आज जो कुछ देश में हो रहा है उसे भारत के स्वधर्म पर हमला कैसे कहा जा सकता है? इस लेख की पिछली 3 कडिय़ों में हमने यह देखा कि आज की परिस्थिति के मूल्यांकन की कसौटी कोई एक किताब या विचारधारा या किसी व्यक्ति के विचार नहीं हो सकते। भारत का स्वधर्म ही आज देश के हालात को समझने की कसौटी हो सकता है। हमने यह भी देखा कि करुणा, मैत्री और शील का त्रिवेणी संगम भारत के स्वधर्म को परिभाषित करता है।
समाजवाद, सैकुलरवाद और लोकतंत्र हमारी सभ्यता के इन 3 आदर्शों के आधुनिक स्वरूप हैं। तो क्या आज इन 3 मूल्यों पर हमला हो रहा है? कितना खतरनाक है यह हमला? ऐसे में हमारा धर्म क्या है? आजादी के बाद भारत के स्वधर्म की चिंता करने वाले हर व्यक्ति को शुरूआत साफगोई से करनी चाहिए। सच यह है कि पिछले 75 वर्षों में इस देश में भारत के स्वधर्म के साथ कभी भी न्याय नहीं हुआ। सत्ता चाहे जिस पार्टी की हो, उसने धर्म के नाम पर अधर्म का ही प्रसार किया है।
ऐसे में समझना होगा कि आज जो कुछ हो रहा है उसे सबसे घातक हमला कैसे कहा जा सकता है? सबसे पहले मैत्री के आदर्श को लें, जिस पर हमारा सर्वधर्म समभाव का ढांचा टिका है। विभाजन की विभीषिका से पैदा हुए इस देश के लिए अगर कोई सबसे बड़ी चुनौती रही है तो वह सांप्रदायिक सद्भाव, खास तौर पर हिंदू-मुस्लिम एकता को बनाए रखने की रही है। पिछले 75 वर्षों में इस आदर्श पर बार-बार कुठाराघात हुआ। हिंदू-मुस्लिम एकता को चुनौती देने वाली तमाम घटनाओं और दंगों के अलावा ऐसी बड़ी वारदातें भी हुईं जिनमें पुलिस प्रशासन और नेता एकतरफा भूमिका में खड़े हुए।
चाहे 1984 में सिखों का नरसंहार हो या फिर नेल्ली, मलियाना या गुजरात का कत्लेआम हो या फिर कश्मीरी पंडितों का मजबूरन पलायन, यह सब भारत के स्वधर्म पर हुए हमले थे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मैत्री के आदर्श और सर्वधर्म समभाव के संवैधानिक मूल्य पर जैसा हमला हुआ वह अभूतपूर्व है। पहली बार नागरिकता कानून में संशोधन कर धर्म के आधार पर दो दर्जे की नागरिकता बनाई गई है। पहली बार सार्वजनिक मंच से धर्म के नाम पर नरसंहार का आह्वान किया जा रहा है, सड़कों पर पहचान कर लिंचिंग हो रही है, धार्मिक भेदभाव को अपवाद की जगह सामान्य नियम बनाया गया है, सत्ता के शीर्ष से खुल्लमखुल्ला अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ जनमत को भड़काया जा रहा है।
पहली बार सभी धर्मों को बराबर स्थान देने की बजाय एक समुदाय के बोलबाले वाले के सिद्धांत को प्रतिष्ठित किया जा रहा है। घर में आग लगाकर वोट की रोटी सेंकने की देशद्रोही राजनीति का बोलबाला है। करुणा का आदर्श लोक कल्याण, अंत्योदय और समाजवाद के विचार के मूल में है। बेशक आजाद भारत में इस आदर्श की भी अवहेलना हुई है। 75 वर्ष बाद भी गरीबी, भुखमरी और कुपोषण का होना समता के आदर्श पर धब्बा है। लेकिन यहां भी पिछले 8 साल में अभूतपूर्व गिरावट आई है।
हाल ही में सार्वजनिक हुए आंकड़ों से पता लगता है कि दशकों तक कुपोषण और भुखमरी में हुई गिरावट के बाद पहली बार इसका अनुपात बढ़ा है, बेरोजगारी ने रिकार्ड बना दिया है, एक झटके में 5 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिए गए हैं। लॉकडाऊन के बाद दो बरस में देश के 97 प्रतिशत परिवारों की आमदनी घटी, लेकिन पिछले अढ़ाई साल में प्रधानमंत्री के खासमखास गौतम अडानी की संपत्ति 66 हजार करोड़ रुपए से बढ़कर 12 लाख करोड़ रुपए हो गई।
मतलब सिर्फ बढ़ी नहीं, बल्कि 18 गुना छलांग लगा गई। समता के संवैधानिक आदर्श का ऐसा चीरहरण देश में कभी नहीं देखा गया था।शील के आदर्श से उपजा है सत्ता की मर्यादा और लोकतंत्र का विचार। जवाहर लाल नेहरू के काल में लोकतांत्रिक मर्यादाओं की स्थापना हुई और कमोबेश उसका पालन भी। लेकिन इंदिरा गांधी के सत्ता में आने के बाद लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हुआ और एमरजैंसी भारत के लोकतंत्र पर लगा सबसे बड़ा दाग था। उसके बाद भी एमरजैंसी जैसी हरकत तो नहीं हुई, लेकिन नागरिक स्वतंत्रता और संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन जारी रहा।
लोक पर तंत्र हावी रहा। इस मायने में भी पिछले 8 साल में और खास तौर पर पिछले 3 साल में हर पुरानी हद को पार कर दिया गया है। सी.बी.आई. और ई.डी. जैसी संस्थाओं का दुरुपयोग पहले भी हुआ था लेकिन सीधे-सीधे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निशाना बनाने में अब कोई पर्दा भी बाकी नहीं रहा है। चुनाव आयोग के बारे में यही सवाल बचा है कि वह सत्ताधारी सरकार का दफ्तर है या पार्टी का? मुख्यधारा का मीडिया कमोबेश सत्ता की जेब में है, जो बोलने की जुर्रत करता है उसे जेल का रास्ता दिखा दिया जाता है।
रूस और तुर्की की तरह बस लोकतंत्र में चुनाव की औपचारिकता बाकी है। कदम-दर-कदम हम एक चुनावी डिक्टेटरशिप बनते जा रहे हैं। जाहिर है स्वतंत्र भारत के इतिहास में देश के स्वधर्म पर यह कोई पहला हमला नहीं है। लेकिन आज हो रहा यह हमला अभूतपूर्व और सबसे घातक है। आज भारतीय सभ्यता की गौरवमई विरासत, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास और भारतीय संविधान के आदर्शों में आस्था रखने वाले हर भारतीय का एक ही धर्म हो सकता है: तन, मन, धन और जरूरत हो तो अपने प्राण से भी भारत के स्वधर्म की रक्षा करें।
(योगेन्द्र यादव चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।)