राज की उठापटक: सिंधिया और सचिन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा


नाटक के एक निर्देशक की कुर्सी दिल्ली के 11अशोक रोड स्थित एक बंगले में लगी हुई है तो दूसरे निर्देशक को भी दिल्ली में ही दूसरे छोर पर स्थित 26अकबर रोड स्थित एक बंगले से निर्देशन देना पड़ रहा है। राजस्थान में राजनीतिक उठापटक का नाटक खेला तो जयपुर में जा रहा है लेकिन इसके दर्शक पूरे हिंदुस्तान में हैं।



राजस्थान के एक युवा और एक बुजुर्ग राजनेता द्वारा अभिनीत नाटक, “राज की उठापटक” के एक हॉ दृश्य का अभी पटाक्षेप हुआ है। राजनीति के मंच पर नाटक के दूसरे दृश्य की तैयारियां जारी हैं। सेट में कुछ परिवर्तन होने हैं, किरदारों के स्थान नए सिरे से निर्धारित होने हैं और न नाटक के निर्देशकों को कुछ नए इनपुट्स देने हैं, यह सब ठीक तरह से संपन्न  हो जाए तो अगले दृश्य के मंचन के लिए नाटक का पर्दा एक बार फिर उपर उठेगा। राजनीति का यह एक ऐसा तिलस्मी नाटक है जिसके सभी तिलस्म सभी लोग जानते हैं फिर भी नाटक देखने में लोगों की दिलचस्पी लगातार बनी हुई है। लोग यह देखना चाहते हैं कि अगले दृश्य में नाटक का अंत किस तिलस्म के टूटने से होता है। यह नाटक ख़ास इसलिए भी है क्योंकि इसके एक नहीं बल्कि दो निर्देशक हैं। 

नाटक के एक निर्देशक की कुर्सी दिल्ली के 11 अशोक रोड स्थित एक बंगले में लगी हुई है तो दूसरे निर्देशक को भी दिल्ली में ही दूसरे छोर पर स्थित  26 अकबर रोड स्थित एक बंगले से निर्देशन देना पड़ रहा है। राजस्थान में राजनीतिक उठापटक का नाटक खेला तो जयपुर में जा रहा है लेकिन इसके दर्शक पूरे हिंदुस्तान से इसके पल पल की गतिविधियों पर नजर गड़ाये बैठे हैं। एक बात और नाटक की पृष्ठभूमि चाहे राजस्थान की हो लेकिन इसके तार पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश से भी पूरी तरह जुड़े हुए हैं।

नाटक के कथानक को अधिक रहस्यमय न बनाते हुए कहा जा सकता है कि कांग्रेस के युवा नेता सचिन पायलट ने राज्य में अपनी ही पार्टी की अशोक गहलोत सरकार को गिराने के लिए मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी के नेताओं के साथ मिल कर जो षड़यंत्र रचा है उसकी कहानी हूबहू वैसी ही है जैसी मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को गिराने के लिए लिखी गई थी।

मध्य प्रदेश में कहानी ने रंग दिखाया और पूर्व केन्द्रीय मंत्री तथा कांग्रेस के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में हुई बगावत की सफलता के चलते ही कमलनाथ की 15 महीने पुरानी सरकार गिर गई और सिंधिया समर्थकों की मदद से शिवराज सिंह की सरकार वापस वजूद में आ गई। सिंधिया की इस बगाब्वत से सिंधिया को तो फायदा हुआ ही,  वो कांग्रेस के टिकट पर सत्रहवीं लोकसभा का चुनाव हारने के एक साल बाद ही संसद के दूसरे सदन राज्य सभा के सांसद बन गए। सिंधिया के साथ कांग्रेस चुद कर भाजपा की सदस्यता लेने वाले उनके कई विधायको और गैर विधायकों को भी शिवराज सरकार में मलाईदार मंत्रालयों का इनाम मिल गया।

मध्य प्रदेश का यही नाटक राजस्थान में भी दोहराया जाना था। जिसके एक दृश्य का अभी हाल में ही मंचन हुआ लेकिन पर्दा गिरने से पहले ही राज की उठापटक के युवा नायक मंच के बीच ही लड़खड़ा कर गिर गए। सब जानते हैं कि राज की उठापटक के युवा अभिनेता हैं पूर्व केन्द्रीय स्वर्गीय राजेश पायलट के युवा पुत्र शिरोमणि सचिन पायलट जो अपनी से दुगनी उम्र के बुजुर्ग नेता और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सामने ताल ठोंक कर खड़े हैं। सचिन पायलट को लगता है कि जिस तरह मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पार्टी से बगावत कर सब कुछ मन माफिक हासिल कर लिया था, वैसे ही वो भी राजस्थान में अपने मन माफिक सब कुछ पा लेंगे। ज्योतिरादित्य हों या सचिन ये दोनों ऐसे युवा नेता हैं जो वैचारिक स्तर पर शून्य हैं लेकिन महत्वाकांक्षा इतनी ऊंची है कि रातों रात मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों का मुख्य मंत्री बन जाना चाहते हैं। 

