ममता बनर्जी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की राह का रोड़ा बनेगी पश्चिम बंगाल की राजनीतिक हिंसा!


जब  देश कोरोना महामारी का शिकार है; तब पश्चिम बंगाल के निवासियों का एक बड़ा हिस्सा कोरोना के साथ-साथ सांप्रदायिक राजनीतिक हिंसा का भी शिकार है। बंगाल में जारी यह भयावह और नृशंस हिंसा अभूतपूर्व तो है पर एकदम नयी नहीं है। इस हिंसा को नयी इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि पश्चिम बंगाल वामपंथियों द्वारा प्रायोजित राजनीतिक हिंसा का लम्बे समय से शिकार रहा है।


रसाल सिंह
मत-विमत Updated On :

कलकत्ता हाई कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने पश्चिम बंगाल की राजनीतिक हिंसा की निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित करने के लिए सी बी आई से जाँच का आदेश दिया है। इस फैसले का दूरगामी महत्व है। उल्लेखनीय है कि मई में आये विधान-सभा चुनाव परिणामों में तृणमूल कांग्रेस की निर्णायक जीत के बाद पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक राजनीति का खूनी खेला आजतक जारी है। जब  देश कोरोना महामारी का शिकार है; तब पश्चिम बंगाल के निवासियों का एक बड़ा हिस्सा कोरोना के साथ-साथ सांप्रदायिक राजनीतिक हिंसा का भी शिकार बना हुआ है। बंगाल में जारी यह भयावह और नृशंस हिंसा अभूतपूर्व तो है पर एकदम नयी नहीं है। इस हिंसा को नयी इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि पश्चिम बंगाल वामपंथियों द्वारा प्रायोजित राजनीतिक हिंसा का लम्बे समय से शिकार रहा है। यह हिंसा अभूतपूर्व इस मायने में है कि इसने नृशंसता और क्रूरता की सभी हदें पार करते हुए हिन्दू समाज को संगठित तरीके से शिकार बनाया है। इन हिंसक वारदातों में तृणमूल कांग्रेस के नेता/ कार्यकर्ताओं के साथ बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिये भी शामिल हैं। इस हिंसा में कई दर्जन निर्दोष भाजपा कार्यकर्ताओं को मार डाला गया है और अनेक लोगों के हाथ-पाँव काटकर उन्हें अपाहिज बना दिया गया है। बंगाल हिंसा ने अब तक वहां के 3000 से अधिक गांवों और 70,000 राष्ट्रवादी लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है। 3886 घर/संपत्तियां नष्ट की जा चुकी हैं। शर्मनाक है कि घरों को उजाड़ने के लिए बुलडोजरों और पेट्रोल बमों तक  का इस्तेमाल किया जा रहा है। हजारों राष्ट्रवादी बंगाली अपने ही देश में शरणार्थी बनने को विवश हो रहे हैं।

हिंसा-प्रभावितों में से अधिकांश सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित समूहों के लोग हैं, जिनमें अधिसंख्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति,महिलाएं और गरीब लोग हैं। विडंबना यह है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के स्वयं एक महिला होने के बावजूद वहां बड़ी संख्या में महिलाओं को प्रताड़ित किया जा रहा है। अब तक बलात्कार के चार और बलात्कार की धमकियों के 39 मामलों की पुष्टि हो चुकी है। ‘बंगाल की बेटी’ के राज में बंगाल की बहन-बेटियों के साथ दुष्कर्म की अनेक घटनाएं हुई हैं। ये मामले ‘अंडर-रिपोर्टिंग’ के बावजूद सामने आये हैं। दुख की बात यह है कि पीड़ितों की प्राथमिकी (एफआईआर) तक दर्ज नहीं की जा रही है। हालत यह तक है कि लोगों को जान बचाने के लिए न सिर्फ धर्म-परिवर्तन का सहारा लेना पड़ रहा है, बल्कि अपना घर-बार छोड़कर जान और अस्मत बचाने के लिए असम आदि पड़ोसी राज्यों में पलायन करना पड़ रहा है। यह निर्मम हिंसा बंगाल में तेजी से उभरते विपक्षी दल भाजपा के साथ चुनाव में खड़े होने वालों को सबक सिखाने की ममता बनर्जी की निर्मम-निरंकुश परियोजना का परिणाम है। विपक्षियों को पाठ पढ़ाने की इस कार्रवाई के दौरान बंगाल पुलिस-प्रशासन की चुप्पी और निष्क्रियता शर्मनाक और निंदनीय है। ‘बंगाल की बेटी’ ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस के उपद्रवियों द्वारा बंगाल के ही भाई-बहिनों पर ढाए जा रहे इन जुल्मों की ओर से आँखें मींचकर उन्हें पूरी शह दी है। बंगाल में जारी तांडव ने भारत की संवैधानिक संस्थाओं और भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर किया है। इन घटनाओं ने भारतीय संविधान और संवैधानिक प्रक्रियाओं में नागरिकों के विश्वास को भी कम किया है।

