मसला कांग्रेस अध्यक्ष का नहीं, वैचारिक आधार और लोकतांत्रिक मूल्यों का है

प्रियंका गांधी ने नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के प्रस्ताव का समर्थन किया है। इससे पहले राहुल गांधी ने भी नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के किसी को अध्यक्ष बनाने की बात की थी। हालांकि गांधी परिवार के बाहर से किसी राजनेता को अध्यक्ष बनाए जाने के बाद कांग्रेस कितनी मजबूत होगी इसका आकलन नहीं किया जा सकता है। क्योंकि अब देश की राजनीति में कारपोरेट सलाहकारी की भूमिका में नहीं, आदेश देने की भूमिका में है। फिर कांग्रेस में मसला सिर्फ अध्यक्ष का पद नहीं है। पार्टी में बड़ा मसला लोकतांत्रिक-वैचारिक मूल्यों को संगठन के अंदर बहाल करने का है।

नेहरू-गांधी परिवार से अलग कोई कांग्रेस का अध्यक्ष बनेगा तो कांग्रेस के हालात सुधर जाएंगे, यह एक सपना ही है। कांग्रेस की समस्या निचले स्तर पर संगठन का खस्त हाल होना है। कांग्रेस की समस्या हाईकमान कल्चर है। कांग्रेस की समस्या राज्यों में बैठे क्षत्रप है। कांग्रेस की समस्या कांग्रेस के अंदर कारपोरेट की भारी घुसपैठ है। कांग्रेस की समस्या कागजी संगठन है। ऐसे में अगर गैर गांधी परिवार का कोई व्यक्ति कांग्रेस अध्यक्ष बनेगा तो भी हालात शायद ही सुधरे। क्योंकि कांग्रेस की संस्कृति को 1980 के दशक से खत्म करने की शुरूआत कर दी गई थी। आज कांग्रेस के बड़े नेताओं का राज्यों के नीचे स्तर के कार्यकर्ताओं से कोई संवाद नहीं है।

आजादी के बाद कांग्रेस में कई अध्यक्ष गैर नेहरू-गांधी परिवार से संबंधित रहे। पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी जब कांग्रेस में हावी थे तब भी अध्यक्ष पद पर दूसरे लोग बैठे। क्योंकि कांग्रेस में उस समय आंतरिक लोकतंत्र जिंदा था। जिनका नेहरू से विरोध रहा वे भी कांग्रेस के अध्यक्ष बने। पीडी टंडन इसके उदाहरण है। हां यह कह सकते है कि नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी के कार्यकाल में कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र समाप्त होने की शुरूआत हो गई थी।

1970 के दशक तक कांग्रेस राज में सरकार और संगठन का मुखिया कई बार अलग-अलग रहे। पट्टाभी सीतारमैया, पीडी टंडन, यूएन ढेबर, नीलम संजीव रेड्डी, के कामराज, एस निज्जलिंगप्पा, जगजीवन राम, शंकरदयाल शर्मा, देवकांत बरूआ आदि कांग्रेस अध्यक्ष हुए। ये लोग नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य नहीं थे। लेकिन बाद में इंदिरा गांधी सरकार की मुखिया और पार्टी की मुखिया दोनों पद हासिल कर लिया। इंदिरा गांधी 1984 तक प्रधानमंत्री रहते हुए खुद कांग्रेस अध्यक्ष भी रही।

राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री भी बने और खुद कांग्रेस अध्यक्ष का पद भी अपने पास रख लिया। लेकिन संगठन में लोकतंत्र खत्म करने में गांधी परिवार ही दोषी नहीं रहा। गैर गांधी परिवार के नरसिंह राव ने भी कांग्रेस के अंदर लोकतंत्र को समाप्त किया। वे प्रधानमंत्री भी रहे, पार्टी अध्यक्ष भी रहे। सत्ता का पूरी तरह से केंद्रीकरण उन्होंने किया। नरसिंह राव 1996 तक पार्टी अध्यक्ष रहे। नरसिंह राव के बाद सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष बने। उन्हें किस तरह से जलील कर कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाया गया, उसे पूरे देश ने देखा।

कांग्रेस की आयु इस समय 135 साल है। कांग्रेस के बतौर अध्यक्ष सोनिया गांधी का कार्यकाल सबसे ज्यादा है। वे 20 साल तक कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन रही। उनके कार्यकाल में कांग्रेस संगठन का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। हालांकि सोनिया गांधी के अध्यक्ष रहते उनकी पार्टी केंद्र में दस साल लगातार सत्ता में रही। लेकिन उनके कार्यकाल में पार्टी में लोकतंत्र पूरी तरह से खत्म हो गया। वैचारिक तौर पर कांग्रेस पूरी तरह से खत्म हो गई। इस दौरान कांग्रेस का संगठन इतना केंद्रीकृत हो गया कि कई राज्यों में स्थानीय स्तर पर कांग्रेस संगठन पूरी तरह से साफ हो गया।

सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस कुछ क्षेत्रीय क्षत्रपों औऱ सामंतों का संगठन बन गया। ये क्षेत्रीय क्षत्रप हाईकमान कल्चर के लॉयल रहे है। हालांकि हाईकमान कल्चर, कांग्रेस का मूल्य का क्षरण आदि के लिए बहुत हद तक जिम्मेवार 1991 का उदारीकरण भी है। क्योंकि लोकतांत्रिक मूल्य, समाजवाद जैसे शब्द कारपोरेट घरानों को रास नहीं आते। वैसे हाईकमान कल्चर की शुरूआत इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हो गई थी।

