ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट का यह राजनीतिक षड़यंत्र है, विद्रोह नहीं


स्वतंत्रता आंदोलन से पहले कांग्रेस पार्टी में आंतरिक टकराव होते रहे। कांग्रेस में राइट और लेफ्ट दोनों ग्रुप थे। उनके बीच वैचारिक मतभेद थे। लेकिन तब इस कदर सत्ता लोलुपता तो नहीं थी। सुभाष चंद्र बोस के महात्मा गांधी से वैचारिक विरोध थे। वे भी कांग्रेस से निकल गए। नरेंद्र देव से लेकर वीपी सिंह तक कांग्रेस छोड़ने वालों की एक लंबी सूची है।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
मत-विमत Updated On :

राजस्थान के राजनीतिक घटनाक्रम ने भारतीय लोकतंत्र की असली तस्वीर को एक बार फिर जनता के सामने रख दिया है। विधायकों से पूछताछ के लिए पुलिस जा रही है। विधायकों के खरीद फरोख्त से संबंधित ऑडियो वायरल हो रहे हैं। ये घटनाक्रम यह बताने के लिए काफी है कि लोकतंत्र में अब विचारधारा और नैतिकता खत्म हो चुकी है। संविधान के मूल्य ताक पर रखे जा रहे है। पद और पैसा के लालच में लोकतंत्र को तार-तार किया जा रहा है। कोई भी राजनीतिक दल इससे अछूता नहीं है। ए पार्टी विद डिफरेंस ने तो सत्ता पाने के लिए अनैतिकता में कांग्रेस को बहुत पीछे छोड़ दिया है। अहम सवाल यह है कि देश की जनता अपने लिए कैसा प्रतिनिधि चुन रही है? क्या हम वैसे नेता को चुन रहे है जो सीधे पैसे और सत्ता के लालच में बिक रहे हैं।पार्टियों से विद्रोह तो पहले भी हुए हैं। बड़े-बड़े राजनेता शीर्ष नेतृत्व से वैचारिक मतभेद होने पर पार्टी छोड़ते रहे हैं।

स्वतंत्रता आंदोलन से पहले कांग्रेस पार्टी में आंतरिक टकराव होते रहे। कांग्रेस में राइट और लेफ्ट दोनों ग्रुप थे। उनके बीच वैचारिक मतभेद थे। लेकिन तब इस कदर सत्ता लोलुपता तो नहीं थी। सुभाष चंद्र बोस के महात्मा गांधी से वैचारिक विरोध थे। वे भी कांग्रेस से निकल गए। लेकिन उनका उद्देश्य आजादी हासिल करना था। आजादी के बाद कांग्रेस में कई विद्रोह हुए। नरेंद्र देव से लेकर वीपी सिंह तक कांग्रेस छोड़ने वालों की एक लंबी सूची है। कई नेताओं ने वैचारिक आधार पर कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह किया। लेकिन विद्रोह का उद्देश्य पद और पैसे की लालसा नहीं थी। लेकिन अब तो सारा कुछ बदला हुआ है। अब तो विद्रोह ही पैसे और सत्ता के लिए है।  

आजादी के बाद आचार्य नरेंद्र देव ने कांग्रेस से विद्रोह किया था। लेकिन नरेंद्र देव का विद्रोह सत्ता के लिए नहीं था। उनका विद्रोह वैचारिक था। शायद सचिन पायलट को कांग्रेस का इतिहास नहीं पता। वैसे भी ज्यादातर कांग्रेस के वर्तमान अंग्रेजीजादा युवा नेताओं को कांग्रेस का इतिहास नहीं पता है। जब नरेंद्र देव ने कांग्रेस छोड़ी और नई पार्टी बनाने का फैसला लिया तो सबसे पहले यूपी विधानसभा से इस्तीफा दिया।

आचार्य नरेंद्र देव यूपी विधानसभा में कांग्रेस की टिकट पर जीतकर आए थे। उनकी राय थी जब वे पार्टी छोड़ रहे है और नई पार्टी बना रहे हैं तो कांग्रेस के टिकट पर जीतकर आए विधानसभा से इस्तीफा देना सबसे बड़ी नैतिकता है। हालांकि कांग्रेस ने उन पर त्यागपत्र देने का कोई दबाव नहीं था। उस जमाने में दलबदल विधेयक भी लागू नहीं होता था। लेकिन नरेंद्र देव ने नैतिकता के आधार पर सदस्यता छोड़ी। अगर सचिन पायलट मुद्दों और विचारधारा को लेकर अशोक गहलोत से खफा थे तो उन्हें पहले मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देना चाहिए था। डिप्टी सीएम की कुर्सी छोड़नी चाहिए थी। विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देते। फिर सरकार गिराने के लिए मुहिम चलाते।

वैसे तो कांग्रेस से विद्रोह जयप्रकाश नारायण ने भी किया। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस सरकार की नीतियों से उनकी असहमति थी। उनकी नजर पंडित जवाहर लाल नेहरू या इंदिरा गांधी की कुर्सी पर नहीं थी। कांग्रेस में युवा तुर्क के रूप मे पहचान रखने वाले चंद्रशेखर ने कांग्रेस छोड़ी थी। क्योंकि इंदिरा गांधी से उनका वैचारिक विरोध था। वे इंदिरा गांधी को काफी ज्यादा प्रगतिशील देखना चाहते थे। इंदिरा गांधी इसके लिए शायद तैयार नहीं थी। चंद्रशेखर ने इंदिरा गांधी के खिलाफ विद्रोह करते हुए कभी यह नहीं सोचा था कि इंदिरा गांधी को हटाकर वे प्रधानमंत्री बनेंगे। कांग्रेस में वीपी सिंह ने भी विद्रोह किया। वीपी सिंह बेशक प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन वीपी सिंह की छवि बेदाग रही। वे भ्रष्टाचार के विरोध में कांग्रेस से विद्रोह कर बाहर निकले थे। लेकिन वर्तमान विद्रोहों में सीधे तौर पर धन-बल-छल नजर आ रहा है।

