कश्मीर को लेकर सऊदी-पाकिस्तान में दरार और भारत के लिए अवसर

संजय तिवारी
मत-विमत Updated On :

सितंबर 2019 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा थी। पूरी दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष वहां पहुंच रहे थे। भारत से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान से प्रधानमंत्री इमरान खान भी गये। आमसभा से करीब महीनेभर पहले भारत ने कश्मीर से धारा 370 और 35 ए को समाप्त कर दिया था जिसे लेकर पाकिस्तान बौखलाया हुआ था। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का दौरा कुछ ऐसा तय हुआ था कि पहले वो सऊदी अरब गये और फिर वहीं से सीधे न्यूयार्क जाने का कार्यक्रम था। पाकिस्तान के पास इतनी लंबी दूरी तय करने के लिए कोई राजकीय विमान नहीं है इसलिए सऊदी अरब से प्राइवेट विमान सेवा से उन्हें न्यूयार्क जाना था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जब सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को ये बात पता चली तो सऊदी राज परिवार का एक विमान उनकी सेवा में लगा दिया जो उन्हें न्यूयार्क लेकर गया और वापस लेकर आनेवाला भी था।

न्यूयार्क पहुंचकर इमरान खान ने कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में जोरदार तरीके से उठाया। पंद्रह मिनट के तय समय से ज्यादा वो आमसभा में एक घंटे से अधिक बोलते रहे। वो बोलकर मंच से नीचे आये तो तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगॉन ने उनका गले लगाकर स्वागत किया और कश्मीर पर दिये गये उनके वक्तव्य का पूरा समर्थन किया। यह स्वागत सत्कार सिर्फ मंच तक ही सीमित नहीं रहा। स्वयं एर्दोगॉन ने भी बोलते समय मंच से कश्मीर का मुद्दा उठाया और मंच से इतर तुर्की, मलेशिया और पाकिस्तान की बैठक भी हुई। इस बैठक में तय हुआ कि आर्गेनाइजेशन आफ इस्लामिक कन्ट्रीज (ओआईसी) के इतर मुसलमानों का एक अलग मंच भी तैयार किया जाना चाहिए।

न्यूयार्क में जब ये सब कुछ हो रहा था तो दूर सऊदी अरब में बैठे सुल्तान और उनका प्रशासन सब कुछ देख समझ रहा था। तुर्की के साथ पाकिस्तान की ये नजदीकी और ओआईसी को संभावित चुनौती उन्हें कैसे पसंद आ सकती थी इसलिए तत्काल पहली प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने इमरान खान को लेकर गये सऊदी विमान को वापस बुला लिया। इमरान खान उस विमान में सवार होकर पाकिस्तान के लिए निकल पड़े थे लेकिन बीच हवा में विमान वापस न्यूयार्क लौटा। इमरान खान और उनके साथियों को न्यूयार्क में उतारा और खाली सऊदी अरब लौट आया। ऐसा नहीं है कि इमरान खान सऊदी तुर्की संबंधों के बारे में जानते नहीं थे।

वो जानते थे सुन्नी मुस्लिम देशों में दोनों दो विपरीत ध्रुव हैं जिन्हें एक साथ साधना किसी मुस्लिम मुल्क के लिए संभव नहीं है लेकिन इमरान खान पाकिस्तान को मुस्लिम विश्व के केन्द्र में लाने के लिए काम कर रहे हैं। चाहे सऊदी ईरान झगड़े में अपने मध्यस्थता का प्रस्ताव हो या फिर नये मुस्लिम विश्व की रचना, इमरान खान और उनके साथी ये समझते हैं कि पाकिस्तान ऐसा कर सकता है क्योंकि वह मुस्लिम विश्व का इकलौता परमाणु आयुध संपन्न देश है।

जब से इमरान खान आये हैं वो अपने आपको नवाज शरीफ या जरदारी भुट्टो परिवार की तरह सऊदी का अनुसरणकर्ता होकर नहीं रहना चाहते। वो सऊदी राज परिवार से बराबरी का रिश्ता बनाना चाहते हैं और अगर उन्हें लगता है कि ऐसा संभव नहीं है तो पाकिस्तान समानांतर मुस्लिम विश्व का नेतृत्व करने के लिए अपने आपको प्रस्तुत करने से भी पीछे नहीं हटेगा। कभी विदेश न जानेवाले पाकिस्तान के विदेश मंत्री जो हमेशा पाकिस्तान की जनता को विदेश नीति की बारीकियां समझाते रहते हैं, ने टीवी पर एक ऐसा बयान दे दिया सऊदी पाकिस्तान रिश्तों में आई दरार और चौड़ी हो गयी।

कुरैशी ने कहा कि “वो कश्मीर पर आगे बढेंगे, सऊदी के साथ या फिर सऊदी के बिना।” उनका इशारा था कि अगर ओआईसी कश्मीर पर पाकिस्तान के मुताबिक प्रस्ताव पारित नहीं करता है तो पाकिस्तान नये ओआईसी के निर्माण के लिए काम करेगा। ये सीधे सीधे सऊदी अरब को चुनौती थी। उनके इस बयान के बाद सउदी अरब पाकिस्तान पर सख्त हो गया। उसने पाकिस्तान को दिये हुए कर्जों को वापस मांग लिया जिसमें एक अरब डॉलर चीन से कर्ज लेकर तत्काल पाकिस्तान ने सऊदी अरब को वापस भी कर दिया।

