समाजवादी खेमें में बगावत की सुगबुगाहट


समाजवादी पार्टी के अंदर जो लड़ाई चल रही है, उससे अखिलेश यादव को पार पाना होगा। अगर वे चाहते हैं कि बाइस में बाइसकिल की सरकार आए। तो उसके लिए जरूरी है कि टिकट को लेकर जो टकराव की स्थिति पैदा हो रही है और जो होने वाली है, उस पर अंकुश लगाए।



समाजवादी पार्टी में सब ठीक है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। पारिवारिक कलह के इतर भी सुगबुगाहट चल रही है। उसकी वजह विधान परिषद बना है। कई कार्यकर्ता चाहते थे कि पार्टी उनको टिकट दे। उसके लिए आलाकमान से पैरवी भी की गई। लेकिन वहां कोई सुनवाई नहीं हुई। उसका एक कारण तो यही था कि आलाकमान विधान परिषद अध्यक्ष अपने दल का चाहते थे। उच्च सदन में सपा के पास बहुमत भी है।

परंपरा के मुताबिक सबसे वरिष्ठ सदस्य को अध्यक्ष की कुर्सी मिल जाती है। इसी लिहाज से सपा ने वरिष्ठजनों को टिकट दिया। नाराजगी सबसे वरिष्ठ नेता के टिकट को लेकर पनपी। वे जिस समुदाय से आते हैं, उसी समुदाय के अन्य नेता चाहते थे कि पार्टी उन्हें उच्च सदन में भेजे। आखिर, तीन दशक से पार्टी की सेवा में वे भी लगे है। तो उन्हें भी फल मिलना चाहिए।

लेकिन फल उन्हें मिला नहीं। तो वे लोग बागी बन गए हैं। गैर-सेकुलर खेमे में संभावना तलाश रहे हैं। यह सब ऐसे समय में हो रहा है, जब सपा ने सदस्यता अभियान छेड़ रखा है।

अगर किसी को इस अभियान की भव्यता का दर्शन करना है तो 19 विक्रमादित्य मार्ग हो आए है। यही सपा का मुख्यालय है। इसको जोड़ने वाली रोड होर्डिंगों से पटी पड़ी है। उसे देखकर लगता है मानो सपा में सभी पार्टियों के नेता समाए जा रहे हैं। ऐसा हो भी रहा है। भाजपा के अलावा अन्य जो भी दल है उनके नेता सपा में शामिल हो रहे हैं। फिर चाहे वे कांग्रेस से जुड़े हो या बसपा और जदयू से। सभी को सपा ही नजर आ रही है।

कोई दस दिन पहले मेरठ के योगेश वर्मा सपा में शामिल हुए। उनके साथ दर्जनभर पार्षद भी आए। सैकड़ों कार्यकर्ता भी योगेश वर्मा ने जोड़ दिए। हालांकि बसपा से आने वाले वे अकेल नेता नहीं है। पश्चिम से लेकर पूरब तक बसपा के कई दिग्गज नेताओं ने सपा का दामन थामा है। उनमें सबसे बड़ा नाम राम प्रसाद चौधरी का है। पूरब में वे कुर्मियों के बड़े नेता है। हालांकि बेनी बाबू जितने तो नहीं है। लेकिन फिर भी है। उनका लंबा राजनीतिक अनुभव अखिलेश यादव के काम आएगा। वैसे उनकी घर वापसी ही हुई है। वे सपा से ही बसपा में गए थे।

अच्छा बसपा से ही दिग्गज सपा में नहीं आए है, कांग्रेस से भी आए है। बंदायू के पूर्व सांसद सलीम शेरवानी, उन्नाव के पूर्व सांसद अन्नू टंडन, मिर्जापुर के पूर्व सांसद बालकुमार पटेल, सीतापुर की पूर्व सांसद कैसर जहां, अलीगढ़ के पूर्व सांसद विजेन्द्र सिंह, पूर्व मंत्री चौधरी लियाकत, पूर्व विधायक राम सिंह पटेल, पूर्व विधायक जासमीन अंसारी, अंकित परिहार और सोनभद्र के रमेश राही जैसे नेताओं ने कांग्रेस छोड़कर सपा का दामन थाम लिया है।

इस कारण सूबे में सपा को लेकर एक माहौल भी बना है। वह यह कि सपा ही है जो भाजपा को टक्कर दे सकती है।

संभव है कि दे भी क्योंकि सूबे में फिलहाल वही इस लायक दिख रही है। उसके ही नेता सबसे ज्यादा सक्रिय है। खुद अखिलेश यादव, जांच एजेंसियों की चिंता किए बिना चुनावी अभियान में जुट गए है। उनका संगठन सरकार की पोल खोल रहा है। इस कारण लड़ाई में वही नजर आ रही है।

मगर जो लड़ाई पार्टी के अंदर चल रही है, उससे अखिलेश यादव को पार पाना होगा। अगर वे चाहते हैं कि बाइस में बाइसकिल की सरकार आए। तो उसके लिए जरूरी है कि टिकट को लेकर जो टकराव की स्थिति पैदा हो रही है और जो होने वाली है, उस पर अंकुश लगाए।

पुराने समाजवादियों साथियों को विश्वास में ले। ज्यादा समस्या वहीं है। उनको लगता है कि सपा अन्य दलों से नेताओं को वरीयता के आधार पर टिकट देगी और वे फिर पीछे छूट जाएगे। ऐसे ही युवाओं को भी भरोसे में लेना होगा। उन्हें लगता है कि जो 80 पार कर चुके है, उन्हें मेवा खिलाने से बेहतर है, युवा नेताओं का ध्यान रखा जाए। अन्यथा 2017 दोहरा सकता है और ‘काम बोलता है’ नारे की तरह ‘बाइस में बाइसिल’ का नारा भी फुस हो जाएगा।