भंवर में राजस्थान ! राजनीति में नैतिकता बची ही कहां है जो इसके लिए मातम मनाया जाए


राजनीति में सत्ता हासिल करने के प्रयास को बुरा भी नहीं कहा जा सकता। आखिरकार राजनीति का पूरा खेल ही सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए ही होता है। दूसरी पार्टी की सरकार गिराने और अपनी पार्टी की सरकार बनाने के काम को नैतिक रूप से जरूर बुरा कहा जा सकता है लेकिन आज राजनीति में नैतिकता बची ही कहां है जो इसके लिए मातम मनाया जाए।



कोरोना आपदा, विकास दुबे काण्ड, चीन,  नेपाल और पाकिस्तान की सियासी हलचलों के बीच अचानक ही राजस्थान के सियासी मामले ने माहौल में एक अलग ही हलचल पैदा कर दी है। पिछले कुछ दिन से जिस तरह की ख़बरें छन – छन कर  आ रही हैं उनसे तो ऐसे ही संकेत मिल रहे हैं कि अगर राजस्थान में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने समय रहते ठोस कदम नहीं उठाये तो राजस्थान में कांग्रेस के नौनिहाल सचिन पायलट भी मध्य प्रदेश के युवराज ज्योतिरादित्य सिंधिया की राह पकड़ सकते हैं।
किसी जमाने में कांग्रेस के युवराज कहे जाने वाले राहुल गांधी के बहुत करीबी समझे जाने वाले सिंधिया और पायलट ने राज्य विधान सभा के पिछले चुनाव में बहुत मेहनत की थी और अन्य मामलों के साथ ही इन दोनों युवा नेताओं की मेहनत का ही असर था कि एक साथ हुए तीन विधनसभा चुनाव में कांग्रेस छत्तीसगढ़ के साथ ही मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी सरकार बनाने की स्थिति में आ सकी थी। 

सिंधिया और पायलट दोनों ने ही अपने-अपने राज्यों में पार्टी को जिताने के लिए इसलिए भी मेहनत की थी क्योंकि इन दोनों नेताओं को पार्टी आलाकमान ने चुनाव से पहले यह भरोसा दिया था कि चुनाव में पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में आई तो इन दोनों नेताओं को ही मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं इसके स्थान पर मध्य प्रदेश में कमलनाथ और राजस्थान में अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बना दिए गए।

कांग्रेस आलाकमान को अपनी इस भूल का नतीजा कुछ समय पहले ही तब साफ़ दिखाई दे गया जब ज्योतिरादित्य सिंधिया के बगावती तेवर दिखाने के साथ ही मध्य प्रदेश की 15 महीने पुरानी कांग्रेस सरकार दल -बदल के चलते गिर गई थी और इसके कुछ ही दिन बाद शिवराज सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार की वापसी हो गई थी। कांग्रेस के जो विधायक ज्योतिरादित्य के साथ पाला बदल कर भाजपा में शामिल हुए थे उनमें से अधिकांश विधायकी ख़त्म हो जाने के बाद भी शिवराज सरकार में मंत्री बने बैठे हैं और खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया राज्य सभा के सांसद बन गए हैं। कर्णाटक और मध्य प्रदेश के बाद अब राजस्थान भी उसी राह पर चलने को तैयार है।

कर्णाटक से पहले भी देश के कई राज्यों में ऐसी सियासी उठा-पटक हुई है, विधायकों की खरीद -फरोख्त भी इस सीमा तक हुई कि विधानसभा के चुनाव में सदन की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस अपनी सरकार नहीं बना सकी और भाजपा कांग्रेस से बहुत कम सीट जीतने के बावजूद कई राज्यों में अपनी सरकार बनाने में कामयाब रही। अरुणाचल और गोवा समेत ऐसे कई राज्यों में भाजपा के नेतृत्व में गठबंधन की सरकारें आज तक सही सलामत काम कर रही हैं। 

ऐसी ही कोशिश विधानसभा के पिछले चुनाव के बाद मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी की गईं थी लेकिन तब ऐसे प्रयासों में भाजपा को सफलता नहीं मिल सकी थी पर प्रतिद्वंदी पार्टी की सरकार को धराशायी कर अपनी सरकार बनाने की ये कोशिशें चुनाव के बाद भी जारी रहीं । इन्हीं कोशिशों के चलते मध्य प्रदेश में तो चुनाव के 15 महीने बाद भाजपा की सरकार में वापसी हो गई लेकिन राजस्थान में ये कोशिशें अभी तक कामयाब नहीं हो सकी हैं लेकिन सिलसिला अभी थमा नहीं है।

