मध्य प्रदेश में विधानसभा की 28 सीटों के लिए होने जा रहे उपचुनाव के नतीजों से वैसे सूबे की राजनीति में बहुत कुछ तय होना है, लेकिन सबसे अहम बात यह है कि ये उपचुनाव सात महीने पहले बड़े अरमानों के साथ कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया के सियासी मुस्तकबिल का भी फैसला करने वाले हैं। इसीलिए वे ग्वालियर-चंबल इलाके के उपचुनाव वाले क्षेत्रों में जगह-जगह कह रहे हैं, ”यह चुनाव भाजपा और कांग्रेस का नहीं है। यह चुनाव मेरा है। पूरा देश देख रहा है कि ग्वालियर चंबल इलाके में सिंधिया परिवार का झंडा बुलंद होगा या नहीं।’’
एक चुनाव क्षेत्र में अपने समर्थकों के बीच सिंधिया ने कहा, ”गांव-गांव जाकर लोगों को बता दो कि यह चुनाव रक्षा (भाजपा उम्मीदवार रक्षा सिरोनिया) का नहीं है, बल्कि यह चुनाव महाराजा सिंधिया का है। मुरैना विधानसभा क्षेत्र में कार्यकर्ता सम्मेलन में सिंधिया ने कार्यकर्ताओं से कहा कि तुम्हारे सामने खुद महाराज खड़े हैं, जो भी बोलना है खुलकर बोलो।’’
सिंधिया के इस तरह के बयानों से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और इलाके के दिग्गज भाजपा नेता नरेंद्र सिंह तोमर, वीडी शर्मा, नरोत्तम मिश्र, जयभान सिंह पवैया, प्रभात झा आदि खुद का असहज महसूस कर रहे हैं। यही वजह है कि केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने हाल ही में सिंधिया को लेकर एक ऐसी टिप्पणी की है, जो सिंधिया को भाजपा में उनकी हैसियत बताने के लिए पर्याप्त है।
मध्य प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और सिंधिया के ही गृह नगर ग्वालियर से ताल्लुक रखने वाले तोमर ने कहा है कि व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया की गति हमेशा धीमी रहती है और भाजपा में सिंधिया अभी उसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। तोमर ने भोपाल में मीडिया से चर्चा के दौरान सवालों के जवाब में कहा, ”सिंधिया जी भाजपा में आए हैं, उनका स्वागत है। भाजपा एक विचार और कार्यकर्ता आधारित पार्टी है, जिसकी परंपराओं, विचारों और कार्यपद्धति से सिंधिया जी अभी परिचित हो रहे हैं। हमें उम्मीद है कि वे जल्दी ही भाजपा में समरस हो जाएंगे।’’
संजीदा और नपा-तुला बोलने वाले नेता की छवि रखने वाले तोमर की बेहद शालीन लहेजे में की गई यह टिप्पणी बताती है कि भाजपा ने सिंधिया को उनकी हैसियत से रूबरू कराते हुए उन्हें संकेत दे दिया है कि भाजपा में आने के बाद अब उन्हें अपने ‘महाराज’ या ‘श्रीमंत’ वाली मानसिकता से उबरना होगा।
आगामी 3 नवंबर को जिन 28 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव होने जा रहे हैं। ज्यादातर सीटों पर ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक उम्मीदवार हैं और उपचुनाव वाली ज्यादातर सीटें भी उसी इलाके की हैं, जिसे सिंधिया अपने प्रभाव वाला इलाका मानते हैं। लेकिन इसके बावजूद इन चुनावों में उन्हें भाजपा की ओर से कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं दी गई है। सवाल है कि क्या सिंधिया मध्य प्रदेश की राजनीति मे अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा चुके हैं? इस सवाल का जवाब तो आने वाला समय ही देगा, मगर फिलहाल साफ तौर पर ऐसा लग रहा है कि भाजपा के लिए उनकी भूमिका और उपयोगिता अब वैसी नहीं रही, जैसी कुछ महीने पहले तक हुआ करती थी।
आठ महीने पहले सिंधिया ने अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस से बगावत कर कांग्रेस की 15 महीने पुरानी निर्वाचित सरकार को गिरा दिया था। सिंधिया समर्थक 19 तथा तीन अन्य विधायकों के कांग्रेस और विधानसभा से इस्तीफा दे देने से 230 सदस्यीय विधानसभा की प्रभावी सदस्य संख्या के आधार पर भाजपा बहुमत में आकर फिर से सत्ता पर काबिज हो गई थी।
भाजपा की सरकार बनवाने के बदले सिंधिया को पुरस्कार स्वरुप पहले राज्यसभा में भेजा गया। फिर उनके साथ विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में आए ज्यादातर समर्थकों को राज्य सरकार में मंत्री बना दिया गया। सिंधिया की जिद पर उनके समर्थक मंत्रियों को महत्वपूर्ण विभाग भी दे दिए गए। विधानसभा से इस्तीफा देने वाले जो मंत्री नहीं बनाए जा सके उन्हें निगमों और मंडलों का अध्यक्ष बनाकर मंत्री का दर्जा दे दिया गया। यही नहीं, विधानसभा से इस्तीफा देने वाले सभी समर्थकों को उपचुनाव में पार्टी की ओर से उम्मीदवार भी बना दिया गया।
इसके बावजूद फिलहाल कहा नहीं जा सकता कि उपचुनाव लड़ रहे सिंधिया के 19 समर्थकों में से कितनों की विधानसभा में वापसी होगी। यह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि उनके जो समर्थक चुनाव जीतेंगे, उनमें से कितनों की निष्ठा पहले की तरह सिंधिया के साथ रहेगी?
