पुण्य स्मरण: जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री नहीं थे


एक राजनीतिज्ञ की हैसियत से राजीव गांधी ने अपने 11 साल के जीवन में तीन रूपों में काम किया था। संजय गांधी की असामयिक मृत्यु के बाद जब वो पहली बार राजनीति में आये थे तो कांग्रेस पार्टी ने उनको एक महासचिव के रूप में पार्टी के संगठनात्मक कामों की भारी- भरकम जिम्मेदारी सौंपी थी। राजीव के लिए यह एक बहुत गंभीर और चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी थी क्योंकि उनको राजनीति की समझ नहीं थी।



एक राजनीतिज्ञ की हैसियत से राजीव गांधी ने अपने 11 साल के जीवन में तीन रूपों में काम किया था। संजय गांधी की असामयिक मृत्यु के बाद जब वो पहली बार राजनीति में आये थे तो कांग्रेस पार्टी ने उनको एक महासचिव के रूप में पार्टी के संगठनात्मक कामों की भारी- भरकम जिम्मेदारी सौंपी थी। राजीव के लिए यह एक बहुत गंभीर और चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी थी क्योंकि उनको राजनीति की समझ नहीं थी। दूसरा, उनके मिजाज में और छोटे भाई स्वर्गीय संजय गांधी के मिजाज में जमीन आसमान का फर्क था। संजय थोड़ा गर्म और बिगड़ैल स्वभाव के थे जबकि राजीव शांत और धीर मन के व्यक्ति थे। दो व्यक्तित्वों के स्वभाव की इस परस्पर विरोधी भिन्नता के चलते पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए भी राजीव गांधी को समझने में वक़्त लगा, वहीं राजीव गांधी की दिक्कत यह थी कि उनको भी कार्यकर्ताओं के मन की थास लेने में थोड़ा समय लगा। 

राजीव ने जल्द ही संगठनात्मक कार्यों को अपने अनुसार करना शुरू कर दिया था। पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर अच्छी समझ भी विकसित कर ली थी। राजनीतिक व्यक्तित्व के इसी दौर में राजीव गांधी अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी का भी अच्छी तरह से ध्यान रख पा रहे थे। राजनीतिज्ञ के दूसरे दौर में उनकी कार्यशैली देश के प्रधानमंत्री के रूप में उभर कर सामने आई थी और राजनीति के तीसरे और अपने जीवन के अंतिम दौर में राजीव गांधी विपक्ष के एक नेता के रूप में उभर कर सामने आये थे।प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी का कार्यकाल देश के सन्दर्भ में तो अच्छा ही कहा जाएगा, अलबत्ता खुद उनके लिए यह समय अच्छा नहीं माना जा सकता। सरकार और संगठन दोनों की जिम्मेदारी एक साथ संभालना पहले से ही एक मुश्किल और चुनातीपूर्ण काम होता है उस पर सरकार और संगठन दोनों ही जगह नई और पुरानी पीढ़ी के द्वन्द ने भी उनको परेशान किया था। 

राजीव गांधी देश को आधुनिक तरीके से और नई से नई तकनीकी जानकारी के साथ आगे ले जाना चाहते थे। इसके लिए पार्टी और सरकार में युवा पीढ़ी के ऊर्जावान साथियों की जरूरत थी और यही उन्होंने किया भी। उनकी यह पहल पार्टी की बुजुर्ग पीढ़ी को रास नहीं आई और इस पीढ़ी को लगने लगा कि सब कुछ इसी तरह चलता रहा तो जल्दी ही राजनीति के हासिये पर धकेल दिए जायेंगे। लिहाजा इस पीढ़ी ने अन्दर ही अन्दर राजीव गांधी को सहयोग करना बंद कर दिया। 

नई पीढ़ी के जिन ऊर्जावान लोगों को राजीव गांधी ने सरकार और संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपीं उन्होंने उतनी जिम्मेदारी से काम नहीं किया जितनी उम्मीद उनसे राजीव गांधी ने कर रखी थी। इन्हीं लोगों की वजह से बोफोर्स सौदे में दलाली के लिए राजीव को बदनाम भी होना पड़ा था। इस सौदे में बिचौलियों ने कमीशन के रूप में जो कुछ भी खाया-कमाया था उसमें राजीव गांधी या उनके परिवार का कोई हाथ नहीं था, यह बात बाद में की गई तमाम जांच से भी साफ़ हो गई थी। यही नहीं तत्कालीन विपक्ष के सांसदों की एक टीम ने बोफोर्स तोप की श्रेष्ठता और गुणवता को भी प्रमाणित किया था लेकिन उनके ही कुछ साथियों ने इस मसले को इतना उछाल दिया कि 1989 के चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव ही हार गई थी।