गांधी परिवार को इतिहास के पन्नों का अध्ययन करना होगा। कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र की मजबूती का एक आधार कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन रहा है। आजादी के पहले तो प्रति वर्ष कांग्रेस का अधिवेशन होता था। उसमें बकायदा अध्यक्ष चुने जाते थे। आजादी से पहले कुछ विशेष परिस्थितियो में ही सलाना अधिवेशन को रद्द किया गया। 1940 के कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन के बाद 1946 में कांग्रेस का अधिवेशन मेरठ में संपन्न हुआ। 1941 से 1945 के बीच अधिवेशन न होने का एक मुख्य कारण द्वितीय विश्व युद्ध भी रहा। आजादी के बाद भी कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन होता रहा। कभी कभार किसी परिस्थितियों में अधिवेशन दो साल बाद आयोजित हुआ।

लेकिन बाद में इंदिरा गांधी ने वार्षिक अधिवेशन को लेकर उदासीनता बरतनी शुरू कर दी।1978 में हुए 76 वें अधिवेशन के बाद 77 वां अधिवेशन 1983 मे हुआ। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री होने के बाद कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन को तिलांजलि दे दी गई। 1985 में कांग्रेस की स्थापना के 100 साल के उपलक्ष्य़ में कांग्रेस का 78 वां अधिवेशन मुंबई में हुआ। मुंबई अधिवेशन के बाद राजीव गांधी के कार्यकाल में कांग्रेस अधिवेशन हुआ ही नहीं। राजीव गांधी की मौत के बाद कांग्रेस में नरसिम्हा राव का राज आ गया। नरसिम्हा राव के कार्यकाल में 1992 में कांग्रेस का 79 अधिवेशन तिरूपति में आयोजित हुआ। नरसिंह राव विशेष अधिवेशन से काम चलाते रहे। इसके बाद कांग्रेस का पूर्ण अधिवेशन 1997 में सीताराम केसरी के कार्यकाल में हुआ।

कांग्रेस को सोचना होगा कि आखिरकार क्यों जमीन पर कांग्रेस का ढांचा गायब हो गया। 2014 के लोकसभा चुनावों में भी बुरी हार मिली। 2019 के आम चुनाव में भी बुरी हाल मिली। इसमे कोई शक नहीं कि सोनिया गांधी के कार्यकाल में कांग्रेस के अंदर आतंरिक लोकतंत्र खत्म हो गया। वैचारिक अवमूल्यन कांग्रेस के अंदर खासा हुआ। आर्थिक उदारीकरण ने कांग्रेस पर कारपोरेट कंट्रोल तय कर दिया था। कारपोरेट के प्रतिनिधि इंदिरा गांधी के कार्यकाल से ही कांग्रेस में घुसपैठ कर गए थे। लेकिन उदारीकरण के बाद कांग्रेस संगठन में कारपोरेट के प्रतिनिधि अपनी जगह बनाने में कामयाब हो गए।

उधर सोनिया गांधी बेशक कांग्रेस की अध्यक्ष बनी लेकिन उन्हें कांग्रेस की समाजवादी परंपरा, कांग्रेस के लोकतांत्रिक मूल्य और कांग्रेस के ढांचे की समझ काफी कमजोर रही है। उनक अध्यक्षता में कांग्रेस का 81 वां अधिवेशन बंगलौर में 2001 में आयोजित किया गया था। 2004 में कांग्रेस केंद्र में सत्ता में आ गई। सत्ता में आने के बाद 2006 में हैदराबाद में कांग्रेस का 82 वां अधिवेशन का आयोजन किया गया। लोगों को उम्मीद थी कि कांग्रेस के दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के बाद कांग्रेस संगठन में नेतृत्व और कार्यकर्ता के बीच संवाद बढेगा। क्योंकि सत्ता में आने के बाद इसके लिए संसाधन थे।

कई राज्यों में कमजोर हो चुकी कांग्रेस को और मजबूत करने का अच्छा मौका था। लेकिन सोनिया गांधी से ये मौका चूक गया। कई राज्यों में उनके क्षेत्रीय क्षत्रपों ने लोकतांत्रिक मूल्यों को समाप्त किया। कांग्रेस संगठन का मतलब सोनिया गांधी औऱ क्षेत्रीए क्षत्रप ही रह गए। 2006 के बाद 2010 में कांग्रेस 83 वां अधिवेशन आयोजित किया। इसके बाद 7 साल तक कांग्रेस का कोई पूर्ण अधिवेशन आयोजित नहीं हुआ। जबकि 2014 के चुनावों में कांग्रेस को बुरी हार मिली थी।

2019 में होने वाले आम चुनाव से पहले 2018 मे कांग्रेस का पूर्ण अधिवेशन आय़ोजित किया गया। इसी से सोनिया गांधी या उनके पुत्र राहुल गांधी की गंभीरता समझी जा सकती है। पार्टी में सुधार और संगठन की मजबूत के लिए चिंतन शिविरों का आयोजन करने की परंपरा शुरू हुई। लेकिन पार्टी चिंतन शिविर के फैसलों को लागू करने में विफल रही।

First Published on: August 20, 2020 10:54 AM
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