ग्रेटा धनबर्ग, रिहाना और मीना हैरिस ये तीन नाम एकाएक भारत में चर्चा का विषय बन गए। तीनों ने भारत में चल रहे किसान आंदोलन के समर्थन में मोर्चेबंदी की। निश्चित तौर पर एक स्वतंत्र औऱ मजबूत राष्ट्र को इनके ब्यानों पर जो प्रतिक्रिया देनी चाहिए, वो प्रतिक्रिया दी गई। भारत के विदेश मंत्रालय ने इतिहास की परंपरा को तोड़ते हुए व्यक्तिगत बयानों पर प्रतिक्रिया दी। दरअसल विदेशी लोगों के बयानों के बाद आयी सरकारी प्रतिक्रिया ने यह बता दिया कि विदेशी कूटनीति के मामले में विदेश मंत्रालय लगातार विफल होता नजर आ रहा है।
भारत की अंतराष्ट्रीय छवि खराब हुई है, इसमें कोई शक नहीं है। यही नहीं ग्रेटा और रिहाना के विचारों पर भारतीय विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया के बाद एक सवाल उठा है कि आखिर भारत किस आधार पर अमेरिका जैसे देश में नारा दे रहा था, ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’।
अब मामला यहीं तक नहीं है। मामला सिर्फ व्यक्तिगत बयानों तक नहीं रहा है। अब अमेरिकी सांसद भी भारत सरकार से किसान आंदोलन पर सवाल पूछ रहे है। डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता और यूएस कांग्रेसनल इंडिया कॉकस के उपाध्यक्ष ब्रैड शेरमैन ने कहा है कि भारत सरकार लोकतंत्र के मानकों को बरकरार रखे और प्रदर्शनकारियों को शांति से प्रदर्शन करने दे।
वैसे ग्रेटा थनबर्ग से ज्यादा मीना हैरिस का ट्वीट मायने रखता है, जिसमें मीना हैरिस ने लिखा कि ‘यह कोई संयोग नहीं है कि एक महीने से भी कम समय पहले दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र पर हमला हुआ था और अब हम सबसे बड़ी आबादी वाले लोकतंत्र पर हमला होते देख रहे है।. यह एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। हम सभी को भारत में इंटरनेट शटडाउन और किसान प्रदर्शनकारियों पर सुरक्षाबलों की हिंसा को लेकर नाराज़गी जतानी चाहिए’।
अगर रिहाना औऱ मीना हैरिस के ब्यानों की तुलना करे तो मीना हैरिस के बयान भारत के लिए ज्यादा चिंताजनक है। क्योंकि रिहाना ने सीएनएन की खबर पर प्रतिक्रिया देते हुए टिवट किया था कि ‘इस बारे में कोई बात क्यों नहीं कर रहा है’?
दरअसल किसी भी मुल्क के आंतरिक मामलों में विदेशी लोगों, विदेशी संस्थाओं और सरकारों दवारा दिए गए बयानों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए यह देखना होगा कि क्या ग्लोबल पूंजीवादी दुनिया में बदलते मूल्यों के बीच किसी मुल्क का कोई मामला वाकई में आंतरिक रह सकता है? दुनिया में ग्लोबल मूल्यों की जोरदार पैरवी हो रही है। पूंजी ग्लोबल हो चुका है और इससे आने वाला मुनाफा भी ग्लोबल हो गया है। पूंजी और मुनाफे ने दुनिया भर में असमानता पैदा किया है, शोषण को बढ़ाया।
ग्लोबल पूंजीवाद और उदारवाद के दौर में मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले बढ़ गए है। दुनिया भर में एक बड़ी आबादी शोषण का शिकार है, मानवाधिकारों के उल्लंघन का शिकार है। निश्चित तौर पर ग्रेटा धनबर्ग, मीना हैरिस और रिहाना का किसान आंदोलन से संबंधित बयान अगर किसी मुल्क की संप्रभुता से जोड़कर देखेंगे तो यह आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है।
लेकिन स्वतंत्र देश आंतरिक मामलों में मूलभूत मानवाधिकारों की जब बात आती है तो यह आंतरिक मामला नहीं रहता है। इस बात पर बहस जरूर हो सकती है कि किसान आंदोलन के दौरान क्या सरकार ने मानवाधिकार का हनन किया?
