
आज स्वामी सहजानंद सहसा याद आ रहे हैं। आज उनकी पुण्यतिथि है। क्योंकि इस समय देश के किसान संकट में हैं, उनकी आवाज दब चुकी है, वैसे में सहजानंद सहज याद आते हैं। देश में आबादी बढ़ी है। उधर कृषि योग्य भूमि परिवारों के बीच बंटती जा रही है। बंटवारे के कारण लोगों की जमीन कम होती जा रही है। किसानों की सबसे बड़ी समस्या कृषि उत्पादों का मूल्य काफी कम मिलना भी है। सहजानंद की लड़ाई जमींदारों के खिलाफ थी। जमींदार किसान का शोषण करते थे। आज देश के किसानों की लड़ाई कारपोरेट से है।
बाजारवाद और कारपोरेट ने किसानों को बर्बाद कर दिया है। किसानों को मुनाफे वाले बाजार के हवाले कर दिया है, जहां उसके हाथ कुछ नहीं आता है। देश में कई किसान संगठन है। लेकिन ये किसान संगठन किसानों के नाम पर अपनी दुकान चलाने में ज्यादा व्यस्त है। अगर किसान संगठन बहुत ही ईमानदार होते तो सहजानंद को आज जरूर याद करते। तीन-चार दशक पहले तक देश में किसान आंदोलन मजबूत था। आर्थिक उदारीकरण ने किसान आंदोलन को कमजोर किया। किसान आंदोलन से जुड़े संगठन और इनके नेता भी आर्थिक उदारीकरण के फायदा लेने में जुट गए। अब तो हालात एकदम बदले हुए है। किसानों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं है। सरकार किसानों की आमदनी डबल करने का बात करती है। लेकिन आमदनी डबल तो क्या होना, किसान को लागत का आधा भी नहीं मिल पा रहा है।
हिंदी पट्टी में के सांस्कृतिक नवजागरण में स्वामी सहजानंद का अहम योगदान था। जिस हिंदी पट्टी में खुद सहजानंद ने जमकर काम किया, वो आज जातिवाद का अड्डा है। दरअसल बंगाल में सांस्कृतिक नवजागरण पहले हो चुका था। लेकिन हिंदी पट्टी में सांस्कृतिक नवजागरण सहजानंद के किसान आंदोलन के प्रभाव में हुआ। सहजानंद का किसान आंदोलन तेज होने के बाद बिहार के साहित्यकारों की रचना में आमजन और किसान को जगह मिलने लगी।
सहजानंद का साफ प्रभाव रामधारी सिंह दिनकर, रामबृक्ष बेनीपुरी, राहुल सांस्कृतायन और काशी प्रसाद जायसवाल पर दिखता है। सच्चाई तो यह है कि सहजानंद का किसान आंदोलन जमींदारों के खिलाफ था। लेकिन जमींदारों के खिलाफ चलने वाला य़ही किसान आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत कर गया। दरअसल जमींदारों के खिलाफ चलाए गए किसान आंदोलन से राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूती इसलिए भी मिली की देश की 90 प्रतिशत आबादी किसान थी। लेकिन सहजानंद का प्रभाव सिर्फ किसानों तक ही नहीं था। देश के आदिवासियों में भी सहजानंद का प्रभाव देखा गया। यूनिवर्सिटी के छात्रों पर भी सहजानंद का प्रभाव देखा गया। फैक्ट्रियों के मजदूर भी सहजानंद से प्रभावित हुए।
सहजानंद का किसान आंदोलन 1936 आते-आते तेज हो गया। कांग्रेस के अंदर के तमाम नेता सहजानंद का लोहा मानने लगे थे। हालांकि कांग्रेस का एक गुट सहजानंद को पसंद नहीं करता था। क्योंकि सहजानंद सुभाषचंद्र बोस के करीबी थे। सुभाष विरोधी गुट इसलिए उन्हें नापसंद करता था। लेकिन सहजानंद के किसान आंदोलन का प्रभाव इतना व्यापक था कि देश के हर प्रांत का किसान सहजानंद से प्रेरणा ले रहा था।
