
गुरुवार को नाटकीय ढंग से हुई विकास दुबे की गिरफ्तारी/समर्पण ने ही यूपी पुलिस की कार्यक्षमता पर यह कहते हुए सवाल खड़ा कर दिया था कि जिसे राज्य की पचास पुलिस टीमें खोज रही हैं, उसे महाकाल मंदिर का एक गार्ड पकड़ लेता है। लेकिन उस धर पकड़ के बाद कानपुर में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के आरोपी विकास दुबे को लेने यूपी की एसटीएफ टीम चार्टर्ड प्लेन से इंदौर जाती है। लेकिन उसे प्लेन से लेकर वापस नहीं आती। सड़क के रास्ते लेकर यूपी एसटीएफ की टीम लख़नऊ के लिए रवाना होती है।
जब एसटीएफ की टीम अपराधी विकास दुबे को लेकर यूपी के लिए रवाना होती है तो उस समय अपनी इन्नोवा गाड़ी में मध्य प्रदेश पुलिस यूपी बार्डर तक आती है। बार्डर पर मध्य प्रदेश पुलिस दुबे को यूपी पुलिस को सुपुर्द करके वापस लौट जाती है जहां से विकास दुबे को एक सफारी गाड़ी में बिठाया जाता है। सफारी गाड़ी में बीच की सीट पर बीच में विकास दुबे बैठता है और उसके दोनों तरफ एसटीएफ के जवान। लेकिन यूपी बार्डर में प्रवेश करने के बाद मीडिया की कुछ गाड़िया एसटीएफ की गाड़ियों का पीछा करने लगती हैं। ऐसे में सुबह सात बजे कानपुर के टोल नॉका पर पुलिस मीडिया की गाड़ियों को रोक लेती है और एसटीएफ तीन गाड़ियों के साथ आगे निकल जाती है। करीब दस पंद्रह मिनट के लिए उस सड़क पर ट्रैफिक रोक दिया जाता है, यह कहते हुए कि ये रूटीन चेक है।
इसी पंद्रह मिनट के बीच विकास दुबे के एनकाउण्टर का सारा “खेल” खेला जाता है। करीब आधा घण्टा बाद जब मीडिया की गाड़ियां पीछा करते हुए घटनास्थल पर पहुंचती है तो वहां एक महिन्द्रा टीयूवी गाड़ी पलटी दिखती है और पुलिसवाले मीडिया को बताते हैं कि गाड़ी फिसल गयी थी जिसके कारण इस गाड़ी में सवार लोग घायल हो गये हैं। बाद में पता चलता है कि इसी गाड़ी में विकास दुबे था जिसने पलटने के बाद एक पुलिसवाले का रिवाल्वर छीनकर भागने की कोशिश किया, जिसके बाद पुलिस एनकाउण्टर में वह मारा गया।
ऐसे में सबसे पहला सवाल यही उठता है कि सात बजे तक जो विकास दुबे एसटीएफ के जवानों के बीच बैठा था वह सवा सात बजे टीयूवी गाड़ी में कैसे पहुंच गया? लेकिन ये सवाल अकेला नहीं है। सवाल बहुतेरे हैं।
मसलन, पुलिस का कहना है कि गाड़ी फिसल गयी तो फिर गाड़ी पर किसी खरोच का निशान क्यों नहीं है? गाड़ी के शीशे सही सलामत कैसे हैं? विकास दुबे को अगर भागना ही था तो चिल्ला चिल्लाकर वह उज्जैन में समर्पण क्यों करता? वह तो भाग ही रहा था तो फिर पुलिस की पकड़ में आने के बाद भागने का क्या तुक है? पुलिस ने अपनी मीडिया ब्रीफिंग में बताया कि घायल अवस्था में उसे अस्पताल ले जाया गया जबकि कानपुर के जिस एलएलआर अस्पताल में उसे ले जाया गया उस अस्पताल के प्रिंसिपल ने मीडिया से कहा कि वह मृत अवस्था में अस्पताल लाया गया था। उसके सीने में तीन और बांह में एक गोली लगी थी। सवाल ये है कि अगर वो भाग रहा था तो सीने में तीन गोली कैसे लगी?
यूपी पुलिस का कहना है कि गाड़ी पलटने से चार पुलिसवाले भी घायल हुए हैं लेकिन सवाल ये उठता है कि जब विकास दुबे एसटीएफ के साथ सफारी में बैठा था तो पुलिसवाले कैसे घायल हो गये? एसटीएफ के जवान तो सादी वर्दी में रहते हैं लेकिन जो पुलिस के जवान घायल दिखाये गये वो सब वर्दी में थे। तो क्या कानपुर हाइवे पर कुछ ऐसा हुआ जिसे पुलिस ने सोच समझकर प्लान किया था? या फिर सचमुच एक दुर्घटना के बाद विकास दुबे ने भागने की कोशिश किया और मारा गया?
