
प्रश्न: कोरोना महामारी ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया है। जीवन शैली से लेकर शासन-प्रशासन के तौर-तरीके में व्यापक परिवर्तन देखने को मिल रहे हैे। पुलिस विभाग इससे कितना प्रभावित हुआ है?
आभास कुमार: कोरोना हमलोगों के लिए नये तरह की चुनोती है। अभी तक पुलिस विभाग ने इस तरह का चैलेंज नहीं देखा था। हर एक स्तर पर, हर एक अफसर के लिए नया चैलेंज था। इससे पहले भी इस तरह की महामारियां आती रही हैं पर तब जागरूकता का अभाव था। जनता में अवेयरनेस फैलाने में सोशल मीडिया का बहुत बड़ा रोल है। इस बार पुलिस के लिए चुनौती ये नहीं था कि सिर्फ हेल्थ वर्कर को कनेक्ट करें बल्कि सोशल मीडिया पर भी लगे रहना था कि चीजें पैनिक न हो। नई समस्या के रूप में माइग्रेशन भी जुड़ा। तमिलनाडु में मजदूर बड़ी संख्या में काम करते हैं। यहां से तकरीबन 5 लाख लोग वापस गये तो तुरंत उनके रहने, खाने का इंतजाम पुलिस ने किया। स्थानीय प्रशासन भी इस काम में भागीदार रहा। इस मामले में तमिलनाडु सरकार ने बहुत अच्छा काम किया। सरकार ने एक भी आदमी को भूखा नहीं रहने दिया, चाहे एनजीओ हो या सरकार के रिसोर्स़ेज हो या पुलिस के रिसोर्सेज हों, सबका उपयोग हुआ।
यह एक नया मामला है, कोविड होने पर लोग पैनिक हो जाते हैं। उनको समझाना कि पैनिक होने की जरूरत नहीं है। आइसोलेटेड होने के लिए हम लोगों ने बैरिकेटिंग किया जो रेवेन्यू डिपार्टमेंट के बस की बात नहीं है। वे लोग भी कर रहे हैं पर लोगों से कनेक्ट करना और साथ में इन्श्योर करना और कंटेनमेंट जोन में जरूरी सामान पहुंचता रहे। मान लीजिए किसी को डायबिटीज है उसको दवा मिले, इसमें पुलिस का बहुत बड़ा रोल रहा। एक भी मौत कंटेनमेंट जोन में नहीं हुआ। मौतें अस्पताल में हुई। तमिलनाडु में कम्युनिटी पुलिसिंग और स्टेट पुलिसिंग ने जबरदस्त काम किया। अगर देखें, तमिलनाडु में कोरोना जांच का अनुपात देश की तुलना में चार गुना है। पुलिस ने कैंप लगवाना सुनिश्चित कराया। जिसमें मैन पावर को लगाया गया। सरकार ने पूरी कोशिश की कि एक भी आदमी भूखा न रहे, तमाम एनजीओ और सरकारी संसाधनों के सहयोग से पुलिस और स्वास्थ्य विभाग के बेहतरीन सामंजस्य से यह सम्भव हो पाया।
दूसरी ओर, पुलिस फोर्स में से एक तिराई को कोरेंनटाइन किया। सभी पुलिस एक साथ कोरोना से प्रभावित हो जाएगी तो अव्यवस्था (ला लेसनेस) जैसी स्थिति पैदा हो जाएगी इसलिए हम सबको रोटेट करते रहे। मैं खुद भी मौकों पर जाकर कोरोना संक्रमितों से मिलता था, सैकड़ों लोगों से मिला और उनका ढाढस बढ़ाया ताकि लोगों को लगे कि एडीजी साहब खुद आए और पुलिसकर्मियों में भी इसका सकारात्मक असर रहा।
तमिलनाडु के बहुत से लोग विदेशों में रहते हैं। इसके चलते यहां बड़ी संख्या में सीनियर पैरेंट्स को अकेले रहना पड़ता है। उनको कोई मदद चाहिए तो कोई नहीं है सिवाय पुलिस के। डिपार्टमेंट के पास सीनियर सिटिजन के संबंध में कोई जानकारी नहीं थी, हम लोगों ने एक-एक लोगों को ट्रेस किया। उनसे बीट आफिसर जाकर मिलें, उनको मोबाइल नंबर दिया, सांत्वना दिया कि कुछ भी होगा तो हम देख लेंगे। विदेशों से भी लोग आने शुरू हुए, वंदे भारत मिशन के तहत। उन लोगों की चेकिंग कर आइसोलेशन सेंटर तक पहुंचाना बहुत बड़ी चुनौती थी जिसको हमने सफलतापूर्वक संभाला। खासकर चेन्नई में अन्य जगहों के मुकाबले कोरोना के मामले घट रहे हैं, यहां हम लोगों ने कंट्रोल कर लिया है।