राजनीति में सत्ता हासिल करने के प्रयास को बुरा भी नहीं कहा जा सकता। आखिरकार राजनीति का पूरा खेल ही सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए ही होता है। दूसरी पार्टी की सरकार गिराने और अपनी पार्टी की सरकार बनाने के काम को नैतिक रूप से जरूर बुरा कहा जा सकता है लेकिन आज राजनीति में नैतिकता बची ही कहां है जो इसके लिए मातम मनाया जाए, लिहाजा साम, दाम, दंड और भेद हर तरह के उपाय अपना कर सत्ता में काबिज होना ही आज के राजनीतिज्ञों का मुख्य धर्म बन गया है और इस मामले में कोई भी पार्टी अपवाद नहीं कही जा सकती है इस मामले में सारे नेता एक ही थैली के चट्टे -बट्टे हैं। 

सत्ता हथियाने के लिए सभी नेता करते तो एक जैसा काम ही हैं लेकिन हर कोई सफल नहीं हो पाता, जो सत्ता के बाहर है वो बिकने के लिए तैयार है बशर्ते उसे उसकी योग्यता के हिसाब से उसका दाम मिल जाए। पहले ऐसे बिकाऊ जनप्रतिनिधियों को घोड़ों की संज्ञा दी जाती थी और अब इन्हें भेड़ कहा जाने लगा है। वजह साफ़ है घोड़े के दाम उसकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर अलग से लगाए जाते हैं लेकिन भेड़ के दाम एक अकेली भेड़ की योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि भेड़ों की खरीद-फ़रोख्त उनके पूरे रेवड़ के आधार पर की जाती है। आज ही एक अच्छा कार्टून भी इस बाबत देखने को मिला। इस कार्टून में दिखाया गया है कि एक गड़रिया अपनी भेडों का रेवड़ लेकर सड़क पर जा रहा है और दूसरी तरफ से आने वाली एक कार का ड्राईवर उस गड़रिये से कह रहा है, “भैया अपने विधायकों को एक किनारे कर लो।”

2014 फिर 2019 का लोकसभा चुनाव हारने के साथ ही पिछले 6 साल की अवधि के दौरान अनेक विधान सभाओं का चुनाव हारने की वजह से देश की यह सबसे पुरानी पार्टी अपना वैभव और गौरव काफी हद तक खो चुकी है। बदकिस्मती से इसका क्षरण लगातार जारी है। अब इस पार्टी की हालत यह हो गई है कि इसके टिकट पर जीत कर आये जनप्रतिनिधि किसी भी कीमत पर बिकने को तैयार रहते हैं। कांग्रेस के सभी सांसद- विधायक ऐसे हों यह बात भी नहीं है लेकिन ऐसे बिकने को तैयार रहने वाले जन प्रतिनिधियों (विधायकों) की संख्या 15 से 20 से कम भी नहीं है।

विगत 4- 5 साल के दौरान जिस तरह कांग्रेस पार्टी ने देश के विभिन्न राज्यों में अपनी बहुमत से बनी सरकारों को एक – एक कर खोया है उससे तो यही साबित होता है। कांग्रेस के इस क्षरण पर खुद कांग्रेस के ही नेताओं ने चिंता प्रकट की है। राजस्थान के ताजा घटनाक्रम के बाद पूर्व केन्द्रीय क़ानून और मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के राजदूत रह चुके पार्टी के वरिष्ठ सांसद शशि थरूर भी इस तरह की चिंता सार्वजानिक रूप से प्रकट कर चुके हैं। कांग्रेस पार्टी में आज कल जिस तरह से “तू चल, मैं आया…” की प्रवृत्ति के अनुपालन में निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के पार्टी छोड़ने और प्रतिद्वंदी पार्टी  की सरकार गठित करने का सिलसिला शुरू हुआ है उसमें कहीं न कहीं पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी का भी बहुत बड़ा योगदान है।

कांग्रेस के आला नेता राज्यों में क्षेत्रीय स्तर पर उठने वाले असंतोष और विद्रोह को दबा कर रखने की कोशिश में लगे रहते हैं। यही दबा हुआ असंतोष एक दिन इसी तरह बगावत के रूप में फूटता है। ताजा सन्दर्भ में सचिन पायलट की भी यही शिकायत है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी से मिलने का उनको समय ही नहीं मिल सका। यही शिकायत ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी थी और पांच साल पहले पार्टी से अलग होकर भाजपा का दामन थामने वाले असम के तत्कालीन प्रभावशाली कांग्रेस नेता हेमंत बिस्वा शर्मा की भी कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व से यही सबसे बड़ी शिकायत थी कि इन नेताओं के पास पार्टी के क्षेत्रीय नेताओं की समस्याओं को सुनने और उनकी समस्याओं का हल खोजने तक का समय नहीं है।