सिंघु-टिकरी शाहीन बाग नहीं, इसलिए आरएसएस भी चाहता है बीच का रास्ता


आंदोलन की तीव्रता राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को भी महसूस होने लगा है। संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी भैया जी जोशी ने सरकार और किसान संगठनों से मिलकर हल निकालने की अपील की है। लंबे समय तक चलने वाला आंदोलन किसी भी समाज के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता है। दोनों पक्ष को मिलकर बीच का रास्ता निकालना चाहिए।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
मत-विमत Updated On :

26 जनवरी को दिल्ली में प्रस्तावित किसान ट्रैक्टर रैली के कारण सरकार परेशान है। दिल्ली की सीमा पर डटे किसान किसी भी कीमत पर ट्रैक्टर रैली निकालने को तैयार है। दिल्ली पुलिस के साथ किसान संगठनों की बैठक हुई है। हालांकि सरकार की चिंता सिर्फ ट्रैक्टर रैली ही नहीं है। किसान आंदोलन तेज हो रहा है। दूसरे राज्यों में भी आंदोलन पर चर्चा हो रही है। उधर संसद का सत्र भी शुरू होने वाला है। निश्चित तौर पर संसद के इसी महीनें शुरू होने वाले सत्र में किसान आंदोलन सरकार को परेशान करेगा।

संसद के पिछले सत्र में राज्यसभा में जिस तरह से तीन कृषि बिल पारित किए गए, उसे अभी तक विपक्ष भूला नहीं है। फिर अब तो दिल्ली सीमा पर भारी संख्या में किसान मौजूद है। भाजपा की असहज स्थिति यह भी है कि किसान दिल्ली सीमा पर भाजपा शासित हरियाणा राज्य में बैठे है। यही नहीं हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर तक को किसान सार्वजनिक कार्यक्रम तक नहीं करने दे रहे है।

हरियाणा सरकार पर संकट के बादल छाए है, क्योंकि हरियाणा में गठबंधन की सरकार है। तय है कि आंदोलन की गर्मी की आंच भाजपा और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ महसूस करने लगा है। संघ के वरिष्ठ अधिकारी भैया जी जोशी ने बीच का रास्ता निकालने की अपील सरकार और किसान संगठनों से की है।

किसान आंदोलन को विफल करने के लिए सरकार ने अभी तक हर हथकंडा अपनाया है। हालांकि सरकार के हथकंडे अभी तक विफल रहे है। स्थिति यह है कि सरकार चाहकर भी दिल्ली सीमा पर बैठे किसानों पर बल प्रयोग नहीं कर पा रही है। किसान संगठन केंद्र सरकार की एजेंसियों के नोटिस से भी नहीं डर रहे है। एजेंसियों के नोटिस के बाद किसान आंदोलन और मजबूत हुआ है।

किसान आंदोलन को विफल करने के लिए तरह-तरह के आरोप भी किसान संगठनों पर लगाए गए। दरअसल इस आंदोलन से सरकार इसलिए ज्यादा असहज है कि आंदोलन में बहुसंख्यक समुदाय के लोग भारी संख्या में शामिल है। क्योंकि तीन कृषि कानूनों का सबसे ज्यादा प्रभाव बहुसंख्यक हिंदू समुदाय पर पड़ा है। जबकि इससे पहले नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हुए आंदोलन पर सरकार निश्चिंत थी। उस समय सरकार सहज थी।

इसका मुख्य कारण यह था कि नागरिकता संशोधन कानून से देश का बहुसंख्यक समुदाय प्रभावित नहीं हुआ था। सरकार बहुसंख्यक समाज को समझाने में कामयाब हो गई थी कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ आंदोलनकारी सिर्फ इसलिए आंदोलन कर रहे है कि वे नरेंद्र मोदी सरकार को बदनाम करना चाहते है, जबकि नागरिकता संशोधन कानून से भारत के मुसलमानों को कोई खतरा नहीं है।

दरअसल नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ चलाए गए आंदोलन को नरेंद्र मोदी की सरकार और भाजपा ने एक अवसर के तौर लिया और कानून से चुनावी लाभ लेने की कोशिश भी की। दिल्ली विधानसभा चुनावों में तो बकायदा भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया, ताकि दिल्ली में मतों का ध्रुवीकरण हो सके। यही नहीं नागरिकता संशोधन कानून को संसद में उस समय पारित किया गया था जब झारखंड में विधानसभा चुनाव संपन्न हो रहे थे। हालांकि भाजपा को झारखंड और दिल्ली में इसका राजनीतिक लाभ नहीं मिला। दोनों राज्यों में भाजपा की हार हो गई।

नागरिकता संशोधन कानून से अलग नरेंद्र मोदी सरकार के तीन कृषि कानून सीधे तौर पर बहुसंख्यक समुदाय के हितों पर हमला कर रहे है। उनकी रोजी रोटी को छीन रहे है। इससे बहुसंख्यक हिंदू समुदाय प्रभावित हो रहा है। देश के बहुसंख्यक किसान हिंदू समुदाय से है। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य में इस कृषि कानून से शहरी व्यापारी तबका प्रभावित हो रहा है। खासकर वो व्यापारी तबका जो कृषि व्यापार में संलिप्त है।

यही नहीं शहरी व्यापारी का व्यापार किसानों की आय पर निर्भर करता है। अगर किसानों की हालात खराब होगी तो उनका व्यापार खत्म होगा। क्योंकि देश के ग्रामीण अर्थव्यवस्था छोटे शहरों की अर्थव्यवस्था को चलाती है। इसके बावजूद सरकार जमीनी स्थिति समझने में विफल रही है।

सरकार किसान आंदोलन को खत्म करने के लिए किसान संगठनों में भी फूट डालने की कोशिश कर रही है। पहले देश भर से कई किसान संगठनों को सरकार के समर्थन में लाया गया। कई किसान संगठनों ने कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मिलकर कृषि कानूनों का समर्थन किया। लेकिन बाद में खुलासा हुआ कि ये किसान संगठन कागजों में है।

आंदोलन में शामिल किसान संगथनों के बीच भी आपसी टकराव के संकेत कई बार मिले। लेकिन हर बार किसान नेताओं ने स्थिति को सम्हाला। इस कारण धरना स्थळ पर बैठे किसानों का दबाव है। किसानों ने साफ किसान नेताओं को कहा है कि वे किसान आंदोलन को कमजोर करने के लिए किसी का मोहरा न बने। हाल ही में हरियाणा के किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी पर कई आरोप लगे। चढूनी इस आंदोलन में तेजी से बड़े किसान नेता के रुप में उभरे है। उनके उपर कांग्रेस से मिलीभगत का आरोप लगाया गया।

दिलचस्प बात यह है कि आंदोलन में शामिल किसान नेता शिवकुमार उर्फ कक्का जी ने चढूनी पर कांग्रेस की मिलीभगत का आरोप लगाया। चढूनी पर कांग्रेस के साथ मिलकर हरियाणा की सरकार को गिराने की साजिश रचने का आरोप लगा। लेकिन दिल्ली सीमा पर बैठे किसानों की बहुसंख्या चढूनी के पक्ष में थी।

यही नहीं चढूनी पर गंभीर आरोप लगाने वाले शिवकुमार उर्फ काका जी के खिलाफ सोशल मीडिया पर मोर्चेबंदी हो गई। शिवकुमार उर्फ कक्का जी का पुराना इतिहास सोशल मीडिया पर सामने आया। शिवकुमार उर्फ कक्का जी का संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बताया गया। सोशल मीडिया पर कई लोगों ने साफ लिखा कि कक्का जी का मध्य प्रदेश का रिकार्ड देखा जाए।

मध्य प्रदेश में उन्होंने वहां किसान आंदोलनों को कमजोर किया है। कक्का जी पर आरोप लगाया कि वे भाजपा के इशारे पर किसान आंदोलन को कमजोर करने में लग गए है। 2016 के मंदसौर में हुए किसान आंदोलन में शिवकुमार उर्फ कक्का जी की भूमिका पर सवाल उठाए गए। उस समय मंदसौर में 6 किसान मारे गए थे।

वैसे आंदोलन की तीव्रता राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को भी महसूस होने लगा है। संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी भैया जी जोशी ने सरकार और किसान संगठनों से मिलकर हल निकालने की अपील की है। भैया जी जोशी ने कहा है कि लंबे समय तक चलने वाला आंदोलन किसी भी समाज के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता है। भैया जी जोशी के अनुसार दोनों पक्ष को मिलकर बीच का रास्ता निकालना चाहिए।

भैया जी जोशी की राय यह साफ संकेत दे रही है कि कहीं न कहीं संघ को आंदोलन से होने वाला नुकसान का अहसास हो गया है। संघ को यह भी डर है कि आंदोलन अगर तेज होगा तो इससे मध्यवर्ती कृषक जातियां जो भाजपा के पाले में कई राज्यों में आ रही है, भाग सकती है।

कई राज्यों में किसानों को अब न्यूनतम समर्थन मूल्य का मतलब समझ में आने लगा है। क्योंकि कागजों में सीमित न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ देश के 90 प्रतिशत किसान कई दशक से नहीं ले पाए है। लेकिन न्यूतनम समर्थन मूल्य का सबसे ज्यादा लाभ लेने वाले पंजाब और हरियाणा के किसानों ने सारे देश को आंदोलन के माध्यम से बताया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ कितना है ?

दिल्ली सीमा पर बैठे पंजाब और हरियाणा के किसानों ने दक्षिण से लेकर पूर्वी भारत के किसानों को बताया है कि सरकारें उन्हें एमएसपी को कागजों में रख छलती रही है। अब समय आ गया है कि एमएसपी से वंचित किसान भी एमएसपी हासिल करें।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को चिंता यह भी है कि किसान आंदोलन लंबा चलने की स्थिति में शहरों में मौजूद भाजपा समर्थक मध्यवर्ग भी आंदोलन से प्रभावित हो सकता है। मध्यवर्ग को किसान समझाने की कोशिश कर रहे है कि अगर खेती किसानों के हाथ से निकल कारपोरेट के हाथ में गई तो भविष्य में शहरी मध्यवर्ग को कई गुणा ज्यादा कीमत पर चावल, दाल, आटा और सब्जी भविष्य में मिलेगी। शहरी मध्यवर्ग कारपोरेट का शिकार होगा।