चुनाव आयोग, मानवाधिकार आयोग, केन्द्र सरकार द्वारा  हालात का जायजा लेने के लिए भेजे गए पर्यवेक्षकों और स्वयं राज्यपाल महोदय ने इस प्रायोजित सांप्रदायिक राजनीतिक हिंसा और नरसंहार का संज्ञान लिया था। देशभर के नागरिक समाज के प्रतिष्ठित सदस्यों और बुद्धिजीवियों (वामपंथी विचारधारा वाले सेक्युलर बुद्धिजीवी इसका अपवाद हैं) ने भी न सिर्फ इस क्रूर हिंसा की निंदा की है; बल्कि इसके खिलाफ महामहिम राष्ट्रपति महोदय को ज्ञापन दिए हैं। अभी तक बंगाल की संगठित राजनीतिक हिंसा की संस्कृति उतनी जगजाहिर नहीं थी; लेकिन इस चुनाव के बाद जो कुछ हुआ और जिस बेशर्मी से हुआ है; उसे देश की जनता ने विभिन्न टीवी चैनलों और समाचार-पत्रों में अपनी आंखों से देखा-पढ़ा है। केंद्र सरकार और भाजपा के विरोधी माने जाने वाले मीडिया समूहों ने भी इस निर्मम हिंसा की ख़बरों को व्यापक कवरेज दी है। कहने का आशय यह है कि इसबार असलियत सबके सामने आ गयी है।

ममता बनर्जी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा किसी से छिपी नहीं है। इसमें कुछ अनुचित या अस्वाभाविक भी नहीं है। परंतु ममता बनर्जी को यदि राष्ट्रीय विकल्प बनने के बारे में सोचना है तो उन्हें राजनीतिक हिंसा की संस्कृति को तिलांजलि देनी होगी। उन्हें लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक मूल्यों में  अपनी आस्था व्यक्त करते हुए उनकी रक्षा के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजनीतिक विरोधियों और विपक्षी दल के कार्यकर्ताओं के साथ शत्रुवत व्यवहार नहीं किया जाता है। वैचारिक विरोध और असहमति का सम्मान ही लोकतंत्र की आत्मा है। चुनावी प्रतिस्पर्धा शत्रुता का पर्याय नहीं बन जानी चाहिए। जो मेरे साथ नहीं हैं,वे मेरे खिलाफ हैं,वे मेरे शत्रु हैं और उन्हें जीने का अधिकार नहीं; इस प्रकार का दृष्टिकोण बहुत संकीर्ण, अलोकतांत्रिक और आत्मघाती है। इस समझ के तात्कालिक परिणाम भले ही अनुकूल हों; लेकिन दूरगामी परिणाम बहुत भयावह और प्रतिकूल होते हैं। वामपंथी दलों का उदाहरण सबके सामने है। सर्वहारा की तानाशाही और राज्यप्रेरित हिंसा की राजनीति करते-करते वे क्रमशः देश और दुनिया से ख़त्म होते जा रहे हैं। तमाम विपक्षी दलों को भी इस राज्यप्रेरित हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए और ममता बनर्जी पर कानून-व्यवस्था की बहाली का दबाव बनाना चाहिए। इस समय की उनकी रणनीतिक चुप्पी का इतिहास समय लिखेगा। 2024 दूर नहीं है जब सब कठघरे में खड़े होंगे और जनता जवाबतलब करेगी। सादगी और शुचिता की स्वघोषित ‘प्रतिमूर्ति’ ममता बनर्जी का संवैधानिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं में अविश्वास भी प्रकट हुआ है। एक निर्वाचित नेता का ऐसा आचरण श्रेयस्कर और स्वीकार्य नहीं है।