लेकिन सऊदी अरब पर पाकिस्तान की निर्भरता सिर्फ कर्जों तक ही नहीं है। वह सऊदी अरब से उधार में तेल भी लेता है और बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सऊदी अरब में नौकरी करते हैं जिससे विदेशी मुद्रा पाकिस्तान आती है। सऊदी के नाराज होने का मतलब सिर्फ कूटनीतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक चोट भी लगेगी जो पाकिस्तान की तंगहाली के लिए कोढ में खाज जैसा होगा। पांच अरब डॉलर के फॉरेक्स रिजर्व के बूते पाकिस्तान अपनी अर्थव्यवस्था को फिलहाल कोई गति नहीं दे सकता।

पाकिस्तान में चीन को छोड़कर विदेशी निवेश लगभग शून्य है और जो कुछ विदेशी कंपनियां वहां कारोबार करती हैं वो भी अपना कारोबार बंद कर रही हैं। ऐसे में सऊदी की नाराजगी आर्थिक रूप से भी पाकिस्तान को भारी पड़नेवाली है। ये बात समझते ही पाकिस्तान के आर्मी चीफ कमर जावेद बाजवा और आईएसआई चीफ फैज हामिद आनन फानन में सऊदी अरब पहुंचे। लेकिन 20 अगस्त को दोनों खाली हाथ लौट आये। सऊदी के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने उन्हें मिलने का समय नहीं दिया। हालांकि उन्होंने सऊदी अरब के चीफ आफ आर्मी स्टाफ से मुलाकात जरूर की जो कि मोहम्मद बिन सलमान के भाई हैं। लेकिन सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच बात इतनी बिगड़ चुकी है कि शायद इस मुलाकात से बात बननेवाली नहीं है।

असल में कश्मीर पर सऊदी ही नहीं अरब का कोई भी देश बोलना नहीं चाहता। वो इसे भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय विवाद मानते हैं जिसे आपसी बातचीत से ही सुलझाया जा सकता है। वो इसे इस्लामिक मुद्दा नहीं मानते क्योंकि अगर सऊदी कश्मीर को इस्लामिक मुद्दा मानेंगा तो भारत में रहनेवाले 20-22 करोड़ मुसलमानों के लिए क्या कहेगा? जबकि पाकिस्तान लगातार इसे इस्लामिक मुद्दा बनाने का प्रयास कर रहा है। खासकर धारा 370 और 35 ए की समाप्ति के बाद। इसलिए महमूद कुरैशी ये कहने से भी नहीं चूकते कि वो कश्मीर के मुद्दे पर (इस्लामिक जगत में) आगे बढेंगे, सऊदी के साथ या फिर सऊदी के बिना। उदारवादी देश तुर्की के कट्टरपंथी शासक एर्दोगॉन इस मामले में पाकिस्तान के साथ खड़े हैं।

पाकिस्तान के पूर्व राजनयिक हुसैन हक्कानी अपने एक लेख में लिखते हैं कि “पाकिस्तान ये समझता है कि अब उसे मुस्लिम विश्व का केन्द्र बनना है। इस काम में चीन उसकी मदद करेगा क्योकि मध्य पूर्व से अमेरिका को बाहर निकालने के लिए चीन को एक विश्वसनीय इस्लामिक मुल्क का साथ चाहिए होगा। तो वह साथ पाकिस्तान का क्यों नहीं हो सकता? आखिर पाकिस्तान इकलौता मुस्लिम देश है जिसके पास परमाणु बम है।” हुसैन हक्कानी पाकिस्तान की जिस सोच की तरफ संकेत कर रहे हैं वह उसके मुस्लिम उम्मा के लीडर बनने की तमन्ना है। लेकिन संकट सिर्फ एक है और वो है पाकिस्तान की विश्वसनीयता।

अपने 73 साल की यात्रा में पाकिस्तान की छवि एक अविश्वसनीय मुल्क की बनकर उभरी है। अमेरिकी राजनयिकों की भाषा में “एक ऐसा सिरदर्द (माइग्रेन) जो हो जाए तो फिर कभी पीछा नहीं छोड़ता।” पाकिस्तान की यही अविश्वसनीयता मुस्लिम विश्व में भारत के लिए वरदान साबित हो रही है। ऑटोमान साम्राज्य की वापसी का स्वप्न आंखों में लिए एर्दोगॉन भले ही पाकिस्तान के झूठ और मक्कारियों पर भरोसा कर लें सऊदी और यूएई के समर्थन के बिना पाकिस्तान दूर तक जा भी पायेगा, ये कहना मुश्किल है। बहरहाल ये भारत के लिए एक सुनहरा अवसर है। अरब देशों से भारत के राजनयिक संबंधों को नयी ऊंचाई देने का समय है। इससे न सिर्फ पाकिस्तान अलग थलग पड़ेगा बल्कि कश्मीर पर भारत के रुख का इस्लामिक देशों में समर्थन भी बढेगा।