भारतीय राजनीति में विचार और परिवारवाद का द्वन्द


अभिव्यक्ति की आजादी के साथ ही के साथ ही हमारा संविधान इंसान को अपनी पसंद का रोजगार चुनने की इजाजत भी देता है इसलिए किसी को राजनीति में आने से रोकने के लिए आदेशित नहीं किया जा सकता। ऐसा करना इसलिए भी व्यावहारिक नहीं होगा क्योंकि राजनीति में परिवार की भूमिका आज से नहीं कई युगों से बनी हुई है और देश का एक नहीं अपितु लाखों परिवार इससे जुड़े हुए हैं।



भारतीय राजनीति में विचार और परिवारवाद का द्वन्द हमेशा चर्चा का विषय बनता है। अभी कुछ दिन पहले ही किसी महफ़िल में राजनीति के परिवारवाद पर चर्चा हो रही थी। जाहिर ही बात है कि जब ऐसे किसी मुद्दे पर चर्चा होती है तो इस देश का एक ही राजनीतिक परिवार निशाने पर होता है। गुजरात के मोहन दास करमचंद गांधी और उत्तर प्रदेश के मोतीलाल नेहरु के परिवार को एक कर गाँधी-नेहरु परिवार नाम दे दिया जाता है और यह परिवार या तो खुद-ब-खुद निशाने पर आ जाता है।

आज यह मान कर चलने का चलन हो गया है कि अगर भारतीय राजनीति पर चर्चा हो तो देश के गाँधी- नेहरु परिवार को अलग कैसे किया जा सकता है। इस परिवार के बिना भारतीय राजनीति पर किसी तरह की चर्चा नहीं हो सकती। मोहन दास करमचंद गाँधी के परिवार से तो खैर राजनीति में कोई आगे आया ही नहीं हाँ, मोतीलाल नेहरु के परिवार की अगली पीढ़ी के जवाहर लाल नेहरु उनकी बेटी इंदिरा गाँधी और इंदिरा गाँधी के बेटे राजीव गाँधी, संजय गाँधी और इन दोनों की अगली पीढ़ी के राहुल गाँधी और वरुण गाँधी भी अपनी माताओं और बहन के साथ देश की राजनीति में सक्रिय हैं।

परिवार के राजनीतिक विस्तार से खिन्न कुछ लोगों ने सरकार को यह सुझाव दिया है कि भारत सरकार ऐसा कोई क़ानून बनाए जिसमें एक परिवार से एक या दो सदस्यों को ही राजनीति में सक्रिय होने की अनुमति हो। एक परिवार के एक या दो से ज्यादा सदस्य पार्टी के स्तर पर सक्रिय हो सकते हैं लेकिन संसद या विधान मंडल का चुनाव लड़ने की अनुमति तो बिलकुल न दी जाए। ऐसा कोई क़ानून तो शायद ही कभी बन सके क्योंकि हमारे देश का संविधान ही ऐसे किसी क़ानून की आज्ञा नहीं देता।

अभिव्यक्ति की आजादी के साथ ही के साथ ही हमारा संविधान इंसान को अपनी पसंद का रोजगार चुनने की इजाजत भी देता है इसलिए किसी को राजनीति में आने से रोकने के लिए आदेशित नहीं किया जा सकता। ऐसा करना इसलिए भी व्यावहारिक नहीं होगा क्योंकि राजनीति में परिवार की भूमिका आज से नहीं कई युगों से बनी हुई है और देश का एक नहीं अपितु लाखों परिवार इससे जुड़े हुए हैं।

नेहरु-गाँधी परिवार तो बस बदनाम है। राजनीति में परिवारवाद हमारे देश का एक अविभाज्य हिस्सा बन चूका है। यह सिलसिला देश के किसी एक इलाके तक ही सीमित नहीं है बल्कि देश के हर इलाके में इसके सूत्र किसी न किसी रूप में अवश्य देखे जा सकते हैं महाराष्ट्र से शुरुआत करें तो ठाकरे-पवार परिवार के रूप में यह सूत्र साफ़ दिखाई देता है।

दक्षिण भारत में करूणानिधि, नायडू, रामचंद्रन, येदिदुरप्पा, देवेगौडा, ओडिशा में पटनायक , बिहार में लालू यादव, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव से लेकर हरियाणा-पंजाब और हिमाचल तक चौटाला – बादल और धूमल तक अनेक रूपों में परिवारवाद के सूत्रों को आपस में पिरोया जा सकता है।

आजादी से पहले और आजादी के बाद की राजनीति ने कई तरह के बदलाव देखे हैं। पहले जो लोग सेवा भाव से राजनीती में आया करते थे वो अब इसे एक पेशा मानकर इसमें आते हैं। पिछले तीन-चार दशकों के पहले से ही जो लोग राजनीति में आते गए, उनमें से बहुतायत उन लोगों की है जो कुछ पाने की लालसा से ही राजनीति में आए।

परिवार व्यवस्था के कारण समाज का ताना-बाना खड़ा है, परंतु परिवारवाद व भाई भतीजावाद, जिस तरह से भारतीय राजनीति में घुन की तरह घुस गया है उससे राजनीति का लक्ष्य सत्ता व पद के प्रति लोलुपता हो गया है।