बहरहाल, राज्य में 28 सीटों पर हो रहे उपचुनाव भाजपा पूरी तरह अपने दम पर लड रही है और सिधिया के सभी समर्थकों को टिकट देने और उनके असर वाले इलाके में चुनाव होने के बावजूद भाजपा उन्हें वह अहमियत नहीं दे रही है, जिसकी अपेक्षा वे और उनके समर्थक करते हैं। प्रदेश भाजपा का पूरा नेतृत्व चुनाव में लगा हुआ है और धर्मेंद्र प्रधान सहित चार केंद्रीय मंत्री उपचुनाव की कमान संभाल रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद भी धुआंधार प्रचार में जुटे हुए हैं।
भाजपा सिंधिया की किस कदर उपेक्षा कर रही है या उन्हें ज्यादा अहमियत नहीं दे रही है, इसका अंदाजा चुनाव प्रचार के लिए जारी भाजपा के स्टार प्रचारकों की सूची देखकर भी लगाया जा सकता है। तीस स्टार प्रचारकों की इस सूची में सिंधिया को दसवें स्थान पर रखा गया है। यही नहीं, तीस नेताओं की सूची में सिंधिया समर्थक किसी नेता या मंत्री का नाम नहीं है।
दरअसल भाजपा ने उपचुनाव के लिए जारी अभियान के बीचोबीच अपनी रणनीति बडा फेरबदल किया है। बदली हुई रणनीति के मुताबिक सिंधिया अब इस चुनाव में भाजपा के पोस्टर ब्वॉय नहीं होंगे। पिछले सप्ताह पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष द्बारा विभिन्न चुनाव क्षेत्रों के लिए रवाना किए गए हाई टैक चुनावी रथों पर अन्य नेताओं के साथ सिंधिया की तस्वीर न लगा कर पार्टी ने अपनी बदली हुई रणनीति का संकेत दे दिया। इन रथों पर हर तरफ सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा की तस्वीरें लगी हैं। रथों पर नारा लिखा है- ‘शिवराज है तो विश्वास है।’
सवाल है कि आखिर भाजपा को अपनी रणनीति में एकाएक यह बदलाव कर सिंधिया को किनारे क्यों करना पड़ा ? बताया जाता है कि उपचुनाव वाले क्षेत्रों में जनता के बीच सिंधिया के विरोध ने भाजपा के चिंता पैदा कर दी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने सर्वे में यह फीडबैक मिला है कि सिंधिया के दलबदल को लोगों ने पसंद नहीं किया है। बताया जाता है कि ऐसी ही रिपोर्ट राज्य सरकार को अपने खुफिया विभाग से भी मिली है।
उपचुनाव के एलान से पहले शिवराज सिंह और सिंधिया उपचुनाव वाले क्षेत्रों के दौरे पर जब एक साथ निकले थे तो पहले दौरे में ही सिंधिया को लोगों की नाराजगी से रूबरू होना पडा था। अपने ही गृहनगर ग्वालियर में ही सिंधिया को बडे पैमाने पर काले झंडे और ‘गद्दार वापस जाओ’ के नारों का सामना करना पड़ा था। ग्वालियर के राजनीतिक इतिहास में यह पहला मौका था जब सिंधिया परिवार के किसी सदस्य को इस तरह के विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ा। अन्य क्षेत्रों से भी सिंधिया के प्रति लोगों में नाराजगी की सूचनाएं मिली। इन्हीं सूचनाओं के आधार पर संघ और भाजपा के भीतर विचार-विमर्श हुआ और यह माना गया कि उपचुनाव के लिए प्रचार अभियान में अगर सिंधिया को आगे रखा गया तो पार्टी को नुकसान हो सकता है।