आजादी के बाद आंध्र प्रदेश से लेकर केरल और पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों खासे मजबूत रहे। इसका एक बड़ा कारण सहजानंद दवारा तैयार की गई जमीन थी। उन्होंने किसान आंदोलन के माध्यम से लोगों को खासा जागरूक कर दिया था। यह दिगर बात है कि जिस बिहार राज्य में सहजानंद ने किसान आंदोलन को मजबूत करने के लिए खुद समय लगाया, जिस बिहार राज्य में सहजानंद की प्रेरणा से बड़े किसान आंदोलन हुए, वो राज्य आज भी काफी पिछड़ा हुआ है। वहां के किसानों की स्थिति काफी दयनीय है। वहां जन आंदोलन की जगह जातिगत आंदोलनों ने ले ली, जिसका प्रभाव आज भी देखा जा सकता है। बिहार जैसे राज्य में समाजवादी परंपरा के नेता आज भी जाति परंपरा की खाद पर अपनी राजनीति करते है।
सहजानंद ने वेदांत को आमजन तक ले जाने की कोशिश की। उन्होंने गीता हृदय लिखकर वेदांत को आमजन से जोड़ा। क्रांति और संयुक्त मोर्चा लिखकर मार्कसवाद को भारतीय परिवेश से जोड़ने की कोशिश की। उन्होंने अपनी रचनाओं में वर्गसंघर्ष के साथ देशप्रेम और अध्य़ात्म को जोड़ने की कोशिश की। हालांकि भारतीय वामपंथ ने उनकी इन रचनाओं को स्वीकार नही किया। हालांकि बिहार जैसे राज्य में वामपंथी दलों को आजादी के बाद उन्हीं लोगों ने सबसे ज्यादा वोट दिया जिनका संबंध स्वामी सहजानंद के किसान आंदोलन से रहा।
बेगुसराय को बिहार का मास्को कहा जाता है। यह इलाका आजादी से पहले स्वामी सहजानंद के प्रभाव में किसान आंदोलन के लिए मशहूर था। हालांकि बिहार के वामपंथी सहजानंद को बहुत याद नहीं करते। दरअसल सहजानंद ने वामपंथ को सलाह दी थी कि वे भारत की मौजूदा परिस्थितियों में धर्म के ढकोसले से ल़ड़े। शोषण से लड़े। पर धर्म के नैतिक नियमों का आदर करें। सहजानंद जूझौतिया ब्राहमण थे। उनका परिवार मूल रूप से बुंदेलखंड के इलाके से गाजीपुर इलाके में आया था। जूझौतिया ब्राहमण जाति में पुरोहित और जमींदार भी थे। सहजानंद के प्रगतिशील विचारों से इस जाति के पुरोहितों और जमींदारों उनकी काफी खिलाफत की।
आज देश के अंदर किसान उपेक्षित है। कृषि की हालत बदतर हो गई है। जमींदारी व्यवस्था बेशक नहीं है। लेकिन जमींदारों के न होने के बावजूद किसान शोषित है। जमींदारी व्यवस्था की जगह बाजार ने ले ली है। सरकार अब कारपोरेट को खेती के लिए तैयार कर रही है। देश के कारपोरेट घरानों की नजर किसानों की जमीन पर है। क्योंकि बढ़ती आबादी के ने खाद्य को महत्वपूर्ण कर दिया है। यह मुनाफा का बड़ा माध्यम है। वैसे में किसान को फिर से उनके ही खेतों में गुलाम बनाने का खेल शुरू हो गया है।
हाल ही मे सरकार ने कृषि- किसानों से जुड़े कुछ कानूनों में परिवर्तन किया है। सरकार का दावा है कि किसानों की आर्थिक स्थिति मजबूत करने के आवश्यक वस्तु अधिनियम और एपीएमसी एक्ट में अध्यादेश लाकर संशोधन किया गया है। देश भर में किसान कहीं भी अब अपने उत्पाद बेचने को स्वतंत्रत है। लेकिन किसान संगठन इस संशोधन के प्रति कई आशंका प्रकट कर रहे है। संशोधन विरोधियों का तर्क है कि कानूनों में संशोधन से कारपोरेट घरानों को लाभ होगा। किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं होगा।
लेकिन आज समस्या एक और है। देश भर में जितने किसान संगठन है, वे अब गरीब किसानों के आवाज नहीं है। किसान संगठनों पर अमीर किसानों का कब्जा है। सीमांत किसानों की हालत खराब है। लेकिन उनकी आवाज कोई नहीं उठाता है। किसानों संगठनों में आपसी फूट है। किसान संगठनों के नेता अरबपति है। मंचों पर किसानों के हित की बात करते है। लेकिन अंदर खाते उनकी सांठगांठ कारपोरेट से है। देश के किसान नेता खासे अमीर है, जबकि देश के किसान आंदोलन के सबसे बड़े नेता स्वामी सहजानंद तो संन्यासी थे।