सचिन पायलट अपने पिता स्वर्गीय राजेश पायलट के राजनीतिक जीवन से सीखे लेंगे तो उन्हें काफी कुछ समझ मे आएगा। राजेश पायलट का राजनीतिक जीवन काफी लंबा रहा। वे राजीव गांधी के साथ रहे। फिर नरसिंह राव के साथ भी रहे। नरसिंह राव के साथ उनका टकराव भी रहा। वे नरसिंह राव के मंत्रिमंडल में शामिल थे। लेकिन अपनी छवि विद्रोही की रखना चाहते थे। लेकिन विद्रोही की छवि रखने के बाद भी वे मंत्री बने रहना चाहते थे। वे नरसिंह राव के कार्यकाल में तमाम तिकड़म लगाते रहे।

नरसिंह राव के कार्यकाल में राजेश पायलट एक बार पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के पास राजनीतिक चर्चा कर रहे थे। जानकारों के अनुसार चंद्रशेखऱ ने उन्हें साफ शब्दों में कहा था कि पद की लालसा और विद्रोह दोनों एक साथ राजनीति में नहीं होती है। पद का त्याग करने वाला ही विद्रोह करने की स्थिति में होता है। राजेश पायलट समझदार थे। वे नरसिंह राव के मंत्रिमंडल में आराम से बने रहे। जब नरसिंह राव ने बहुत ही तरीके से अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी और माधव राव सिंधिया जैसे नेताओं को किनारे लगाया तो राजेश पायलट एक चतुर राजनेता की तरह चुप रहे। राजेश पायलट नरसिंह राव के कार्यकाल में असंतुष्ट रहते हुए मंत्री पद पर बने रहे। लेकिन आज सचिन पायलट माधव राव सिंधिया के बेटे के ज्योतिरादित्य की राह पर चलने की कोशिश कर रहे है। सवाल तो यही है कि जब राजेश पायलट उस समय माधव राव सिंधिया की राह पर नहीं गए, उनके बेटे सचिन पायलट ने किसकी सलाह पर ज्योतिरादित्य की राह चुनी ?

राजनीति में लंबे समय तक पारी खेलने के लिए सहनशक्ति और धैर्य की जरूरत होती है। विषम परिस्थितियों में धैर्य रखना ही कुशल राजनीतिज्ञ होता है। इसके एक उदाहरण प्रणब मुखर्जी हैं। प्रणब मुखर्जी ने अपने राजनीतिक जीवन में दो बार विपरीत परिस्थितियों का सामना किया। एक बार तो कांग्रेस को उन्होंने मजबूरी में छोड़ा। वे कांग्रेस छोड़ना नहीं चाहते थे, लेकिन राजीव गांधी के करीबियों ने उन्हें कांग्रेस छुड़वा दी थी। राजीव गांधी के करीबी दोस्तों ने प्रणब मुखर्जी के खिलाफ जमकर साजिश की। प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस पार्टी छोड़कर जाना पड़ा। क्योंकि उसी दौरान राजीव गांधी के करीबी टोली ने इंदिरा गांधी के खास आरके धवन के खिलाफ भी साजिश की थी। उन्हें भी बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। लेकिन राजीव गांधी के रहते ही प्रणब मुखर्जी की वापसी कांग्रेस में हो गई। राजीव गांधी के निधन के बाद नरसिंह राव के कार्यकाल के शुरूआती दौर में तो प्रणब मुखर्जी को खासा अपमानित होना पड़ा। मुखर्जी को उम्मीद थी उन्हें नरसिंह राव अपने शपथ ग्रहण के साथ ही मंत्रिमंडल में शामिल करेंगे। 

पार्टी को उम्मीद थी कि मुखर्जी वित्त मंत्री बनेंगे। लेकिन प्रणब मुखर्जी की जगह नरसिंह राव ने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बना दिया। प्रणब मुखर्जी का धैर्य तब भी देखने वाला था। नरसिम्हा राव ने मुखर्जी को खासा इंतजार करवाया। बाद में जाकर उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया। प्रणब मुखर्जी की भी इच्छा थी कि वे प्रधानमंत्री बनें। कई बार मौका भी उनके लिए आया लेकिन वे प्रधानमंत्री बनने से रह गए। 2004 में एक बार मौका आया था कि वे वरिष्ठता के आधार पर भारत के प्रधानमंत्री बनते। लेकिन उनकी जगह मनमोहन सिंह को कांग्रेस पार्टी ने प्रधानमंत्री बनाया। फिर भी मुखर्जी का धैर्य देखने वाला था। राजनीति में धैर्य का परिणाम देखने वाला होता। बाद में यही प्रणव मुखर्जी भारत के राष्ट्रपति बन गए। हालांकि सोनिया गांधी की इच्छा थी कि हामिद अंसारी राष्ट्रपति बने।