करीब 18 साल के अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन में सिंधिया जब तक कांग्रेस में रहे, तब तक ग्वालियर चंबल संभाग में किसी चुनाव के दौरान ऐसा नहीं हुआ कि पार्टी के पोस्टर, बैनर, और होर्डिंग्स पर उनकी तस्वीर न छपी हो, लेकिन अब भाजपा में जाने के बाद इतने महत्वपूर्ण चुनाव में प्रचार सामग्री पर उनकी तस्वीर का न होना और उन्हें नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में न रखना उनके लिए भी और उनके समर्थकों के लिए भी एक बडा संकेत है। भाजपा में सिंधिया की इस ताजा स्थिति पर कांग्रेस के नेता तंज कर रहे हैं कि क्या इसी सम्मान की खातिर वे कांग्रेस छोड कर भाजपा में गए थे!
गौरतलब है कि सिंधिया ने आठ महीने पहले यह कहते हुए कांग्रेस से इस्तीफा दिया था कि पार्टी में उनका अपमान हो रहा है, जबकि प्रदेश स्तर पर कांग्रेस में सिंधिया की गिनती तीन शीर्ष नेताओं में होती थी। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के साथ उनकी तस्वीर होर्डिंग्स और पोस्टरों पर लगती थी। वे प्रदेश की चुनाव अभियान समिति के मुखिया थे। विधानसभा चुनाव के टिकटों वितरण में भी उन्होंने बड़ी संख्या में अपने समर्थकों को टिकट दिलवाए थे। राज्य मंत्रिमंडल में भी उनके समर्थकों की खासी संख्या थी।
यही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर भी वे पार्टी के महासचिव और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य थे। इससे पहले वे चार बार कांग्रेस की ओर से लोकसभा के सदस्य और केंद्र सरकार में मंत्री रहे। यह सब कुछ उन्हें महज 18 साल के राजनीतिक जीवन में हासिल हुआ था, जिसके लिए उन्हें आम कार्यकर्ता की तरह जरा भी मेहनत मशक्कत नहीं करनी पडी थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वे वंशवादी राजनीति के रंगरुट थे और अपने पिता माधवराव सिंधिया की असामयिक मृत्यु की बाद उनकी विरासत के दावेदार के तौर पर राजनीति में आए थे।
दरअसल चार मर्तबा लोकसभा के लिए निर्वाचित होने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने खुद को अजेय मान लिया था। लेकिन 2019 में उनके पांचवे लोकसभा चुनाव में उनका यह भ्रम दूर हो गया। उन्हें भाजपा उम्मीदवार के तौर पर उस व्यक्ति के मुकाबले हार का मुंह देखना पडा, जो कभी कांग्रेस में उनका ही एक कार्यकर्ता हुआ करता था और उनके अपमानजनक व्यवहार से क्षुब्ध होकर भाजपा में शामिल हो गया था। इसके बावजूद कांग्रेस में उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया गया। उनकी गिनती पार्टी के टॉप टेन नेताओं में होती थी और कांग्रेस के अध्यक्ष पद तक के लिए उनका नाम चर्चा आने लगा था।
बहरहाल, कांग्रेस में सिंधिया की जो हैसियत थी, उसकी तुलना में भाजपा में तो वे प्रदेश स्तर पर भी दसवें नंबर के नेता हैं। पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर तो वे किसी गिनती में ही नहीं आते हैं। हो सकता है कि आने वाले दिनों में उन्हें केंद्रीय मंत्रिपरिषद में जगह दे दी जाए, लेकिन मंत्री बनने के बाद भी उनकी हैसियत में कोई इजाफा नहीं होना है। वह हैसियत तो उन्हें हर्गिज हासिल नहीं होना है, जो कांग्रेस में उनकी थी।