संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष और कांग्रेस की भूमिका 

लोकतान्त्रिक व्यवस्था में विपक्ष दो तरह का हो सकता है। एक ऐसा विपक्ष जो बहुमत के आधार पर विपक्ष की एक ऐसी पार्टी पर निर्भर हो जिसके सदन में सत्ता पक्ष से बहुत कम ही सदस्य हों और ऐसा विपक्ष सरकार को कभी  भी चैन  से बैठने  नहीं देता।

लोकतंत्र प्रशासन की एक ऐसी व्यवस्था है जो पूरी दुनिया में मौजूद शासन की तमाम व्यवस्थाओं में श्रेष्ठ मानी जाती है। इसके बारे में यह भी कहा जाता है कि जनता की इस व्ययस्था में जनता द्वारा जनता के लिए शासन की व्यवस्था का संचालन किया जाता है । लोकतंत्र को लेकर अंग्रेजी में एक सूत्रवाक्य है, “Democracy is the government of the people , for the people and by the people” हम भारत के लोग सौभाग्यशाली हैं कि शासन की यह व्यवस्था हमें देश की आजादी के साथ ही विरासत में मिली और देश की आजादी के 75 साल बाद आज भी यह व्यवस्था बदस्तूर जारी है।

शासन की इस व्यवस्था को इसलिए भी सबसे अच्छा माना जाता है क्योंकि इस व्यवस्था में सत्ता संचालन के लिए विपक्ष को भी बराबर का जिम्मेदार माना जाता है। इसकी एक वजह यह भी है कि जब कभी सरकार का जनविरोधी रूख नजर आने लगे तो जिम्मेदार और जवाबदेह विपक्ष उसे विरोध के संवैधानिक तरीकों का इस्तेमाल कर वापस पटरी पर ला सकता है। सरकार की निरंकुशता पर नियंत्रण लगाने के लिए भी मजबूत विपक्ष का होना जरूरी है। संसद और विधान मण्डल सरीखे विधायी निकायों में जहां सरकार चलाने के लिए नियमों, नीतियों और कार्यक्रमों को अंतिम रूप दिया जाता है और फिर इन्ही विधायी निकायों में पारित प्रस्ताव राष्ट्रपति और राज्यपालों की सहमति से कानून का रूप हासिल करते हैं वहाँ  विपक्ष  का होना इसलिए भी जरूरी है ताकि विपक्ष उन मुद्दों पर सदन में होने वाली चर्चाओं के दौरान सरकार की गलतियाँ पकड़  सके और समय रहते सरकार और विपक्ष दोनों पक्षीण के बीच बातचीत और आपसी सहमति के जरिए उसका कोई जनहितकारी समाधान भी खोज जा सके।

लोकतान्त्रिक व्यवस्था में विपक्ष दो तरह का हो सकता है। एक ऐसा विपक्ष जो बहुमत के आधार पर विपक्ष की एक ऐसी पार्टी पर निर्भर हो जिसके सदन में सत्ता पक्ष से बहुत कम ही सदस्य हों और ऐसा विपक्ष सरकार को कभी  भी चैन  से बैठने  नहीं देता। दूसरी तरफ सदन में कई दलों के मिलन से बने संयुक्त विपक्ष को देखा जा सकता है जो अलग-अलग दिखाई देने के बावजूद जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों पर सरकार का विरोध करने के लिए एकजुट हो जाता है।

लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पलने और पनपने वाले इन दो तरह के विपक्ष को एक दलीय मजबूत विपक्ष और बहुदलीय छितरा और कमजोर विपक्ष की संज्ञा दी जा सकती है। इस देश में आजादी के बाद  अलग -अलग अवसरों पर पाँच दशक से अधिक बार सत्ता में रही काँग्रेस को इन दोनों तरह के विपक्ष का सामना करने का अनुभव रहा है। विपक्ष जब-जब मजबूत रहा काँग्रेस सरकार को चुनौतियों का सामना करना पद था और इसके विपरीत कमजोर विपक्ष की उपस्थिति से काँग्रेस सरकारों को मजबूत होने और कामकाज में निरंकुशता बनाए रखने में बहूत मदद मिली थी । एक लंबे अरसे तक सत्ता पक्ष की भूमिका निभाती रही काँग्रेस आज विपक्ष की भूमिका में है।

