प्रेमचंद, हिंदुस्तान और हिन्दुस्तानी


प्रेमचंद के साहित्य की भाषा को लेकर प्रोफेसर अमरनाथ का स्पष्ट मानना है कि इस देश की राष्ट्रभाषा के आदर्श रूप का सर्वोत्तम उदाहरण प्रेमचंद की भाषा है। प्रेमचंद का भाषा-चिन्तन जितना तार्किक और पुष्ट है उतना किसी भी भारतीय लेखक का नहीं है।



हम से मतलब हिंदुस्तान से है, खासतौर पर जब हम भाषा के सन्दर्भ में बात करते हैं तो देश के दक्षिण और पूर्वी क्षेत्र की आधादर्जन भाषाओं को छोड़ भी दें तो शेष भारत की सभी भाषाएं देश के लोगों को समझ में आती हैं। इस लिहाज से उत्तर और पश्चिम भारत की ये तमाम भाषाएं हमारी अपनी यानी हिन्दुस्तानी भाषाएं कहलाती हैं और हम का हिस्सा बन जाती हैं। प्रेमचंद और हम आज के जीवन की भी एक ऐसी ही सच्चाई है जो न केवल साहित्य के सन्दर्भ में बल्कि भाषा और आम जन – व्यवहार में भी इसकी झलक साफ़ देखी जा सकती है। 

31 जुलाई 1880 को पैदा हुए मुंशी प्रेमचंद आज अगर जिन्दा होते तो 140 साल के होते। इतनी लम्बी अवधि तक किसी इंसान का जीना तो एकदम असंभव है लेकिन प्रेमचंद अपने साहित्य के कथ्य, कथन और भाषाई व्यावहारिकता के चलते भारत के आम जन मानस में एकदम जीवित हैं। कह सकते हैं कि कोई भी कलाकार, साहित्यकार, महान जननायक अपने काम, कौशल और प्रतिभा के बल पर अपनी मौत के सैकड़ों साल बाद भी लोगों की मनःस्मृति में जीवित रह सकता है।  

इस लिहाज से प्रेमचंद को अपवाद नहीं माना जा सकता लेकिन ऐसा नहीं हैं क्योंकि प्रेमचंद ने अपने साहित्य में जिस आम हिन्दुस्तानी भाषा का इस्तेमाल किया है वो आज भी उसी रूप में आम हिंदुस्तान में बोली- समझी, पढ़ी और लिखी जाती है। भाषा के साथ ही प्रमचंद की रचनाओं के पात्र, कथानक और परिस्थितियां भी हूबहू आज जैसी ही दिखाई देती हैं। इन परिस्थितियों के चलते आज भी कई बार प्रेमचंद के जीवित होने का भ्रम  भी होने लगता है।

आज भी प्रेमचंद की गिनती देश के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले हिंदी लेखकों में होती है। उनकी पूस की रात, कफ़न, ईदगाह और बड़े भाई साहब जैसी असंख्य कहानियां हों या गबन और गोदान जैसे उपन्यासों के पात्र, कथानक और चरित्र चित्रण सभी कुछ देख कर ऐसा लगता है कि आज भी तो देश और समाज में कुछ भी बदला नहीं है। ऐसा नहीं है कि आज इंसान की जिन्दगी में कोई बदलाव नहीं आया है, बदलाव तो बहुत बड़ा आया है और इंसान बदला भी बहुत लेकिन प्रेमचंद के साहित्य को पढ़ कर आज भी ऐसा लगता है कि उन्होंने आज के इस बदलाव को सैकड़ों साल पहले ही समझ लिया था। उसी समझ से साहित्य साधना की जिसका नतीजा आज इस रूप में देखने को मिल रहा है कि सौ सवा सौ साल पहले उन्होंने जो कुछ भी लिखा हूबहू वैसा ही आज के जन जीवन में देखने को भी मिल रहा है।

