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डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ऐस शिक्षक हुए जो पूरे विश्वभर में शिक्षण के साथ साथ दर्शनशास्त्र के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा और दर्शन दोनों का लक्ष्य व्यक्ति को सत्य का ज्ञान कराना तथा उसके जीवन को विकसित करना है। और यही कारण है की शिक्षा और दर्शन दोनों एक दूसरे पर आश्रित होते हैं। प्लेटो दुनिया के महान दार्शनिक थे। जिनका सपना था कि राजा, दार्शनिक बने और दार्शनिक, राजा। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने प्लेटो के इस सपने को साकार किया। भारत के उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति रहे डॉ राधाकृष्णन शिक्षक क साथ साथ विश्व विख्यात दार्शनिक थे। शिक्षा के क्षेत्र में उनके कार्यों के सराहनीय योगदान के लिए ही उनके जन्मदिन (5 सितंबर,1988) को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा जर्मन मिशन स्कूल में हुई, फिर वेल्लोर और फिर क्रिश्चियन कॉलेज में प्रवेश के लिए मद्रास आए। जहां ईसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दू धर्म की आलोचना होते देख उन्हे अच्छा नहीं लगा। उन्होंने हिन्दू धर्म का गहन अध्ययन किया और दर्शनशास्त्र में एम० ए० की अपनी उपाधि के लिए वेदान्त के तत्व विषय को अपने प्रबन्ध के लिए चुना ।
‘द फिलासफी आफ रवीन्द्रनाथ टैगोर’ डॉ राधाकृष्णन की पहली पुस्तक थी, जो 1918 में प्रकाशित हुई तब वे मद्रास में पढ़ाते थे। बंगाल से बाहर वे ही सर्व प्रथम विद्वान थे जिन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को एक दार्शनिक के रूप में पहचाना। उनकी इस पुस्तक की रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी सराहना की । कलकत्ता विश्वविद्यालय के आरम्भिक काल में उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इण्डियन फिलासफी’ दो खण्डों में प्रकाशित हुई थी ।
जून 1931 में जार्ज पंचम ने उन्हें ‘नाइटहुड’ की उपाधि से विभूषित किया। पाँच वर्ष के लिए उन्होंने भारत में रहकर आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति का पद सम्हाला। आक्सफोर्ड में उन्हें फिर बुलाया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के आरम्भ तक वे बीच-बीच में कलकत्ता तथा बीच-बीच में आक्सफोर्ड में रहे ।1939 में डा० राधाकृष्णन ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति का पद स्वीकार किया। भारतीय विश्वविद्यालय आयोग का अध्यक्ष पद ग्रहण करने के लिए उन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति पद से त्याग पत्र दे दिया।
1944 में भाषण देने के लिए वे फिर विदेश गए। दो वर्ष बाद उन्होंने अमरीका के 14 विश्वविद्यालयों की यात्रा की। 1946 में उत्तर प्रदेश से उन्हें संविधान सभा का सदस्य चुना गया।
लोग उन्हें सिर्फ महान दार्शनिक समझते थे, इसलिए इनके राजनीतिक पक्ष से अनभिज्ञ थे। जबकि राजनीति के क्षेत्र में भी वे उतने ही निपुण थे। 1949 में उन्हें जिम्मेदारी का पहला पद मिला। वे रूस के राजदूत के रूप में नियुक्त हुए थे। इस पद की गरिमा बनाए रखने में वे पूर्ण रूप से सफल हुए। भारत और रूस के बीच अच्छे संबंधों का आधार उन्होंने ही बनाया था।
मई 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति हुए। 1957 में वे फिर उप राष्ट्रपति चुने गए। इस पद पर रहते हुए उन्होंने यूरोप तथा सुदूरपूर्व की अनेक सद्भावना यात्राएँ की। 1962 में वे भारत के राष्ट्रपति हुए। राष्ट्रपति के रूप में डॉ सर्वपल्ली ने विश्व के अनेक देशों की यात्राएं कीं, जिसमें अमरीका, ब्रिटेन, सोवियत संघ, नेपाल, आयरलैण्ड, युगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिय), रूमानिया इथोपिया आदि शामिल हैं।