राजनीति में संतानों को मिलने वाले अवसर को वंशवाद या परिवारवाद के रूप में संबोधित किया जाता रहा है। गांधी-नेहरू परिवार से इंदिरा गांधी के राजनीति में आने के बाद से वंशवाद या परिवारवाद का मुद्दा उठता रहा है। राष्ट्रीय पार्टियों के 58 प्रतिशत कैंडिडेट राजनीतिक परिवार से हैं और राज्य आधारित पार्टियों के 14 प्रतिशत ही हैं।

हरियाणा में 50 प्रतिशत राष्ट्रीय पार्टियों का परिवारवाद तौ उसके एवज में 5 फीसद क्षेत्रीय पार्टियों का परिवारवाद। ये आंकड़ा कर्नाटक में 35 फीसद (राष्ट्रीय) और 13 फीसद (क्षेत्रीय) है। इसी के साथ, महाराष्ट्र में 35 फीसद (राष्ट्रीय) और 19 फीसद (क्षेत्रीय) है ओडिशा में 33 फीसद राष्ट्रीय और 15 फीसद क्षेत्रीय है। तेलंगाना में 32 प्रतिशत (राष्ट्रीय) और 22 प्रतिशत (क्षेत्रीय)।

यहां तक कि उत्तर प्रदेश में भी 28 प्रतिशत (राष्ट्रीय) और 18 प्रतिशत (क्षेत्रीय) है। स्वतंत्र भारत की राजनीति में परिवार व भाई भतीजे के अलावा बहुतेरे नेताओं को कुछ दिखता ही नहीं। दलों को छोड़ कर इस देश में एक भी ऐसी पार्टी नहीं है जो वंशवाद और का शिकार न हो। राष्ट्रीय दलों में, कांग्रेस सबसे अधिक वंशवादी है। 31 प्रतिशत उम्मीदवार राजनीतिक परिवार से थे।

भाजपा भी कांग्रेस का अनुसरण करनते हुए इस दिशा में आगे बढ़ रही है संसद और विधान मंडलों का टिकट पाने वाले भाजपाइयों में 22 प्रतिशत था। बीजेपी परिवारवाद के चलते ही आगे बढ़ सके हैं। राजनीतिक दलों में परिवारवाद का राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर प्रभाव इस तथ्य से समाझा जा सकता है कि जद (एस) में संसद और विधान मंडलों के (66%), शिरोमणि अकाली दल में (60%), राजद में (38 बीजेडी में (38% एसपी में (30%) टिकट परिवार के लोगों को ही दिए जाते हैं । इसके विपरीत वाम दलों में केवल पांच प्रतिशत टिकट ही नेताओं के परिवार वालों को मिल पाते है।

जनसंख्या की दृष्टि से भारत के सबसे बड़े राज्य, उत्तर प्रदेश में 1952 से लोकसभा के लिए चुने गए 51 राजनेता वंशवादी थे। ये आँकड़े किसी भी राज्य की तुलना में सबसे ज्यादा थे। यह स्थिति वर्तमान में भी लोकसभा चुनाव में देखी गई है जहाँ 80 सीटों में से 22 सांसद किसी न किसी राजनीतिक घराने से संबध पश्चिम बंगाल और पंजाब दोनों जगहों पर अपने संबंधित क्षेत्रीय दलों में राजनीतिक वंशों से सबसे अधिक प्रतिनिधि रहे हैं। जबकि 17वीं लोकसभा चुनाव में पंजाब से सर्वाधिक 62% सांसद राजनीतिक घराने से संबंधित हैं।

1952 के बाद सबसे लंबे समय तक सांसद रहे सोमनाथ चटर्जी राजनीतिक घरानों से ही संबंधित थे, इन्होंने लोकसभा में कुल 10 कार्यकाल पूरे किए जिसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सांसद के रूप में 9 तथा लोकसभा अध्यक्ष के रूप में 2004 में अपना आखिरी कार्यकाल पूरा किया। वहीं उनके पिता एनसी चटर्जी ने पश्चिम बंगाल के बर्दवान लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का तीन बार प्रतिनिधित्व किया। उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में सोमनाथ चटर्जी ने उनकी जगह ली थी।

मुलायम सिंह यादव ने 1992 में समाजवादी पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह के अलावा इनके पुत्र अखिलेश यादव मुख्यमंत्री का पद संभाल चुके हैं। इस प्रकार 1952 के बाद से, राजनीतिक वंशवाद राज्य-वार बढ़ा है लेकिन कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (संघ शासित क्षेत्रें) में इस दौरान कोई भी राजनीतिक वंश नहीं था। पूर्वोत्तर राज्यों में असम ही एकमात्र ऐसा राज्य था, जिसने राजनीतिक राजवंशों को अनुभव किया। यह राजनीतिक वंशों वाले राज्यों की रैंकिंग में आठवें स्थान पर आता है।

एक अध्ययन के अनुसार, मेडिकल और कानून जैसे अन्य कुलीन प्रोफेशन की तुलना में उस व्यक्ति के लिए राजनीति में प्रवेश की संभावना ज्यादा होती है जिसके पिता राजनेता होते हैं। राजनीति में वंशवादिता चुनावी खर्च का भी परिणाम है। दरअसल भारत में गत वर्षों में चुनाव खर्च लगातार बढ़ा है जिसके चलते राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्या अत्यंत गंभीर हुई है।

फिलीपींस के मनीला स्थित एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट पॉलिसी सेंटर के द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एशिया के सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों के कारण राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा मिलता है।