नेपाल में सत्तापलट: क्रांति या एक और भ्रांति?

चारों तरफ़ इतना अँधेरा है कि हम रौशनी के हर कतरे की तरफ़ दौड़ने लगते हैं। चाहे वो टिमटिमाता दिया हो, या जुगनू की रौशनी का भ्रम या फिर आग लगाने वाली चिंगारी-हम दूर से दिखने वाली हर बिंदी पर अपनी बेबस उम्मीदों का झोला टांगने को लालायित रहते हैं। कुछ ऐसा ही नेपाल में हाल ही में हुए सत्तापलट के साथ हुआ है। एक जमाना था जब हम नेपाल को अंदर से जानते थे, आजकल सिर्फ़ बाहरी छवियों से जानते हैं। हमे टीवी और सोशल मीडिया पर ‘जेनजी’ के कुछ युवा चेहरे दिखे, राजनीतिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश दिखा, और रातोंरात सत्तापरिवर्तन की खबर आई। और हम उसे क्रांति मान कर मुग्ध हो गए। भारत में भी कुछ ऐसे ही बदलाव के सपने देखने लगे।

हमारी थकी हुई उम्मीदों का बोझ इतना भारी रहा होगा कि उसे उतारने की उतावली में हम कुछ सीधे सादे सवाल पूछना भूल गए: ये ‘जेनजी’ है क्या? नेपाल की राजधानी में एकजुट हुए यह शहरी युवा किस मायने में नेपाल की नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं? किसी देश की सत्ता सिर्फ़ चालीस घंटे में कैसे गिर सकती है?

8 सितंबर के गोलीकांड के बाद अगले दिन सड़कों पर हुई हिंसा के पीछे कौन था? इस प्रकरण में नेपाली सेना और नेपथ्य में खड़े अपदस्थ राजा की क्या भूमिका थी? यह मामूली या तफ़सील वाले सवाल नहीं हैं। इनका उत्तर मिले बिना हम इस सत्तापलट के चरित्र का मूल्यांकन नहीं कर सकते। अभी ये हम कह नहीं सकते की यह क्रांति है या सिर्फ एक भ्रांति।

बेशक, नेपाल की राजनीति बहुत समय से बहुत बुरे दौर से गुज़र रही है। जनता एक नहीं दो बार क्रांति कर चुकी है। दोनों बार धोखा खा चुकी है। पहली बार 1990 में राणा राज के विरुद्ध विद्रोह हुआ, लेकिन संवैधानिक राजतंत्र की बजाय मिली पुराने जमाने की राजशाही। फिर 2008 में दूसरा जनआंदोलन हुआ, राजशाही को खत्म कर एक लोकतांत्रिक सेक्युलर नेपाल की शुरुआत हुई। लेकिन राजनीतिक दलों और नेताओं ने जनांदोलन की भावना के साथ खिलवाड़ किया। सात साल तक संविधान ही नहीं बना, और जब बना तो विवाद से मुक्त नहीं रहा।

अपने शैशव काल में लोकतंत्र को पालने पोसने की फुर्सत ही नहीं मिली। कमोबेश सभी पार्टियों और नेताओं ने कुर्सी की होड़ में हर नियम, कायदे, मर्यादा को ताक पर रख दिया। घुमा फिराकर वही दो-चार चेहरे बार बार प्रधानमंत्री बनने लगे। और तिस पर निर्बाध भ्रष्टाचार, जिससे कोई पार्टी मुक्त नहीं थी।

आमतौर पर वामपंथी आंदोलन जैसी वैचारिक पृष्ठभूमि से आने वाले दलों और नेताओं में जल्दी से चारित्रिक पतन नहीं होता। लेकिन यहाँ पुरानी नेपाली कांग्रेस के साथ-साथ माओवादी आंदोलन से निकली दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों यूएमएल और माओवादी के नेताओं पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। वैसे नेपाल की अर्थव्यवस्था मजबूत हुई है, राष्ट्रीय आय बढ़ी है, लेकिन साथ में बेरोजगारी का संकट भी बढ़ा है।

अब युवा पीढ़ी की आँख में नेताओं और उनके बच्चों की अय्याशी चुभती है। राजनीति के शीर्ष पर हो रहे भ्रष्टाचार का कोई इलाज नहीं है। न्यायपालिका समेत सभी नियामक संस्थाएं फेल हो चुकी हैं, या ख़ुद भ्रष्टाचार में शामिल हो गई हैं। लोकतंत्र की स्थापना के 20 बरस भी नहीं हुए और पूरी राजनीतिक व्यवस्था अपनी साख खो चुकी है।

ऐसे में जनता का क्षोभ और युवाओं का आक्रोश समझ आता है, खासतौर पर जब सरकार 20 युवाओं को पुलिस की गोलियों से भून दे। लेकिन इसकी तुलना श्रीलंका या बांग्लादेश में हुए सत्ता परिवर्तन से करना जल्दबाजी होगी। श्रीलंका का जनआंदोलन महीनों तक चला था। उसका शीर्ष राष्ट्रपति भवन के सामने था, लेकिन उस आंदोलन के जड़ें द्वीप के कोने कोने तक फैली हुई थीं।

पुलिस के सामने शहरी युवा थे, लेकिन उसका आधार चरमराती अर्थव्यवस्था के शिकार श्रीलंका के ग़रीब और अधीनस्थ वर्ग था। उसकी पृष्ठभूमि में एक वैचारिक आंदोलन था। बांग्लादेश में सत्तापलट भले ही नेपाल की तरह नाटकीय था, लेकिन उसके पीछे बहुत लंबी जद्दोजहद थी, प्रतिरोध की जड़ें बांग्लादेश के गाँव-गाँव तक थीं। इसका वैचारिक रुझान श्रीलंका के प्रतिरोध से उलट था। बांग्लादेश के सत्तापलट के पीछे सांप्रदायिक शक्तियां सक्रिय थीं, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इसमें भी बड़ी संख्या में जन भागीदारी थी।

नेपाल में अभी तक इस परिवर्तन का चरित्र स्पष्ट नहीं है। जेनजी के झंडे तले इकट्ठे हुए इन युवाओं का ना तो कोई संगठन है, ना ही कोई विचार। फ़िलहाल इसे एक और जनआंदोलन कहना मुश्किल है। हम यही जानते हैं कि आक्रोश का विस्फोट कुल मिलाकर काठमांडू घाटी तक सीमित था। अभी से कहना मुश्किल है कि बाक़ी देश में इसे कितना समर्थन है। ओली सरकार द्वारा युवाओं पर गोलियाँ चलाने के बाद अगले दिन जिस तरह से हिंसा और अराजकता का तांडव हुआ, उसमे जेनजी मुहिम का नेतृत्व बेबस नजर आया।

उस हिंसा ने आनन फानन में देश के राजनीतिक नेतृत्व को बेदखल कर दिया, उससे इस सत्तापलट के पीछे कुछ अदृश्य शक्तियों का हाथ होने का शक होता है। बेशक नई प्रधानमंत्री सुशीला करकी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुखर आवाज रही हैं। लेकिन ऐसा इस प्रतिरोध के बाक़ी नेताओं के बारे में कहना कठिन है। कुछ नेताओं का भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने का इतिहास है तो कुछ ख़ुद भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं।

नेपाल के राजनीतिक तंत्र के अचानक टूट जाने इस नाटकीय घटनाक्रम के पीछे तीन बाहरी शक्तियों की भूमिका पर नज़र रखनी जरूरी है-सेना, पूर्व राजा और विदेशी खिलाड़ी। अब तक नेपाली सेना ने नेपाल की राजनीति में बड़ी या बुरी भूमिका नहीं निभाई है, लेकिन इस प्रकरण में सेना को मिली जिम्मेदारी का इस्तेमाल जिस तरह राष्ट्रपति पर दबाव डालने के लिए किया गया वह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। नेपाल में यह किसी से नहीं छुपा कि सत्ताच्युत भूतपूर्व नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र नेपथ्य में रहकर अपनी वापिसी की संभावना तलाशते रहते हैं। और इस छोटे से पहाड़ी देश में पड़ौसी और महाशक्तियों की दिलचस्पी भी कोई नई बात नहीं है।

नई सरकार द्वारा संसद भंग करने का नेपाल की सभी प्रमुख पार्टियों ने विरोध किया है। लेकिन इन पार्टियों और नेताओं की साख इतनी गिर चुकी है कि उनके जाने पर कोई आँसू बहाने वाला नहीं होगा। लेकिन कहीं इस भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र की विदाई नेपाल में लोकतंत्र की विदाई तो साबित नहीं होगी? ऐसे तमाम प्रश्नों का उत्तर मिलने से पहले नेपाल की इस ‘क्रांति’ पर मुग्ध होने का वक्त नहीं आया है।

(योगेन्द्र यादव चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक चिंतक हैं)

First Published on: September 19, 2025 9:55 AM
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