गृह मंत्रालय को भी इस मामले का तत्काल गंभीर संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार के साथ सीधी बातचीत करनी चाहिएI उसे निर्दोष नागरिकों, भाजपा कार्यकर्ताओं और नवनिर्वाचित विधायकों की सुरक्षा–चिन्ताओं से अवगत कराते हुए उनकी सुरक्षा की गारंटी सुनिश्चित करने का कड़ा निर्देश देना चाहिए। अगर स्पष्ट निर्देश के बावजूद कानून-व्यवस्था दुरुस्त नहीं होती और राज्य-प्रेरित हिंसा की घटनाएं बदस्तूर जारी रहती हैं तो राज्यपाल से विचार-विमर्श करके राष्ट्रपति शासन के संवैधानिक प्रावधान का प्रयोग किया जा सकता है। निश्चय ही, इस हिंसा से केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव बढ़ेगा। देश का संघीय ढांचा कमजोर होगा और लोकतान्त्रिक व्यवस्था भी क्षतिग्रस्त होगी। इसीलिए केंद्र सरकार को संविधान के दायरे में रहकर लोकतान्त्रिक मूल्यों और प्रक्रियाओं की रक्षा का कार्य करना चाहिए। सिर्फ विधायक ही नहीं सभी राजनीतिक कार्यकर्ता लोकतान्त्रिक मूल्यों और प्रक्रियाओं के ध्वजावाहक हैं। उन्हें सत्तारूढ़ दल के रहमोकरम पर नहीं छोड़ा जा सकता है। बंगाल में जारी हिंसा को तुरंत रोककर इस आतंक के लिए जिम्मेदार लोगों और समूहों को दंडित किये जाने की आवश्यकता हैI भारत विरोधी तत्वों और अवैध घुसपैठियों को नियंत्रित करने के लिए सभी संभव संवैधानिक प्रावधानों का उपयोग किया जाना चाहिए।  पीड़ितों के लिए पर्याप्त सुरक्षा और उचित मुआवजे का प्रावधान भी किया जाना चाहिए।

ममता बनर्जी को चुनाव के बाद हुई हिंसा पर देश से माफ़ी मांगते हुए उच्च स्तरीय और निष्पक्ष जाँच कराकर दोषी पार्टी कार्यकर्ताओं के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए ताकि देशवासियों को सही सन्देश दिया जा सके। ऐसा करके ही वे नुकसान की भरपाई और अपनी छवि पर लगे हुए बदनुमा दाग को धुंधला कर सकती हैं। वे पूरे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। सिर्फ तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं याकि उन्हें मिले 48 प्रतिशत मतदाताओं मात्र की मुख्यमंत्री नहीं हैं। साथ ही उन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिन बहुसंख्यक (52 प्रतिशत मतदाताओं) ने उनके पक्ष में मतदान नहीं किया; वे उनके शत्रु नहीं हैं। उन्हें बिना किसी पांथिक और राजनीतिक भेदभाव और वैमनस्य के राज्य के सभी नागरिकों को सुरक्षा देनी चाहिए। उनके जान-माल और सम्मान  की रक्षा करनी चाहिए और सरकार द्वारा संचालित तमाम कल्याणकारी और विकास योजनाओं में उनकी हिस्सेदारी पर ध्यान देना चाहिए। इसके अलावा उन्हें तत्काल केन्द्रीय गृह मंत्रालय और राज्यपाल को पत्र लिखकर समस्त नागरिकों की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करना चाहिए। निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को भी आवश्यक  सुरक्षा देनी चाहिए ताकि वे बिना किसी डर और दबाव के अपने दायित्व का निर्वहन कर सकें। किसी भी राज्य की पुलिस के ऊपर सत्तारूढ़ दल का कार्यकर्त्ता होने का ठप्पा लग जाना अत्यंत दुखद, दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अपनी और राज्य पुलिस की छवि को बचाने के लिए तत्काल इस दिशा में पहल करनी चाहिए। अगर दूर-दूर तक उनके मन में राष्ट्रीय विकल्प बनने की महत्वाकांक्षा है तो उन्हें विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं नहीं; बल्कि मानवता के सबसे बड़े शत्रु कोरोना के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए। इसके अलावा चुनाव के दौरान उन्होंने मुस्लिम तुष्टिकरण का परित्याग करके सर्व-धर्म समभाव का जो चोला ओढ़ा था; उसे ही अपना स्वभाव बनाना चाहिएI हिन्दुस्तान और हिन्दुओं के खिलाफ जेहाद छेड़ने वालों के साथ गलबहियां करके वे अपनी संभावनाओं का सत्यानाश कर रही हैं। धर्म-विशेष के लोगों को शह देकर और सिर पर बैठाकर वे कभी भी राष्ट्रीय नेता नहीं बन सकती हैं।

(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं।