फिल्म इंडस्ट्री सदमें में है। सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या से नहीं बल्कि उनकी आत्महत्या के बाद खड़ी हुई भाई भतीजावाद की बहस पर। सुशांत की कथित आत्महत्या के बाद सोशल मीडिया पर उस बहस ने जन्म ले ही लिया जिसकी जड़ता पूरी फिल्म इंडस्ट्री को जकड़ती जा रही है। वह जड़ता है भाई भतीजावाद। या फिर कहें तो परिवारवाद। या फिर इसे फिल्म इंडस्ट्री का जातिवाद भी कह सकते हैं।
सुशांत की आत्महत्या के बाद जिन लोगों पर परिवारवाद का आरोप लग रहा है वो बड़े नाम हैं। कपूर खानदान, खान परिवार, जौहर परिवार। टी सीरीज प्रोडक्शन। असल में ये भाई भतीजावाद सिर्फ अभिनय कला पर अपना दावा नहीं है बल्कि 1800-2000 करोड़ की फिल्म इंडस्ट्री पर कब्जे की काली कहानी है जो कभी पर्दे पर नहीं आती। ये कहानी पर्दे के पीछे चलती है और सार्वजनिक तौर पर कभी किसी की जुबान पर नहीं आती।
भारत में फिल्म इंडस्ट्री की शुरुआत शुद्ध रूप से कलात्मक शुरुआत थी। करीब पांच दशक तक इसका कलात्मक पक्ष इसके व्यावसायिक पक्ष पर हावी रहा। उस समय फिल्म इंडस्ट्री यूपी और बंगाल के लोगों का गहरा प्रभाव था। फिल्में भी चमक दमक से ज्यादा यथार्थ के आसपास घूमती थीं। सत्तर के दशक तक फिल्मों का कथानक हमारे वर्तमान के जीवन से जुड़ा हुआ होता था। कहीं मध्यवर्ग की समस्याएं, कहीं निम्नवर्ग की परेशानियां तो कहीं उच्च वर्ग के द्वारा शोषण के खिलाफ खड़े मजदूर दिखाई पड़ते थे।
लेकिन अस्सी के दशक के बाद फिल्मों का कथानक बदलने लगे। फिल्में अब यथार्थ से ज्यादा कल्पनालोक की कहानियों पर बनने लगी। नाच, गाना, आइटम सांग, देश विदेश के खूबसूरत लोकेशन फिल्मों में मुख्य हो गये। इसी दौर में पंजाबी कलाकारों, परिवारों, निर्माता, निर्देशकों का प्रभुत्व भी बढ़ा। जौहर परिवार, कपूर परिवार, चोपड़ा परिवार, धवन परिवार, आहूजा परिवार का दबदबा बढ़ा। ये कोई संयोग मात्र नहीं है कि निर्देशक डेविड धवन ने गोविन्दा आहूजा को ही लेकर नया ट्रेन्ड सेट किया। यह भी कोई संयोग नहीं है कि आपके नाम के साथ कपूर जुड़ा है तो सोनम कपूर भी फिल्मों की हिरोइन हो सकती हैं।
फिल्मों में जिन प्रमुख पंजाबी परिवारों का कब्जा हुआ उन्होंने अपने परिवार, खानदान या फिर जातीय समूह को बढ़ावा देना शुरु कर दिया। आज हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में जो नये चेहरे दिखाये जा रहे हैं उनमें से अधिकांश फिल्म जगत से जु़ड़े परिवारों से ही हैं। श्री देवी और बोनी कपूर की बेटी हो या फिर डेविड धवन का बेटा वरुण धवन, अनिल कपूर की बेटी हो या फिर जीतेन्द्र कपूर का बेटा। अब फिल्म इंडस्ट्री सिर्फ कुछ परिवारों का उद्योग बनता जा रहा है। इसमें नया नाम शाहरुख खान और सलमान खान का भी जुड़ गया है जिनके परिवार की अगली पीढ़ी फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखने की तैयारी कर रही है। ऐसे में सुशांत सिंह राजपूत जैसे अभिनेताओं को अगर एक साथ कई फिल्मों से साइन करने के बाद भी निकाल दिया जाता है तो उनमें निराशा आना स्वाभाविक है।
असल में जब मनोरंजन भी उद्योग बन जाता है तो उद्योग जगत वाली सारी चतुराइयां यहां भी प्रयोग होने लगती हैं। इसमें मीडिया भी समान रूप से दोषी है जो कि स्टार चिल्ड्रेन को सेलेक्टिव पब्लिसिटी देकर उनकी मार्केट वैल्यू बढ़ाती है। यह अनायास नहीं होता कि मीडिया जगत के फिल्मी पन्नों पर मशहूर अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के बच्चों को कवरेज मिलती है। असल में यह उनकी सॉफ्ट लॉंचिग होती है। इसके जरिए उनका बाजार मूल्य बढ़ाया जाता है और फिर एक दिन उनकी कोई बड़ी फिल्म लांच कर दी जाती है। इसके लिए अच्छे स्टारकास्ट, अच्छे निर्देशक से लेकर बड़ी बड़ी पीआर एजंसियों को काम पर लगाया जाता है।
यह सब एक चक्रव्यूह है जिसे अभिनय के बलबूते पर तोड़ पाना किसी स्ट्रगलर या न्यूकमर के लिए आसान नहीं होता। आसान तो क्या लगभग असंभव होता है। इसलिए फिल्म जगत में स्वाभाविक प्रतिभाएं आनी बंद होती जा रही हैं। क्योंकि फिल्म निर्माण में फाइनेन्स से लेकर अभिनय और निर्देशन तक सब एक खास वर्ग में सिमट कर रह गया है जिसे फिल्म जगत की रिफ्यूजी पंजाबी लॉबी नियंत्रित करती है। ऐसे में उद्योग का दर्जा मिलने के बाद पनपी प्रोडक्शन कंपनियां जरूर कुछ उम्मीद पैदा करती हैं जो शुद्ध रूप से मुनाफे का कारोबार करती हैं। उन्हें किसी वाद से ज्यादा मोहब्बत अपने निवेश से होता है। फिर भी ये प्रयास तब तक नाकाफी हैं जब तक इस रिफ्यूजी पंजाबी परिवारवाद को नहीं तोड़ा जाता। अगर राजनीति में परिवारवाद बुरा है तो फिल्म जगत में भी उतना ही बुरा है।
इसके लिए जरूरी है कि फिल्म इंडस्ट्री को न सिर्फ इस परिवारवादी व्यवस्था से बाहर निकाला जाए बल्कि हिन्दी पट्टी में नयी हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री विकसित की जाए जो भोजपुरी सिनेमा से आगे जाता हो। खड़ी बोली के सिनेमा का सबसे बड़ा बाजार हिन्दी पट्टी में है तो फिल्म इंडस्ट्री गैर हिन्दी भाषी लोगों के कब्जे में क्यों रहे? हिन्दी पट्टी में खड़ी बोली के सिनेमा के विकसित होने की पर्याप्त संभावना है। अगर समय रहते इस दिशा में प्रयास किया जाए तो भविष्य में किसी सुशांत सिंह को इसलिए आत्महत्या का रास्ता नहीं चुनना पड़ेगा कि उसके अंदर प्रतिभा तो है लेकिन उसके पास काम नहीं है।