नहीं रही समाज में कभी ‘मातृसत्तात्मक व्यवस्था’ !

डॉ. आकांक्षा
मत-विमत Updated On :

सभ्यता के आरंभिक इतिहास से यह ज्ञात होता है कि मानव समाज गुफाओं और कंदराओं में रहा करता था। मनुष्य (स्त्री-पुरुष) आखेट/शिकार करके अपना जीवन यापन किया करते थे। धीरे-धीरे स्त्री-पुरुष छोटे-छोटे समूह बनाकर रहने लगे और यही समूह आगे चलकर कबीले में रुपांतरित हो गया।

यही युग इतिहास में कबीलाई-युग के नाम से जाना जाता है। इस युग में पुरुष-वर्ग का महिलाओं के जीवन, रहन-सहन आदि पर पूर्णरुपेण वर्चस्व नहीं हो पाया था और महिलाओं की यौनिकता पर भी किसी का ‘अधिकृत नियंत्रण’ नहीं था। यह इस युग की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी।

इस युग में बच्चों की पहचान मां के आधार पर ही होता था। अत:, वंश भी माता के माध्यम से ही चलता था। पर, स्त्रोतों के अनुसार अधिकांश मामलों में निर्णय संबंधी कार्य, प्रबंधन का कार्य आदि पुरुषों के हाथ में होता था। इस समाज में संपत्ति का हस्तांतरण नहीं किया जाता था । धीरे-धीरे कृषि का विकास हुआ।

वस्तुओं के संग्रहण ने निजी- संपत्ति की अवधारणा को भी जन्म दिया। निजी-संपत्ति की अवधारणा के उदय से इस बात की जरूरत महसूस हुई कि संग्रह की गई चीजों अर्थात, संपत्ति को उनके ही समूह के किसी सदस्य को हस्तांतरित किया जाए। लेकिन, यह अनिवार्य था कि जो संपत्ति माता की है सिर्फ वही हस्तांतरित किया जाए । इस समाज व्यवस्था को ही ‘मातृवंशात्मक व्यवस्था’ के नाम से जाना जाता है।

इस व्यवस्था को ही अधिकांशत: लोग ‘मातृसत्तात्मक व्यवस्था’ के रुप में व्याख्यायित करते हैं जबकि यह गलत है। मातृसत्तात्मक व्यवस्था का अर्थ यह है, सत्ता पूरी तरह से महिलाओं के हाथ में होना । जबकि, मातृवंशात्मक व्यवस्था में सिर्फ व्यक्ति की पहचान माता के वंश के आधार पर होता है। सत्ता पूर्णरुप से महिलाओं के पास नहीं होती है। विश्व के कई देशों में भी यह परंपरा रही है।

भारतीय संदर्भ में भी हम मेघालय की खासी और गारो जनजातियों को देख सकते हैं। केरल के नायर जातियों की ‘तारवाड़ व्यवस्था’ को भी हम इसी के अंतर्गत रख सकते हैं। गारों जनजाति में परिवार मातृवंशीय होता है। इस जनजाति के लोग अपना मूल पूर्वज महिला को ही मानते हैं। संपत्ति की अधिकारी भी बेटियां ही होती हैं। इस व्यवस्था के अनुसार परिवार की किसी भी बेटी को संपत्ति का उत्तराधिकारी चुना जा सकता है पर, आमतौर पर व्यवहार में ऐसा नहीं होता है।

संपत्ति की उत्तराधिकारी परिवार की सबसे छोटी बेटी होती है। इसी तरह खासी जनजाति नें भी वंश परंपरा स्त्री-पूर्वज के आधार पर ही चलता है। खासी समुदाय के अंतर्गत एक परिवार में माता, अविवाहित बच्चे, विवाहित बेटियां और उसका पति रहता है। परिवार में किसी महिला सदस्य न होने की स्थिति में लड़कियों को गोद लेने की परंपरा है ताकि, वंश प्रक्रिया की निरंतरता बनी रहे। इस जनजाति में परिवार की छोटी बेटी को ज्यादा सम्मान मिलता है और इसीलिए संपत्ति की उत्तराधिकारिणी भी वही होती है। सतही तौर पर देखने में तो यह स्पष्ट होता है कि इस समाज की महिलाओं की स्थिति बहुत ही सम्मानजनक है।

सत्ता भी महिलाओं के ही हाथ में है पर, वास्तविक स्थिति कुछ और ही है। इस समाज में रह रही महिलाएं भी उसी तरह अपने परिवार/समाज के पुरुषों के शोषण का शिकार हैं जैसा कि अन्य समाज की महिलाएं । हां, इनके शोषण का स्वरुप थोड़ा अलग है।

