संविधान प्रदत्त अधिकारों से नहीं संघ की नकेल से संचालित होतेे राज्यपालों की अलोकतांत्रिक भूमिका


राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने तो रोमेश भंडारी को कहीं बहुत पीछे छोड़ दिया है। 70 साल के इतिहास में पहली बार किसी राज्यपाल ने विधानसभा सत्र बुलाने संबंधी कैबिनेट की सलाह नहीं मानी है। जबकि राज्यपाल कैबिनेट की सलाह मानने को बाध्य है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला अरूणाचल प्रदेश के एक मामले में आ चुका है।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
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फरवरी 1998 की बात है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार थी। कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। एकाएक खबर आयी कि कल्याण सिंह की सरकार को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर रोमेश भंडारी ने बर्खास्त कर दिया है। कल्याण सिंह की जगह जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बना दिया गया। वही जगदंबिका पाल जो इस समय भाजपा में है। सरकार की बर्खास्तगी के खिलाफ भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर हंगामा खड़ा कर दिया, लोकतंत्र की दुहाई दी, आंदोलन शुरू कर दिया। एकाएक रोमेश भंडारी खलनायक बन गए। खैर उन्होंने वो काम किया था जिसकी अनुमति भारतीय संविधान कतई नहीं देती है।

भाजपा उस समय पूरी तरह से संविधान प्रदत शासन के समर्थन में थी। इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी ने संविधान और लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए कल्याण सिंह सरकार की बर्खास्तगी के खिलाफ भूख हड़ताल शुरू कर दी। इस बीच हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप किया और रोमेश भंडारी के फैसले को गलत ठहराया। लोकतंत्र  की जीत हो गई थी। अटल बिहारी वाजपेयी ने भूख हडताल तोड़ दी। रोमेश भंडारी स्वतंत्र भारत के इतिहास में बदनाम राज्यपाल की सूची में नंबर-1 पर आते है। केंद्र के इशारे पर राज्यों की सरकारों को परेशान करने में उन्हें महारत हासिल थी।

शायद वर्तमान पीढ़ी को रोमेश भंडारी के बारे में ज्यादा जानकारी न हो। लेकिन राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने तो रोमेश भंडारी को कहीं बहुत पीछे छोड़ दिया है। उन्होंने तो वो कर दिया जो आजाद भारत के इतिहास में शायद ही किसी राज्यपाल ने किया हो। 70 साल के इतिहास में पहली बार किसी राज्यपाल ने विधानसभा सत्र बुलाने संबंधी कैबिनेट की सलाह नहीं मानी है। जबकि राज्यपाल कैबिनेट की सलाह मानने को बाध्य है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला अरूणाचल प्रदेश के एक मामले में आ चुका है।

2015 में अरूणाचल प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नबाम तुकी ने 14 जनवरी 2016 को विधानसभा सत्र बुलाने के लिए राज्यपाल को सिफारिश भेजी थी। लेकिन राज्य के राज्यपाल कुछ ज्यादा ही तेजी में थे। उन्होंने 14 जनवरी 2016 के बजाए 16 दिसंबर 2015 को विधानसभा का सत्र बुला लिया। इससे एक संकट पैदा हो गया। तुकी ने इसके विरोध में विधानसभा भवन पर ताला जड़ दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि मुख्यमंत्री की अनुसंशा के बगैर सत्र बुलाना असंवैधानिक है।

राजस्थान का मामला तो और दिलचस्प है। राज्यपाल तो संविधान के अनुच्छेद 174 को ही मानने को तैयार नहीं है। संविधान का अनुच्छेद 174 साफ शब्दों में कहता है कि राज्य कैबिनेट की अनुसंशा पर राज्यपाल सत्र बुलाएंगे। राज्यपाल की शक्तियां सत्र बुलाने के मामले में सिर्फ सुझावी है। अगर राज्यपाल अपनी मर्जी से सत्र बुलाने संबंधी कैबिनेट के फैसले नही मानेंगे तो कई राज्यो में अव्यवस्था आ सकती है। फर्ज करें अगर इसी तरह केंद्रीय कैबिनेट के सत्र बुलाने संबंधी फैसले को राष्ट्रपति न माने तो क्या होगा?

राजस्थान में राज्यपाल की भूमिका से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत खासे नाराज है। मुख्यमंत्री गहलोत विधायकों के साथ राजभवन पहुंच गए। धरना दे दिया। धरना देने के कारण वे भाजपा के निशाने पर है। भाजपा ने राजभवन में धरने की आलोचना की है। आरोप लगाया कि राज्यपाल को धरना देकर धमकाया जा रहा है। उधऱ मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भाजपा नेताओं को उनके पुराने आंदोलनों की याद दिला रहे है। राजस्थान में गर्वनर रहे बलिराम भगत का कार्यकाल भाजपा नेताओं को गहलोत याद दिलवा रहे है। उनके कार्यकाल के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरो सिंह शेखावत ने राजभवन में धरना दिया था। निश्चित तौर पर गहलोत का दायित्व है कि वे भाजपा के नेताओं को उनके लोकतांत्रिक आंदोलनों की याद दिलाए। भाजपा नेताओं को रोमेश भंडारी का कार्यकाल भी याद दिलाए। 

राज्यपाल की शक्तियों के दुरूपयोग की सारी सीमाएं एनडीए के शासनकाल में टूट गई है। नवंबर 2019 में महाराष्ट्र में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने रातो-रात भाजपा के देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला लिया। सुबह देवेद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी। 2018 में कर्नाटक में बहुमत न होने के बावजूद भाजपा के येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री की शपथ दिलवायी गई। इसमें राज्यपाल वजु भाई वाला की दिलचस्प भूमिका थी।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद जनता दल सेक्यूलर और कांग्रेस के बीच गठबंधन की सरकार बनाने पर सहमति बन गई थी। दोनों दलों ने बहुमत के लिए जरूरी विधायकों की सूची भी राज्यपाल को सौंप दी थी। इसके बावजूद राज्यपाल ने विधानसभा में सबसे बड़े दल भाजपा के नेता यदयुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी। यदयुरप्पा बहुमत सिद करने में विफल हो गए। क्योंकि वे जरूरी विधायक नही जुटा पाए। बहुमत सिद करने के लिए उन्हें कम समय मिला। बहुमत सिद करने से पहले ही विधानसभा में यदुयरप्पा ने भावुक भाषण देने के बाद इस्तीफा दे दिया।

अब यही मानकर चला जा रहा है कि राज्यपाल की नियुक्ति संविधान के पालन के लिए नहीं, केंद्र सरकार के आदेशों को मानने के लिए होती है। हालांकि संवैधानिक संस्थाओं को भारी नुकसान कांग्रेस के कार्यकाल में पहुंचाया गया। भाजपा के कार्यकाल में बस संवैधानिक संस्थाओं को नुकसान पहुंचाने की गति तेज कर दी गई है। कांग्रेस के जमाने में राज्यपाल राष्ट्रपति शासन लगाने के काम आते थे। अब राज्यपाल एक चुनी हुई सरकार को गिराकर, दूसरी चुनी हुई सरकार को बनवाने में काम आते है।