भारत चीन के बीच ‘सीमा पर शांति’ ही एकमात्र विकल्प है


भारत और चीन दोनों ही इस बात को समझते हैं कि सीमा विवाद के कारण दोनों ही देश अपने विकास को दांव पर नहीं लगा सकते क्योंकि अगर ऐसा होता है कि प्राइस वाटरहाउस कूपर की वह भविष्यवाणी 2050 तक सफल नहीं हो पायेगी जिसमें इन दोनों देशों को भविष्य की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बताया गया है। भारत और चीन जिन क्षेत्रों में सीमा से जुड़ते हैं वो बहुत दुर्गम क्षेत्र हैं।



आखिरकार हफ्तों से चल रहे भारत चीन सीमा विवाद के बीच एक राहत भरी खबर आ गयी। चीन “विवादित” भूमि से अपने सैनिकों को पीछे हटायेगा। हालांकि ये सिर्फ सेना के सूत्रों के हवाले से मात्र खबर भर है इसलिए जब तक सरकार या सेना स्वयं आधिकारिक स्तर पर कुछ न कह दे, तब तक आशंकाएं बनी ही रहेंगी। 

लेकिन लद्दाख में सीमा विवाद के कारण भारत चीन के बीच बिगड़ते रिश्ते के बीच कम से युद्ध की आशंकाओं के बादल कम किये हैं। भारत और चीन सिर्फ पड़ोसी देश भर नहीं है। दो ऐतिहिसिक सभ्यताएं भी हैं। दोनों ही देश विश्व के आर्थिक मानचित्र पर उभरती महाशक्तियां भी। इस समय चीन दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है जबकि भारत दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था। प्राइस वाटरहाउस कूपर के आंकलन के अनुसार 2050 में चीन संसार की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगा और भारत दूसरी। वर्तमान में संसार की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था बन जाएगा। 

अगले तीस सालों में चीन और भारत न सिर्फ संसार की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होंगी बल्कि सबसे बड़ी जनसंख्या भी इन्हीं दो देशों के पास होगा। दोनों देश फिर से वहां पहुंचने वाले हैं जहां यूरोप की औद्योगिक क्रांति से पहले थे। अर्थात चीन उस समय भी संसार की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था और भारत दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था। लेकिन यूरोप की औद्योगिक क्रांति ने संसार के आर्थिक मानचित्र को ऐसा बदला कि संसाधन और उपभोक्ता होने के बावजूद ये दोनों देश लंबे समय तक औद्योगिक मानचित्र से गायब रहे। 

अब बीते तीन चार दशक से इन देशों ने संसार के औद्योगिक मानचित्र पर अपना स्थान सुनिश्चित करने के लिए दोबारा से प्रयास शुरु किया और चीन बहुत तेजी से आगे बढ़ते हुए न सिर्फ चीन के उपभोग के लिए बल्कि संसार की बड़ी आबादी के उपभोग के लिए औद्योगिक उत्पादन कर रहा है। भारत अभी संसार का उत्पादक तो नहीं बना लेकिन अपनी पांच ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी के लक्ष्य के साथ मोदी ने इसी दिशा में कदम बढ़ाया  है। मोदी सरकार का मेक इन इंडिया कार्यक्रम भी ज्यादा से ज्यादा उत्पादकों को भारत लाने और आयात पर निर्भरता समाप्त करने का ही प्रयास है। 

कहने का आशय ये है कि दोनों ही देश अपने अपने स्तर पर औद्योगिक बढ़त हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में सीमा विवाद दोनों ही देशों के लिए प्रतिगामी कदम होगा। भारत और चीन इस बात को समझते हैं इसलिए पहले 1996 में फिर उसके बाद 2005, 2008 और 2013 में सीमा विवाद सुलझाने के लिए अलग अलग समझौते किये गये। इन समझौतों का मुख्य उद्देश्य यही था कि अतीत के सीमा विवाद के कारण हम अपना वर्तमान नहीं बिगाड़ सकते इसलिए हमें यथास्थिति रखते हुए सीमा विवाद को भविष्य की पीढ़ियों के लिए छोड़ देना चाहिए। 

लेकिन पहले दौलतबेग ओल्डी, फिर डोकलाम और अब गलवान घाटी। एक दशक में अलग अलग समय पर इन तीन सीमा विवाद दोनों देशों के संबंधों में खटास जरूर पैदा की है। सरकार बनाने के बाद से ही नरेन्द्र मोदी का प्रयास ये था कि दोनों देश एशियाई शक्ति ही नहीं बल्कि विश्व शक्ति के रूप में उभरें, इसके लिए दोनों देशों को मिलकर काम करने की जरूरत है। 

2006 में भारत, चीन, रूस, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को लेकर बने ब्रिक्स को मजबूत करने का प्रयास किया गया। जुलाई 2014 में तय किया गया कि विश्व बैंक और एशियन डेवलपेन्ट बैंक की तरह ब्रिक्स बैंक की भी स्थापना की जाएगी जो इन देशों के विकास परियोजनाओं में निवेश करेगी। जुलाई 2015 में न्यू डेवलपमेन्ट बैंक के नाम से इसकी स्थापना भी हो गयी जिसका मुख्यालय शंघाई में बनाया गया है। यह बैंक जल प्रबंधन, स्वच्छ उर्जा उत्पादन और परिवहन में निवेश कर रहा है। 

भारत और चीन दोनों ही इस बात को समझते हैं कि सीमा विवाद के कारण दोनों ही देश अपने विकास को दांव पर नहीं लगा सकते क्योंकि अगर ऐसा होता है कि प्राइस वाटरहाउस कूपर की वह भविष्यवाणी 2050 तक सफल नहीं हो पायेगी जिसमें इन दोनों देशों को भविष्य की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बताया गया है। भारत और चीन जिन क्षेत्रों में सीमा से जुड़ते हैं वो बहुत दुर्गम क्षेत्र हैं।

 लद्दाख, हिमाचल, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल के बीच फैली 3500 किलोमीटर की सीमारेखा की सुरक्षा दोनों ही देशों के लिए मंहगा सौदा है। न तो चीन अपनी पूरी ताकत से इस सीमा पर लड़ सकता है और न भारत। चीन और भारत दोनों ही सीमा पर अभी आधारभूत ढांचे के विकास में लगे हैं। ये आधारभूत ढांचा (सड़कें, हवाई अड्डे) विकसित हो भी गये तो सैन्य साजो सामान यहां तक पहुंचाना दोनों ही देशों की अर्थव्यवस्था पर असर डालेगा। और अगर युद्ध हो गया तो इस युद्ध घाटे से उबरने में ही दोनों को लंबा समय लग जाएगा जिसका सीधा फायदा अमेरिका और यूरोप के उन देशों को होगा जो विश्व अर्थव्यवस्था में अहम हिस्सा रखते हैं। 

ऐसे में दोनों ही देशों के लिए सीमा पर शांति ही एकमात्र विकल्प है। ऐसा संकेत मिल रहा है कि गलवान घाटी में 15 जून की रात हुई “अप्रिय झड़प” के बाद बातचीत के जरिए दोनों ही देश उस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।