आभास कुमार: शुरू में पूरा लॉकडाउन था बाद में कुछ खुला। लोग तो टहलने के लिए निकलते ही निकलते हैं। लोग टहलने जाने लगे थे, सब्जी खरीदने जाने लगे तो उस दौरान चैन स्नैचिंग के मामले आने लगे थे लेकिन क्राइम केस कम हुए, सड़क दुर्घटना के मामले तो बहुत घट गये। ये सब फायदा हुआ।
प्रश्न: इस दौरान सरकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाना पुलिस के जिम्मे रहा ?
आभास कुमार : बिल्कुल, रेवेन्यू और पुलिस की टीम एक हो गई इस दौर में। मैं चेन्नई और आस-पास में साथ काम कर रहा था, लेकिन यहां केस बढ़ने के बाद चेन्नई को अलग कर दिया गया। सीएम और सेक्रेटेरिएट के इलाके का इंचार्ज अब भी मैं हूं। कोरोना प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस, रेवेन्यू और हेल्थ की टीम साथ गई और कोई उपाय था भी नहीं। एक गाड़ी में सब लोग जाते थे।
प्रश्न: मौजूदा पुलिस एक्ट के बारे में क्या कहेंगे ?
आभास कुमार : पुलिस एक्ट अंग्रेजों की देन है। मजेदार चीज ये है कि आईपीसी और सीआरपीसी के मेजर पोर्सन चेन्नई के डीजीपी के आफिस में लिखे गये। जिसका नाम मैसनरी लॉज हुआ करता था। जो मैकाले का रेसीडेंस हुआ करता था, वहीं बैठकर सीआरपीसी और आईपीसी लिखा गया। और बाद में मैकाले ऊटी में रहने लगा जहां शेष भाग लिखा गया। ऊटी में मैकाले का रेसीडेंस अब गवर्नमेंट कालेज बन गया है। यह कानून भारत में लागू होने के साथ वर्मा और पाकिस्तान में भी लागू था। सब जगह किसी न किसी रूप में इसे लागू कराया गया। लेकिन उसके बाद कई बड़े संशोधन होते रहे। एक बड़ा बदलाव 1973 में हुआ, उसके बाद भी हुए।
पहली बात, आज वह एक्ट उस रूप में नहीं रहा जिस रूप में अंग्रेजों के समय में था। दूसरी बात, इंडिया में जो नियम बनते हैं उसका स्रोत केवल पार्लियामेंट या स्टेट एसेंबली ही नहीं है। बहुत सारे नियम कोर्ट के आदेश से बने होते हैं। कोर्ट किसी मामले में जो आदेश दिया बाकी मामलों में फॉलो होते हैं। जैसे सीआरपीसी का कानून कहता है किसी को शारीरिक रूप से चोट लगी हो तो उसमें गिरफ्तारी की जानी चाहिए। लेकिन इसके साथ क्या ध्यान रखा जाना चाहिए यह सीआरपीसी में नहीं बताया गया। ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट का आब्जरवेशन काम आता है। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होगा, उसका मेडिकल जांच कराना होगा, बुजुर्ग या महिला को रात के अंधेरे में गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, महिला की गिरफ्तारी के दौरान महिला कांस्टेबल साथ में होनी चाहिए। ऐसे आब्जरवेशन सुप्रीम कोर्ट के अलावा कई हाई कोर्ट के आये हैं।