काँग्रेस के नेतृत्व वाला विपक्ष कमजोर और छितरा हुआ है। संसद के निचले सदन लोकसभा में विपक्ष अन्य विपक्षी दलों की तुलना में सबसे बड़ा  दल होने के बावजूद उसके सदस्यों की संख्या दहाई के अंक से आगे नहीं बड़ी है। संयुक्त विपक्ष का नेतृत्व करने के मामले में आज  कॉंग्रेस की सबसे चुनौती विपक्ष के छोटे और क्षेत्रीय दलों को साथ में लेकर चलने की है। देश के  मौजूदा राजनीतिक  संदर्भ  में यह भी एक विचित्र संयोग ही है कि सत्तारूढ़ भाजपा, मुख्य विपक्षी पार्टी काँग्रेस और वामपंथी दलों को छोड़ कर  कोई भी पार्टी ऐसी नहीं है जिसे राष्ट्रीय पार्टी कहा जा सके।

वामपंथी पार्टियां भी पिछले दो से अधिक दशक से अपना राजनीतिक आधार समेटते हुए आज क्षेत्रीय पार्टियों  का ही रूप लेती दिखाई देती हैं। उधर  उत्तर भारत की समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, एकीकृत  जनता दल,  लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल  सरीखी पार्टियां राष्ट्रीय होने का दावा तो जरूर करती हैं पर इनका चरित्र क्षेत्रीय दलों से भी अधिक संकुचित है। इस मामले में तमिलनाडु के अन्ना द्रमुक और द्रमुक, कर्नाटक के जनता दल (एस), आनद्रप्रदेश के तेलुगु देशम पार्टी, तेलंगाना की टी आर एस, वाई एस आर काँग्रेस, बंगाल की तृणमूल काँग्रेस, महाराष्ट्र की शिवसेना और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी और ओडिशा की बीजू जनता दल जैसी क्षेत्रीय पार्टियों की हैसियत  उत्तरभारत की  इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों से कहीं बेहतर कही जा सकती है।

मौजूद संदर्भ में काँग्रेस को लेकर यह कहना कदाचित गलत नहीं होगा कि साल 1885 में काँग्रेस नामक जिस पार्टी की स्थापना की गई थी वो देश की सबसे पुरानी पार्टी ही नहीं है बल्कि आज भी यही एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसका झण्डा फहराने वाला एक व्यक्ति देश के हर राज्य के हर गाँव , सहारा और कस्बे मोहल्ले में मिल जाएगा। सही अर्थों में यही एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है।  बस इतना अंतर है कि सबसे पुरानी और राष्ट्रीय स्तर की पार्टी होने के साथ ही यह एक बहुत कमजोर पार्टी बन गई है। इसकी कमजोरी की वजह से ही केंद्र की सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार का विरोध करने वाले विपक्ष के छोटे बड़े नेता मुख्य विपक्षी दल होने के नाते सरकार के खिलाफ संघर्ष में काँग्रेस के आगे रहने की उम्मीद तो करते हैं लेकिन काँग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष की राजनीति को आगे बढ़ाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती।

विपक्ष में रह कर काँग्रेस नेतृत्व को चुनौती देने वाले इन राजनीतिक दलों में ममता बनर्जी की तृणमूल काँग्रेस और टीआरएस के केसीआर समेत कई दलों के नेताओं के नाम शामिल हैं। इनको मोदी विरोध का नारा लगाना तो जरूर आता है लेकिन अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए मौका पड़ने पर  कथित विपक्ष  के ये नेता मोदी नाम की माला जपने से भी संकोच नहीं  करते। यही वजह है कि जब कभी मोदी के बाद कौन का सवाल उठता  है तो इन क्षेत्रीय दलों के नेता अपना नाम ही आगे रखने की कोशिश में रहते हैं।

इसी मानसिकता के चलते  राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष की एकजुटता  में  छेद भी दिखाई दिए थे। विपक्षी दलों के ऐसे नेताओं के साथ ही काँग्रेस में अंदर ही अंदर क्षेत्रीय  नेताओं नेताओं के बीच पनप रहे आपसी मनमुटाव ने भी काँग्रेस को कमजोर किया है। इस तरह की मनमुटाव के चलते ही काँग्रेस को मध्य प्रदेश में अपनी ही सरकार को भाजपा को सौंपना पद था। महाराष्ट्र में काँग्रेस के बहाने ही शिव सेना में सैंध लगाई गई थी और राज्य की माह अगाडी सरकार को डाव पर लगाना पड़ा था। बहरहाल लोकहित में विपक्ष का मजबूत होना भी जरूरी है और अगर काँग्रेस मजबूत नहीं हुई तो विपक्ष कैसे मजबूत होगा?

First Published on: August 24, 2022 7:02 PM
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