ज्योतिरादित्य और सचिन 2019 में हुए लोकसभा के पिछले चुनाव में तो कुछ कर ही नहीं पाए थे लेकिन उसके बाद हुए विधान सभा चुनाव में भी इन दोनों ने ऐसा कुछ नहीं किया था कि इनकी वजह से पार्टी अपने बल पर सरकार बनाने की हैसियत में आई हो। पार्टी को विधान सभा चुनाव के बाद सरकार बनाने का मौका जरूर मिला था लेकिन दूसरे दलों के विधायकों के साथ गठजोड़ के बाद ही इन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बन पायी थी। इनमें एक मध्य प्रदेश तो हाथ से निकल ही गया।

अब सिंधिया की देखा देखी सचिन राजस्थान में भी ऐसा ही कुछ करना चाह रहे हैं। सचिन पायलट अपनी कोशिशों में कभी सफल हो भी पायेंगे या नहीं और अगर सफल सफल हुए भी तो कब तक?  इन तमाम सवालों का जवाब तो वक़्त आने पर ही मिल पायेगा लेकिन प्रसंगवश सबसे बड़ा सवाल यही है कि मध्य प्रदेश और राजस्थान की राजनीतिक परिस्थितियों और राजनीतिक व्यक्तित्व में दूर-दूर तक कोई साम्य नहीं है इसलिए मध्य प्रदेश के राजनीतिक नाटक का राजस्थान के राजनीतिक मंच में मंचन होना संभव नहीं है।  

मध्य प्रदेश और राजस्थान एक जैसे इसलिए भी नहीं हैं क्योंकि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ की अपने राज्य में पकड़ उतनी मजबूत नहीं है जितनी राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की। इसकी एक बड़ी वजह यह भी कि कमलनाथ मूल रूप से मध्यप्रदेश के हैं ही नहीं उन्होंने उत्तर प्रदेश के मेरठ से जाकर मध्य प्रदेश के छिंदवाडा में अपना राजनीतिक किला तो मजबूत बनाया लेकिन पूरा मध्य प्रदेश संभाल पाना उनके लिए इसलिए भी संभव नहीं रहा क्योंकि वो वहां के जमीनी यथार्थ से लगभग अपरिचित ही हैं। इसके विपरीत राजस्थान के मुख्यमंत्री खांटी राजस्थानी हैं और वो राज्य के हर इलाके की नस-नस से अच्छी तरह वाकिफ हैं इसलिए वो राजनीति की प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाने की योग्यता रखते हैं। जिस तरह राजस्थान में सचिन पायलट ने अपनी ही पार्टी का तख्ता पलटने की कोशिश की है,  वैसी ही कोशिश ज्योतिरादित्य ने मध्य प्रदेश में अपनी पार्टी की सरकार को गिराने की भी की थी लेकिन कमलनाथ कुछ नहीं कर पाए, समय रहते सही फैसला न ले पाने का ही नतीजा था कि कमलनाथ की सरकार ही गिर गई। 

उधर राजस्थान में अशोक गहलोत ने उसी समय से पार्टी के अन्दर बगावती गतिविधियों पर रखनी शुरू कर दी थी जब मध्य प्रदेश में इस तरह के संकेत मिलने शुरू हो गए थे। अशोक गहलोत ने न केवल इन गतिविधियों पर नजर रखी बल्कि सचिन पायलट के प्रतिद्वंदी पार्टी के नेताओं के साथ मिल कर अपनी पार्टी की सरकार गिराने के लिए की गई सौदेबाजी के ऑडियो और विडियो के साथ की रिकॉर्डिंग भी सबूत के तौर पर आला कमान को भिजवा दी थी। इसी का नतीजा है कि गहलोत सरकार का तख्ता पलट होने से पहले ही सचिन को कम उम्र में मिले प्रदेश पार्टी के अध्यक्ष पद के साथ ही राजस्थान के उप मुख्यमंत्री पद से भी हाथ धोना पड़ गया। यहां गौर करने लायक एक बात यह भी है कि ज्योतिरादित्य मध्य प्रदेश में बीजू हैं जबकि सचिन पायलट राजस्थान में कलमी। बीजू और कलमी से मुराद राज्य विशेष के मूल निवासी और किसी दूसरे राज्य से आकर नए राज्य में बसने वालों से है। ज्योतिरादित्य पुश्तैनी रूप से मध्य प्रदेश के हैं जबकि सचिन ने अपने पिता स्वर्गीय राजेश पायलट की सींची हुई जमीन पर खेती की है।