इस तरह के आब्जरवेशन से हमारे आईपीसी, सीआरपीसी में एडिशनल डायरेक्शन आ गये हैं। जो अंग्रेजों के जमाने के आईपीसी, सीआरपीसी को अब अलग बनाता है। अंग्रेजों के समय सीआरपीसी,आईपीसी का आब्जरवेशन था कि कर वसूली के दौरान समाज में जो कानून से ऊपर जा रहा हो उसे नियम के दायरे में लाना था, लेकिन अब इसका आब्जरवेशन ह्यूमन राइट्स प्रोटेक्शन के एंगल में जा रहा है। यानी कानून का फ्लो ये है कि बच्चों को जेल में नहीं ले जा सकते, लेडीज को लाकअप में बंद नहीं कर सकते।
हमारे यहां कानून-केंद्र और राज्य की विधायिका, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के आब्जरवेशन से बन रहें हैं। इसके साथ कस्टम (प्रथा) से भी कानून बनते हैं। संविधान के अंतर्गत इतने सारे जो बाडी बने हैं, जैसे प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, एससी/एसटी कमीशन या बैकवर्ड कमीशन इन सबका रोल क्या है, वाच डॉग का है। ये सब अंग्रेजों के जमाने में नहीं थे। एक समय था जब टैक्स वसूलने के लिए कानून का सहारा लिया जाता था लेकिन अब मानवाधिकार का हनन नहीं हो, इस पर हमारा ध्यान है। कानून तो वही है पर संशोधन होकर उसका फोकस कहीं और चला गया है।
प्रश्न: कोरोना का जो वैश्विक परिदृश्य है, विश्व युद्ध के बाद भी ऐसा देखने को नहीं मिला। कोरोना को लेकर आप अपने अनुभव के आधार पर क्या नीतिगत सुझाव देंगे?
आभास कुमार : यह एक तरह का ऐसा चैलेंज था जो अपनी लाइफ में हमने नहीं देखा। और इसमें हमारी एक लर्निंग ये रही है कि इस तरह के इशूज में अगर ज्वाइंट एफर्ट नहीं करेंगे तो सफलता नहीं मिलेगी। पुलिस ये समझ ले कि हम अपना काम करेंगे, रेवेन्यू अपना काम करने लगे तो सारे डिपार्टमेंट फेल हो जाएंगे। ऐसे मामले में हल निकालने का एक ही तरीका है कॉमन स्ट्रेटजी बनाई जाये। और, कामन गोल के साथ, एक टीम ऐसी हो कि कोई अफसर हेड करे। दूसरी तरफ, डिसेंट्रलाइजेशन यानी छोटे स्तर पर भी कोई टीम हो तो वहां भी अफसर फैसला ले सके। पहली बार यह मामला हुआ है तो हम लोगों ने काफी सीखा। अपने आप को सुरक्षित रखना भी मुद्दा था। साथ ही स्ट्रेंथ को रोटेट करते रहना था।
प्रश्न: इस दौरान डिप्रेशन एक बड़ा मुद्दा रहा है ?
आभास कुमार : मोटिवेशन बनाये रखना लीडर पर बहुत असर करता है। हम लोगों का हर कंटेनमेंट जोन में घुसने का यही कारण था। हां, डिप्रेशन में बहुत लोगों ने आत्महत्या की। हास्पिटल में सुसाइड हुए। ये सब हम लोगों ने पहली बार देखा। कैसे इसको संभालना है। सोशल मीडिया पर अफवाहों को रोकना है। सीनियर सिटिजन का ख्याल रखना, बहुत बड़ी समस्या थी। ऐसे ही सोर्स़ेज का करेक्ट अंडरस्टैंडिंग हो, मैपिंग हो। किसके पास क्या है क्या नहीं है। जैसे नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एजेंसी- इसमें कुछ डिजास्टर के लिए हमेशा तैयार रहते हैं कुछ आपदाओं के समय तैयार होते हैं। जिले के स्तर पर ये सब तैयारियां करना पड़ता है। कैसे डिस्ट्रिक्ट एसोसिएशन को काम पर लगाया जाता है। ये इस दौर का लर्निंग है। कोरोना खत्म हो जाए इसके बाद इस पर डिस्कशन किया जाएगा।