यूपी पुलिस जो कह रही है उसमें सच्चाई सिर्फ इतनी है कि उसने विकास दुबे की हत्या करके अपने साथी जवानों की निर्मम हत्या का बदला ले लिया। बाकी जो कहानी गढ़ी गयी है उस कहानी में सौ झोल हैं। लेकिन सवाल पुलिस की कहानी पर नहीं पुलिस की कार्रवाई पर है।
विकास दुबे ने अपने साथियों के साथ मिलकर 2 जुलाई की रात आठ पुलिसवालों की हत्या कर दिया था। विकास दुबे कानपुर का एक लोकल गुण्डा था जिसकी पुलिस प्रशासन में भी अच्छी पकड़ थी। इसलिए सीओ के नेतृत्व में जब पुलिस दल उसके घर पर दबिश देने गयी तो उसने पुलिसवालों की निर्ममता से हत्या कर दिया। इसके बाद टीवी मीडिया में इस घटना की जबर्दस्त चर्चा शुरु हो गयी। जाहिर सी बात है पुलिस के लिए भी ये घटना नाक का सवाल बन गयी कि जो पुलिस अपने पुलिसकर्मियों की ही रक्षा नहीं कर सकती वो जनता की सुरक्षा कैसे करेगी? हनन फानन में पचास पुलिस टीम बनाकर विकास दुबे की खोज शुरु कर दी गयी। और अंतत: उसका भी उसी तरह अंत हो गया जैसे उसने पुलिसवालों का किया था।
लेकिन सवाल ये है कि विकास दुबे पर कई हत्याओं का आरोप था। हर बार न्यायिक प्रक्रिया के तहत उस पर कार्रवाई हुई और वो बचता रहा। तो क्या इस बार स्वयं पुलिस प्रशासन को न्यायिक प्रक्रिया पर भरोसा नहीं रहा कि उसे अदालत ले जाएंगे तो कभी मार नहीं पायेंगे? पुलिस का ये संदिग्ध एनकाउण्टर क्या अपने साथियों का बदला लेने का तरीका था? अगर ऐसा है तो भारत की न्याय प्रक्रिया के लिए विकास दुबे से बड़ी चुनौती है।
यूपी में अपराधियों का एनकाउण्टर एक नया फैशन है जिसे जनता में भी एक वर्ग का समर्थन प्राप्त है। उन लोगों के लिए एनकाउण्टर एक बेहतर विकल्प लगता है जो न्याय प्रक्रिया की खींचतान से ऊब चुके हैं। एक अपराधी को सजा देने में जज बूढ़ा हो जाता है लेकिन अपराधी अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पाता। ऐसे में किसी अपराधी का एनकाउण्टर जनता के वर्ग में खुशी की लहर तो लाता है लेकिन इससे वह पूरी न्याय प्रणाली ही ध्वस्त हो जाती है जिसकी बुनियाद पर लोकतंत्र टिका है।
न्याय प्रणाली की कमियों को दूर करने की बजाय एनकाउण्टर को रास्ता बनाया जाता है तो इससे समाज में अराजकता फैलने से कौन रोक पायेगा? अगर पुलिस को ये अधिकार है कि वह अपने साथियों की हत्या का बदला एनकाउण्टर करके ले ले तो फिर ये अधिकार जनता को क्यों नहीं हो? अगर उस न्याय प्रणाली पर पुलिस को ही भरोसा नहीं होगा जिसकी वह अंग है तो जनता भला कैसे भरोसा करेगी? लेकिन कुछ महीने पहले हैदराबाद में रेप के आरोपी पांच आरोपितों का एनकाउण्टर और यूपी में अपराधियों के हो रहे एनकाउण्टर ये बता रहे हैं कि जनता को भी लोकतंत्र से ज्यादा भीड़तंत्र का न्याय पसंद आ रहा है। यह अच्छा संकेत नहीं है।
अगर पुलिस तंत्र सचमुच जनता की सुरक्षा में लग जाए तो समाज में कोई विकास दुबे पैदा ही नहीं होगा, पैदा हो भी गया तो पल बढ़ नहीं पायेगा। ऐसे अराजक तत्व और अपराधी अगर पलते बढते हैं तो सीधे तौर पर ये पुलिस प्रशासन और न्यायिक प्रक्रिया की नाकामी होती है। ऐसी नाकामियों की सरहद एक दिन इतनी बढ़ जाती है कि वो पुलिसवालों की लाशें बिछा देती है। तब पुलिस काउण्टर में एनकाउण्टर करके बदला भले ले ले लेकिन समाज से माफियाओं और अपराधियों का प्रभाव कभी कम नहीं कर पायेगी। आज भी यूपी में दर्जनों माफिया अघोषित शासन चला रहे हैं, क्या पुलिस उनका भी एनकाउण्टर करेगी?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)