खासी महिलाओं के बीच इस तरह की समस्याओं का सबसे महत्वपूर्ण कारण उसके परिवार के पुरुष सदस्यों का अत्याधिक नशा करना । नशे में वह असंयमित हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में कई बार संबंधों को बचा पाना भी असंभव हो जाता है। इसके अलावा,उस समाज के लोगों के अनुसार, अकसर जायदाद के लालच में बाहरी लड़के, जिसमें से ज्यादातर मैदानी क्षेत्र से आए हुए होते हैं वे खासी समाज की छोटी लड़कियों से प्रेम का नाटक करके शादी करते हैं। बाद में बेहतर जिंदगी का लालच देकर सारा जायदाद अपने कब्जे में कर लेते हैं।

बेहतर जिंदगी का स्वप्न देखती ये लड़कियां उनके झांसे में आ जाती है फिर,वह पुरुष दूसरा विवाह कर लेता है या फिर तलाक देकर उसका मनोबल तोड़ देता है। ऐसी स्थिति में अकसर मां-बाप छोटी बेटी को कहीं ऐसे सुरक्षित स्थान पर तब तक छिपाए रखते हैं जब तक उनकी पसंद और संतोषजनक लड़का दामाद के रुप में उनको नहीं मिल जाता है। इस तरह से छोटी बेटी की स्थिति ‘सोने की चिड़िया’ जैसी हो जाती है और शादी से पहले घर रूपी पिंजड़े में कैद रहने को मजबूर होती है। केरल की नायर जाति में भी मातृंवशात्मक व्यवस्था रही है। यहां भी संपत्ति की उत्तराधिकारी बेटी ही होती है। लेकिन, तमाम निर्णय प्रक्रिया में पुरुषों, खासकर मामा का वर्चस्व होता है।

यहां इस व्यवस्था को ‘तारवाड़ व्यव्स्था’ कहा जाता है। ‘तारवाड़ व्यवस्था’ में पुरुष की ही तरह स्त्री को भी विवाह के समय अपना मायका छोड़कर नहीं जाना होता है । पुरुष अपनी पत्नी के घर में रात बिताकर सुबह अपने घर लौट जाता है । इस तरह से स्त्री अपने मायके से अलग नहीं की जाती। बच्चे का भी अपनी माता के साथ अपने मातृवंशीय नातेदारों के साथ रहने का प्रचलन रहा है। आमतौर पर माना जाता है कि इस समाज व्यवस्था में बड़ी बेटी को ज्यादा महत्व दिया गया है।

निर्णय लेने तथा सम्मान पाने की अधिकारिणी वही होती है यानी, सत्ता उसी के हाथ में होती है। वही किसी को भी संपत्ति हस्तांतरित कर सकती है। लेकिन, इन संपत्तियों का प्रबंधन पुरुष सदस्यों जैसे, नानी के भाई, मां का भाई आदि के हाथ में होता है। प्रत्येक संपत्ति समूह को नियंत्रित करने वाला एक पुरुष होता है जिसे ‘कार्णवर’ कहा जाता है।

संपत्ति बेचने का अधिकार भले ही ‘कार्नवार’ को न हो पर व्यवहारिकता में निर्णय लेने का अधिकांश काम उनके द्वारा ही किया जाता है । हलांकी, अब इस ‘तारवाड़-व्यवस्था’ में भी समय के साथ कुछ बदलाव हुए हैं। विवाह-व्यवस्था में बुजुर्ग महिलाएं निर्णायक भूमिका निभाती हैं। प्रथम विवाह (स्पष्ट होता है कि इस समय बहुविवाह का भी प्रचलन रहा है ) में समूह की हर महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। पर, अन्य वैवाहिक संबंध प्राय: व्यक्ति अपनी इच्छा से बना सकता था।

वैवाहिक विवादों में प्राय: पुरुष से यह सवाल पूछे जाते रहे हैं कि, क्या अपनी पत्नी के घर उसे शाम के समय संतोषजनक मात्रा में अच्छा खाना मिलता है? इस तरह के तमाम संकेत मिलते हैं जिससे एक भ्रम की स्थिति बनती है कि यहाँ के समाज में महिलाओं का ही वर्चस्व है या सत्ता उन्हीं के हाथ में है पर, वास्तविकता कुछ और ही है।

विभिन्न समाजों में मातृवंशीय परंपरा की विद्यमानता से तो सैद्धांतिक रूप से यह कहा जा सकता है कि मातृवंशीय समाज में महिलाओं का स्थान श्रेष्ठ होता है लेकिन, व्यावहारिक स्थिति का आंकलन करने से यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि अंतत:, निर्णय और प्रबंधन के सारे अधिकार पुरुषों के ही हाथ में रहते हैं।