अगर स्वतंत्र देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करते हुए ब्यान देना अंतराष्ट्रीय नियमों और मानकों के खिलाफ है तो यही नियम भारत पर भी लागू होगा। भारत को भविष्य में कई मुल्कों के आंतरिक मामलों पर टिप्पणी करते हुए खासा ध्यान रखना होगा। हाल ही में म्यांमार में तख्ता पलट हुआ है। सेना ने वहां चुनी हुई सरकार को नजरबंद कर दिया है। सेना ने शासन संभाल लिया है। इस पर भारत की प्रतिक्रिया म्यांमार के आंतरिक मामले में सीधा हस्तक्षेप माना जाएगा।
म्यांमार में हुए तख्ता पलट पर विदेश मंत्रालय ने अपने बयान में कहा है कि ‘म्यांमार का घटनाक्रम चिंताजनक है। म्यांमार में लोकतांत्रिक परिवर्तन की प्रक्रिया में भारत ने हमेशा अपना समर्थन दिया है। हमारा मानना है कि क़ानून का शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बरकरार रखना चाहिए। हम स्थिति पर नज़र रख रहे हैं।‘ लेकिन अकेले म्यांमार ही क्यों ? श्रीलंका एक और उदाहरण है।
अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिए गए एक बयान की बात करें तो इसे श्रीलंका की चुनी हुई सरकार अपने आतंरिक मामले में हस्तक्षेप बता सकती है। बीते साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रीलंका की नई सरकार से अपील की थी कि ‘वे तमिलों की आकांक्षाओं का सम्मान करे। उनकी समानता, न्याय, शांति और प्रतिष्ठा के लिए संविधान के प्रावधानों को पूरी तरह से लागू करे।‘
श्रीलंका और म्यांमार पर भारत के दिए गए बयान से आगे बढ़िए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सितंबर 2019 में अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में आयोजित हाउडी मोदी कार्यक्रम में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की प्रशंसा करते हुए कहा था कि ‘अबकी बार, ट्रम्प सरकार।‘ इस पर ट्रंप खुश होकर मुस्कुरा दिए थे।
निश्चित तौर पर ट्रंप के लिए बैटिंग कर रहे मोदी के इस नारे के बाद वहां के डेमोक्रेट हैरान थे, परेशान थे। क्योंकि मोदी के कार्यक्रम में डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक भी मौजूद थे। मोदी का ब्यान ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ क्या अमेरिका के लोकतांत्रिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं था?
समय बदला है, अब ट्रंप विरोधी कमला हैरिस अमेरिका की उप राष्ट्रपति है, जिसका भारत से गहरा नाता है। बदलती परिस्थितियों में कमला हैरिस की भांजी मीना हैरिस अगर किसान आंदोलन पर कोई ब्यान दे रही है तो इसपर गहन चिंतन भारतीय विदेश मंत्रालय को करना चाहिए। आखिर मोदी को भारतीय विदेश मंत्रालय ने हुस्टन में लक्ष्मण रेखा लांघने से क्यों नहीं रोका था ?
अब विदेशियों की प्रतिक्रिया पर विदेश मंत्रालय को क्यों परेशान है ? हाल ही में कैपिटल हिल पर ट्रंप समर्थकों ने हमला किया था। इस पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने ट्ववीट में लिखा, ‘वाशिंगटन डीसी में हिंसा और उपद्रव की खबरों से उन्हें दुख पहुंचा है। सत्ता का ट्रांसफर सही और शांतिपूर्ण ढंग से होना जरूरी है। इस तरह के प्रदर्शनों के जरिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता है।‘
जिस तरह से मोदी अमेरिकी लोकतंत्र की चिंता अपने बयानों में कर रहे है, उसी तरह से मीना हैरिस भी अपने बयानों में भारतीय लोकतंत्र की चिंता कर रही है। रेहाना और ग्रेटा के बयानों पर विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया ने भारत की कमजोरियों को सामने ला दिया है।
विदेश मंत्रालय ने किसी व्यक्ति विशेष के बयान पर प्रतिक्रिया देकर गरिमामय परंपरा को तोड़ दिया है। विदेश मंत्रालय को तभी प्रतिक्रिया देनी चाहिए जब किसी मुल्क के तरफ से कोई आधिकारिक बयान किसान आंदोलन को लेकर आता है।
वैसे रेहाना और ग्रेटा से ज्यादा चिंता का विषय मीना हैरिस का बयान है। मीना हैरिस कमला हैरिस की भांजी है। मीना हैरिस की आलोचना अमेरिकी डेमोक्रेट की सोच को दिखा रहा है, अभी सत्ता में आए है। यह भारत के लिए अच्छे संकेत नही है। कहने के लिए ही यह मीना हैरिस का पर्सनल बयान है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मीना हैरिस कमला हैरिस की भांजी है। मीना हैरिस के बयान अमेरिकी डेमोक्रेट की सोच के रुप में ले तो ज्यादा बेहतर होगा।