चुनाव से कुछ माह पूर्व बोफोर्स तोप सौदे की दलाली और शाहबानों प्रकरण के नाम पर कांग्रेस से अलग होकर बने जनमोर्चा नामक एक संगठन के बेनर पर राजीव गांधी के खिलाफ खुला विद्रोह शुरू हो गया। यही विरोध चुनाव में कांग्रेस को भारी पड़ गया था। त्रिशंकु लोकसभा में भी जब सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आने के बावजूद कांग्रेस ने राजीव गांधी के नेतृत्व में सरकार बनाने से इनकार कर दिया था। तब इस देश में लोकतंत्र के साथ सबसे बड़ा मजाक यह हुआ था कि कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने और लोकसभा के मध्यावधि चुनाव की मार से बचने के लिए देश में दो धुर विरोधी और वैचारिक रूप से चिर प्रतिद्वंदी समझी जाने वाली दो वामपंथी मोर्चे और दक्षिण पंथी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा ने विश्वनाथ प्रताप सिंह की नेतृत्व वाली सरकार के गठन में सहयोग किया था। इसके बाद ही राजीव गांधी को अपने राजनीतिक करियर में विपक्ष के नेता के रूप में तीसरी और अलग तरह की जिम्मेदारी निभाने का मौका मिला था।

एक राजनीतिज्ञ के रूप में नेता विपक्ष की तीसरी और अंतिम जिम्मेदारी राजीव गांधी को एक पूर्ण परिपक्व नेता के रूप में भी स्थापित करती है। कांग्रेस महासचिव, अमेठी के सांसद और देश के प्रधानमंत्री के रूप में लगभग 9 साल का अनुभव हासिल करने के बाद राजीव गांधी को अच्छे-बुरे, मित्र-शत्रु, देशी-विदेशी, घरेलू-पड़ोसी, राजनीति और राजनीतिक घटियापन से लेकर सद्भाव और नफ़रत के भाव हर तरह के खट्टे-मीठे अनुभव हो चुके थे। इन अनुभवों के चलते वो काफी परिपक्व भी हो चुके थे। उनकी राजनीतिक परिपक्वता का एक नमूना इसी रूप में देखा जा सकता है कि 1989 के आसपास जब देश की राजनीति को साम्प्रदायिक रंग देने के लिए तत्कालीन वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवानी ने अयोध्या में राम मंदिर बनवाने के नाम पर राष्ट्रव्यापी रामरथ यात्रा की शुरुआत की थी, तब राजीव गांधी ने साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने की गरज से राष्ट्रव्यापी सद्भावना यात्रा की शुरुआत की थी। 

कहना गलत नहीं होगा कि यह उनका एक मास्टर स्ट्रोक था। ऐसी ही एक सद्भावना यात्रा के दौरान राजीव गांधी के साथ जाने का मौका इन पंक्तियों के लेखक को भी मिला था। दिल्ली से लखनऊ तक की यह यात्रा रेल के तीसरी श्रेणी में हुई थी और इस दौरान राजीव गांधी के साथ तमाम मुद्दों पर विस्तार में चर्चा भी हुई थी। यह यात्रा इसलिए भी यादगार बनी रहेगी क्योंकि राजीव गांधी के साथ महात्मा गांधी के स्टाइल में हुई यह रेल यात्रा इसके बाद कभी नहीं हो सकी। इस यात्रा के कुछ माह बाद ही लोकसभा के मध्यावधि चुनाव की घोषणा हो गई थी और इसी चुनाव के दौरान श्रीपेरम्बुदूर में एक चुनाव सभा को संबोधित करने के दौरान ही उन पर प्राण घातक हमला हुआ था और उनकी अकाल मृत्यु हो गई थी। सद्भावना यात्रा के दौरान यह भी देखने को मिला कि दिल्ली से लखनऊ तक हर स्टेशन में भारी जन समुदाय उनके स्वागत के लिए खड़ा मिला था। राजीव गांधी हर स्टेशन पर डिब्बे से नीचे उतर कर लोगों से मिलते थे। 

इस यात्रा के दौरान लकड़ी की जिस बेंच पर बैठ कर राजीव गांधी के साथ सद्भावना सफ़र का आनंद लिया गया था उस कूपे में इस लेखक के अलावा उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार और कांग्रेस के नेता राजीव शुक्ल उत्तर प्रदेश कांग्रेस समिति के तत्कालीन महासचिव सत्यदेव दुबे के अलावा बस एक-दो और लोग भी मौजूद थे। एक लिहाज से यह यात्रा बहुत दुखद भी रही क्योंकि अलीगढ़ रेलवे स्टेशन पर जब राजीव गांधी भीड़ से मिलने के लिए गाड़ी से नीचे उतरे तो रेल में हमारे साथ सफ़र कर रहे मित्र प्रकाशन के एक फोटो पत्रकार वह दृश्य अपने कमरे में क़ैद करने के लिए रेल की छत में चढ़ गए थे और बिजली के खम्भे की चपेट में आकर धड़ाम से जमीन पर आ गए थे। इस हादसे में उनकी जान भी चली गई थी। आज भी उस घटना की कल्पना करते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं।