समाज का एक तबका ऐसा है जिसे किसी भी समय किसी तरह का चैन नहीं मिलता। सरकार किसी की हो यह तबका हमेशा घाटे में ही रहता है। इसके विपरीत समाज का एक तबका ऐसा भी है जो हर किसी की सरकार में, हमेशा और हर हालत में फायदे में ही रहता है। समाज के इस तबके के लिए, “कोऊ नृपु होए हमें का हानि” वाली कहावत अक्षरशः लागू होती है। हर हाल में फायदे में रहने वाला समाज का यह तबका है देश का धन्नासेठ, व्यापारी और पूंजीपति वर्ग है। इसके विपरीत हर हाल में परेशान रहने वाले समाज के वर्ग की पहचान उसके आर्थिक रूप से कमजोर गरीब और माध्यम वर्गीय वर्ग से होती है। दुनिया की हर सरकार धन्नासेठों के हित नें ही नीतियां बनाती है और समाज का कमजोर तबका इन नीतियों में अपना हित खोजने की जद्दोजहद में ही अपनी जिन्दगी दांव पर लगा देता है।
कोरोना के इस कारुणिक दौर में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। इसकी शुरुआत हो लघु उद्योग क्षेत्र में हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन जैसी उस दवा के उत्पादन को बंद करने के रूप में हो रही है जिसे अभी हाल ही में अमेरिका को निर्यात कर देश की इज्जत बची थी। यह बात हम नहीं कह रहे हैं बल्कि उत्तराखंड की स्माल स्केल इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल शर्मा ने पत्रकारों को बताया है कि इस दवा के कच्चे माल की कीमत इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि छोटे निर्माता उसे खरीद नहीं सकते। खरीद भी लें तो लागत इतनी ज्यादा आयेगी की दवा की एक टिकिया की कीमत बहुत बढ़ जायेगी, छोटे निर्माता दवा की टिकिया की कीमत अपनी तरफ से बढ़ा भी नहीं सकते क्योंकि दवा क़ानून के तहत सरकार एक टिकिया की कीमत पहले से तय कर चुकी है और सरकार द्वारा तय कीमत से अधिक दाम पर इसे बेचना गैरकानूनी होगा।
इसलिए, उत्तराखंड के सभी लगभग साथ छोटे दवा निर्माताओं ने इस दवा हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन का निर्माण ही नहीं करने का फैसला लिया है क्योंकि उनके लिए ये एक घाटे का सौदा है। इसके विपरीत दवा उद्योग के बड़े निर्माताओं के लिए महंगे दाम पर भी कच्चा माल खरीदना दिक्कत का काम नहीं है। बड़े निर्माता अधिक उत्पादन कर लागत में संतुलन बैठा सकते हैं और उन्हें नुक्सान भी नहीं होगा इसलिए वो उत्पादन जारी रख सकते हैं। लेकिन छोटे निर्माताओं के लिए यह संभव नहीं हो सकेगा। इसकी एक सबसे बड़ी वजह यह है कि लॉकडाउन से पहले हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन उत्पादन के लिए जो कच्चा माल नौ हजार रुपये प्रति किलोग्राम की दर से उपलब्ध था वही अब पचपन हजार रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर मिल रहा है।
एक तरफ उत्तराखंड तो दूसरी तरफ झारखंड की कमार जाति के आदिवासी लोग सहजता से कच्चा माल न मिल पाने के कारण न बांस की टोकरी बना पा रहे हैं न महुआ की। इस जाति के लोग जब अपना पुश्तैनी काम ही नहीं कर पायेंगे तो फिर उसकी बिक्री का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। ऐसे में समाज के इस वंचित वर्ग की समस्याओं में बढ़ोतरी ही होगी। इसका मतलब यह भी हुआ कि लॉकडाउन के चलते समाज के पहले से ही हाशिये पर चले गए लोगों की जिन्दगी और खराब हो गई है।
इसी कड़ी में, “भोजन का अधिकार अभियान” नामक एक स्थानीय संगठन ने हाल ही में कराये अपने एक सर्वेक्षण से यह पता लगाया है कि इस राज्य में राहत कार्यों के लिए शुरू की गई तमाम योजनायें खामियों से भरी हैं जिसकी वजह से जमीनी स्तर पर इन योजनाओं का लाभ आम आदमी को नहीं मिल पा रहा है। जिसकी वजह से भी यहां के गरीब तबके का जीवन अधिक कष्टप्रद हो गया है। दुर्भाग्य से स्थानीय प्रशासन की ये नाकामियां भी लॉकडाउन के खाते में ही जमा हो रही हैं क्योंकि ये काम शुरू ही इस अवधि में हुए हैं।
अमीरों को लाभ पहुंचाने की गरज से ही सुना है सरकार एक और योजना पर काम कर रही है। इस योजना के तहत लॉकडाउन की अवधि जो किसी न किसी रूप में अगले एक-दो महीने तक और जारी रह सकती है कुछ किराना स्टोरों को सुरक्षा स्टोरों में तब्दील कर उनके संचालन का काम देश के चार-पांच ख़ास धन्नासेठों को दिया जा सकता है। देश में ऐसे 20 लाख सुरक्षा स्टोर खोलने की योजना है जिनमें माल और मेघा मार्ट की तर्ज पर एक ही जगह से आप सब्जी भी खरीद सकेंगे और राशन भी। कपड़े की दूकान भी इन सुरक्षा स्टोर में होगी तो जनरल मर्चेंट, दवा विक्रेता भी यहां मिल जायेंगे। यही नहीं अपने बाल कटवाने, दाढ़ीशेव कराने, पार्लर के काम कराने और मेकअप जैसे काम भी इन्हीं सुरक्षा स्टोरों में हो जायेंगे। जब खरीदारी की तमाम सुविधाएं आपको एक ही जगह पर मिल जायेंगी और वह भी सेनेटाइज्ड तरीके से तो फिर सभी हर तरह की खरीदारी के साथ ही अपने हेअरकट और ब्यूटी पार्लर के काम भी यहीं से करा लेंगे।
नए कपड़े भी दरजी इन्हीं सुरक्षा स्टोरों में सिल ही देगा तो फिर किसी को कहीं और जाने की जरूरत ही नहीं होगी और जब यह सब हो जाएगा तो आपके गली-मोहल्लों में छोटी- छोटी दूकान लगाने वाले ये सब लोग बेरोजगार हो जायेंगे। इसे भी कुदरत का एक करिश्मा ही कहा जा सकता है कि एक तरफ तो कुदरत की मार से न जाने कितने लोग मौत के मुंह में समा जायेंगे, असंख्य लोग लम्बे समय तक बीमारी का दंश झेलने को मजबूर हो जायेंगे। कुछ बेकारी, बेरोजगारी और भुखमरी का शिकार होकर दर-दर भटकने को मजबूर हो जायेंगे तो कुछ फिर भी ऐश करेंगे अपने पैसे की सत्ता के बल पर देश के असंख्य कमजोर,गरीब और हाशिये पर चले गए लोगों के विकास और कल्याण के नाम पर अपना घर और अपनी जेबें ही भरेंगे।
(लेखक दैनिक भास्कर के संपादक हैं।)