आज भी प्रेमचंद का साहित्य बड़े-बड़े विद्वानों के निजी पुस्तकालयों से लेकर रेलवे स्टेशनों के बुक स्टाल तक में आसानी से देखने को मिल जाता है। प्रेमचंद की इस लोकप्रियता का एक कारण उनकी सहज और सरल भाषा भी है। आश्चर्य जनक बात यह है कि प्रमचंद के साहित्य पर तो पूरे देश में खूब चर्चा होती है लेकिन उनके साहित्य की इस सहज और सरल भाषा के मर्म पर ऐसा कोई चिंतन आमतौर पर नहीं होता। इस सन्दर्भ में खुशी की बात है कि वैश्विक हिंदी सम्मेलन जैसे एक संगठन ने प्रेमचंद साहित्य की भाषा के महत्त्व को समझते हुए इस पर चर्चा की शुरुआत की। इसी कड़ी में हिंदी के विद्वान् प्रोफेसर अमरनाथ ने इस मसले पर अपने एक आलेख में विस्तार से प्रकाश भी डाला है।

प्रेमचंद के साहित्य की भाषा को लेकर प्रोफेसर अमरनाथ का स्पष्ट मानना है कि इस देश की राष्ट्रभाषा के आदर्श रूप का सर्वोत्तम उदाहरण प्रेमचंद की भाषा है। प्रेमचंद का भाषा-चिन्तन जितना तार्किक और पुष्ट है उतना किसी भी भारतीय लेखक का नहीं है। ‘साहित्य का उद्देश्य’ नाम की उनकी पुस्तक में भाषा-केन्द्रित उनके चार लेख संकलित हैं जिनमें भाषा संबंधी सारे सवालों के जवाब मिल जाते हैं। इन चारो लेखों के शीर्षक है, ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी समस्याएं’, ‘कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार’, ‘हिन्दी –उर्दू की एकता’ तथा ‘उर्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तानी’।  

‘कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार’ शीर्षक निबंध वास्तव में बम्बई में सम्पन्न राष्ट्रभाषा सम्मेलन में स्वगताध्यक्ष की हैसियत से 27 अक्टूबर 1934 को दिया गया उनका व्याख्यान है। इसमें वे लिखते है, “समाज की बुनियाद भाषा है। भाषा के बगैर किसी समाज का खयाल भी नहीं किया जा सकता। किसी स्थान की जलवायु, उसके नदी और पहाड़, उसकी सर्दी और गर्मी और अन्य मौसमी हालातें, सब मिल-जुलकर वहां के जीवों में एक विशेष आत्मा का विकास करती हैं, जो प्राणियों की शक्ल-सूरत, व्यवहार, विचार और स्वभाव पर अपनी छाप लगा देती हैं और अपने को व्यक्त करने के लिए एक विशेष भाषा या बोली का निर्माण करती हैं। इस तरह हमारी भाषा का सीधा संबंध हमारी आत्मा से हैं। मनुष्य में मेल- मिलाप के जितने साधन हैं उनमें सबसे मजबूत असर डालने वाला रिश्ता भाषा का है।”

प्रोफेसर अमरनाथ इसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से बोली और भाषा के रिश्ते को लेकर बहुत बाद-विवाद चल रहा है। भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि कुछ हिन्दी की बोलियां हिन्दी परिवार से अलग होकर संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने की मांग कर रही हैं। इस संबंध को लेकर प्रेमचंद लिखते हैं, “जैसे जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है, यह स्थानीय भाषाएं किसी सूबे की भाषा में जा मिलती हैं और सूबे की भाषा एक सार्वदेशिक भाषा का अंग बन जाती हैं। हिन्दी ही में ब्रजभाषा, बुन्देलखंडी, अवधी, मैथिल, भोजपुरी आदि भिन्न-भिन्न शाखाएं हैं, लेकिन जैसे छोटी- छोटी धाराओं के मिल जाने से एक बड़ा दरिया बन जाता है, जिसमें मिलकर नदियाँ अपने को खो देती हैं, उसी तरह ये सभी प्रान्तीय भाषाएं हिन्दी की मातहत हो गयी हैं और आज उत्तर भारत का एक देहाती भी हिन्दी समझता है और अवसर पड़ने पर बोलता है। लेकिन हमारे मुल्की फैलाव के साथ हमें एक ऐसी भाषा की जरूरत पड़ गयी है जो सारे हिन्दुस्तान में समझी और बोली जाय, जिसे हम हिन्दी या गुजराती या मराठी या उर्दू न कहकर हिन्दुस्तानी भाषा कह सकें।”