1954 में उन्होंने मैकगिल विश्वविद्यालय, कनाडा द्वारा ‘सर एडवर्ड बैटी व्याख्यान माला’ का उद्घाटन किया था, जिसमे उन्होंने इतिहास, धर्म और दर्शन के प्रति पूर्वीय और पश्चिमी विचार की तुलना की। दिए गए इन तीन व्याख्यानों में उन्होंने पहले व्याख्यान मे -भारतीय संस्कृति की मूल प्रवृति का दर्शन, दूसरे व्याख्यान के पहले हिस्से में- पश्चिमी संस्कृति के बारे में कहते हुए उन्होंने यूनान, मकदूनिया, रोम, मिस्त्र और इसाई धर्म के आरंभ का विवरण दिया तथा दूसरे हिस्से में ईसाई सिद्धांत, इस्लाम, धर्म युद्ध, पाण्डित्यवाद, पुनर्जागरण, सुधार तथा प्राकृतिक विज्ञान एवं आधुनिक दर्शन के उदय की चर्चा की, तीसरे व्याख्यान में उन समस्याओ की व्याख्या की जिनसे पूर्व और पश्चिम दोनों परेशान थे, और एक सृजनतामक धर्म की आवश्यकता पर जोर दिया था। ‘सर एडवर्ड बैटी’ आधुनिक कनाडा के निर्माण में स्मरणीय योगदान के लिए याद किए जाते हैं।
सर एडवर्ड बैटी व्याख्यान माला’ का उद्घाटन पूरे एक वर्ष तक स्थगित रखना पड़ा था ताकि डॉ राधा कृष्णन पहले बैटी स्मारक व्याख्याता बनना स्वीकार कर लें। ‘पूर्व और पश्चिम’ नामक पुस्तक में इन व्याख्यानों को समाहित किया गया है। ‘श्री एफ सिरिल जेम्स’, जो मैकगिल विश्वविद्यालय के प्रिंसिपल और कुलपति थे, ने इस पुस्तक की शुरुआत में ही डॉ राधाकृष्णन की लोकप्रियता के बारे में लिखा है कि – “ उनके व्याख्यानों में लोगों की कितनी रुचि थी, वह इस बात से स्पष्ट है कि मांट्रीयाल के तीन हजार से अधिक विद्यार्थी और नागरिक प्रति रात्री उन्हे सुनने आते थे। श्रोताओ की रुचि का एक और प्रमाण है कि रेडपाथ हाल में इतने अधिक व्यक्तियों के लिए व्यवस्था नहीं है, इसलिए श्रोता सर आर्थर क्यूरी जिम्नाशियम –आर्मरी की सख्त कुर्सियों पर बैठकर सुनते रहे। जहां आवाज भई ठीक से सुनाई नहीं देती थी। व्याख्यान माला की समाप्ति वे देर तक हर्षध्वनि करते रहे। “
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि डॉ राधाकृष्णन दार्शनिक होने के साथ साथ एक बौद्धिक सुधारक तथा विलक्षण राजनयिक भी थे। वे जिस पद पर भी रहे और जहां भी गए उन्होंने अपनी गरिमा बनाए रखी।
वे सिर्फ नाम के राष्ट्रपति नहीं थे। 16 फरवरी, 1961 को भूवनेश्वर में उड़ीसा विधान सभा भवन का उद्घाटन समारोह आयोजित किया गया था उस अवसर पर उन्होंने कहा: “लोकतंत्र का मूल किसी संविधान अथवा प्रणाली में नहीं है, बल्कि उस स्वशासित समुदाय की भावना में है जो अधिक अनुशासित हो। पड़ोसी देशों में लोकतंत्र नष्ट हो रहा है। इसकी सफलता के लिए अनुशासित नेतृत्व अनिवार्य है। हमें अपने समाज में असहिष्णुता के तत्वों का सामना करना है और लोगों को यह समझाना-बुझाना है कि आत्मा के विकास के साथ इन तत्वों का कोई मेल नहीं है। प्रशासन स्वच्छ और निष्पक्ष होना चाहिए। वैयक्तिक सम्बन्धों में नेताओं को हो मृदु होना ही चाहिए, लेकिन सार्वजनिक मामलों में उन्हें दृढ़ भी होना चाहिए। भ्रष्टाचार और कुनबा परस्ती कभी माफ नहीं की जानी चाहिए। सभी प्रकार के विचार विमर्शो में सहिष्णुता तथा सद्भावना होनी चाहिए। हमें दूसरों को आलोचना करते समय अपनी कमियों का ध्यान होना चाहिए। हमें सरकार अथवा विरोधी दलों के इरादों पर शक करने से बचना चाहिए। देशभक्ति पर किसी व्यक्ति का एकाधिकार नहीं होना चाहिए। हमें उपहासों, परोक्ष संकेतों तथा अस्पष्ट बातों से बचना चाहिए, क्योंकि इनके यथोचित उत्तर नहीं दिए जा सकते। प्रत्येक व्यक्ति का यह दायित्व है कि वह शालीनता तथा गौरवपूर्ण व्यवहार अपनाए।” इन शब्दों से स्पष्ट होता हैं कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन का चिन्तन कितना व्यावहारिक और व्यापक था।
डॉ. राधाकृष्णन भारतीय समाज को सच्चे अर्थ में स्वतंत्र बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने भारतीय चिन्तन धारा का आश्रय लिया। उन्होंने एक ऐसे भारत की कल्पना की, जहाँ सच्ची सभ्यता के मूल्यों का सम्मान हो, शांति हो, व्यवस्था हो, सद्भावना हो, सत्य के प्रति प्रेम हो, सौन्दर्य की खोज हो तथा बुराइयों के प्रति घृणा हो।