उसे “घुसपैठिया” समझ लिया जाता है। अब सत्तारूढ़ दल द्वारा संरक्षण पाए हुए भीड़तंत्र ऐसे लोगों पर बेखौफ़ हमला कर सकता है और उनकी भीड़ हत्या कर सकता है। जो विविधता कभी भारत की पहचान थी, वह उसके नागरिकों के लिए अभिशाप बन गई है।

प्रवासी मज़दूरों को प्रशासन द्वारा भी अवैध घुसपैठिया होने के संदेह में निशाना बनाया जा रहा है। उन्हें बिना उचित कानूनी प्रक्रिया के हिरासत में लिया जाता है और पहचान पत्र होने के बावजूद प्रताड़ित किया जाता है। कई लोगों को डीटेंशन कैम्प से लंबी कानूनी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ती हैं ताकि वे अपनी भारतीय नागरिकता साबित कर सकें। कई मामलों में उन्हें बांग्लादेश निर्वासित कर दिया जाता है, जिसके बाद वे किसी तरह वापस भारत लौटते हैं।

मोदी की कुत्सित “डॉग-व्हिसल” राजनीति ने पूरे भारत में उन्माद का माहौल बना दिया है। डर फैलाना सत्तारूढ़ दल का राष्ट्रीय एजेंडा बन चुका है। “घुसपैठिया” की बयानबाज़ी हर चुनाव में लोगों को डराने और भड़काने के लिए इस्तेमाल की जाती है, चाहे लोग भीड़ हत्या में मारे जाएं या ग़लत तरीक़े से जेल में डाल दिए जाएं।

(ऋषि आनंद का लेख)