तुलसी की प्रासंगिकता : लोक जीवन में मूल्यगत चेतना के निर्माण के कवि


भक्तिकाल के कबीर और सूरदास सरीखे महान कवियों की अगली पीढ़ी के कवि थे तुलसीदास जिनको सगुण भक्ति धारा के राम मार्गी कवियों में विशेष स्थान प्राप्त था। भक्ति कालीन कवियों में दो तरह के कवियों का उल्लेख मिलता है। दक्षिण में कवियों का यह विभाजन शैव और वैष्णव तो उत्तर भारत में रामभक्त और कृष्ण भक्त थी।



बीती 28 जुलाई 2020 को मंगलवार के दिन यानी कल संवत्सर कैलेंडर के हिसाब से श्रावण महीने के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि थी। भारतीय इतिहास में इस तिथि का बहुत महत्त्व है क्योंकि इसी दिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम के संपूर्ण व्यक्तित्व पर आधारित खंड काव्य रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी का जन्म हुआ था। भक्तिकाल के कबीरदास और सूरदास सरीखे महान कवियों की अगली पीढ़ी के एक प्रमुख कवि थे तुलसीदास जिनको सगुणभक्ति धारा के राम मार्गी कवियों में विशेष स्थान प्राप्त था। भक्ति कालीन कवियों में प्रमुखतः दो तरह के ही भक्त कवियों का उल्लेख मिलता है। 

दक्षिण भारत में तो कवियों का यह विभाजन शैव और वैष्णव के रूप में ज्ञात था लेकिन उत्तर भारत के कवियों की धारा रामभक्त और कृष्ण भक्त कवियों के रूप में विभाजित थी, जबकि भक्ति काल से पहले ऐसा कोई विभाजन कवियों के बीच नहीं था क्योंकि इस पीढ़ी के कबीर से लेकर नानक, दादू रैदास तक सभी कवि खुद को सगुण नहीं बल्कि निर्गुण उपासना के कवि मानते थे। इसके बाद के कवियों की पीढ़ी जिसमें सूरदास, तुलसीदास, मीरा, जायसी समेत असंख्य कवियों के नाम लिए जा सकते हैं, वो सभी कृष्ण मार्गी थे या राममार्गी थे।
इस विभाजन के तहत गोस्वामी तुलसीदास को राममार्गी भक्त कवि कहा जाता है और रामचरित मानस उनकी प्रमुख रचना है। भक्तिकाल की सगुण धारा के प्रतिनिधि रामभक्त कवियों में से एक तुलसी दास ने अपने ग्रन्थ रामचरितमानस में ही एक स्थान पर इन पंक्तियों के माध्यम से अपने जन्म की जानकारी दी है, “पंद्रह सौ चौवन विषे कालिंदी के तीर सावन सुकला सप्तमी तुलसी धरयो शरीर।”

भक्तिकालीन कवियों के बारे में यह भी कहा जाता है कि इनमें एक श्रेणी उन कवियों की है जो अपने आराध्य से अपनी कविताओं के माध्यम से सखा भाव यानी एक मित्र की हैसियत से संवाद करते हैं और कुछ दास्य भाव से संवाद करते दिखाई देते हैं। इस लिहाज से सूरदास को पहली श्रेणी का और तुलसीदास को दूसरी श्रेणी का कवि माना जाता है। रामचरितमानस में तुलसी कुछ इसी तरह से संवाद करते हुए दिखाई तो देते हैं लेकिन एक कवि के रूप में खुद को एक फक्कड़ इंसान की तरह स्थापित करते हुए भी दिखाई देते हैं।

इसी क्रम में रामचरित मानस में एक स्थान पर उन्होंने खुद के बारे में यह कहा भी है, “पूत कहे, अवधूत कहे, राजपूत कहे, जुलाहा कहे कोऊ। काहे की बेटी से बेटा न ब्याहब, काहू की जाति न बिगारब सोऊ। तुलसी है नाम गुलाम राम को जाको जो रूचि सो कहे कुछ दोऊ, मांग के खाइबे को, मसीत में सोइबे को लेबे का एक न देबे का दोऊ।” कहने का मतलब यह भी है कि तुलसीदास के राम भक्त कवियों के रूप में एक दब्बू इंसान जैसी छवि बना दी गई थी जबकि वो अपने लेखन और व्यवहारिक जीवन में न केवल बहुत व्यावहारिक थे बल्कि एक स्वाभिमानी और फक्कड़ इंसान भी थे। 
रामचरित मानस के अलावा उनके विनय पत्रिका और कवितावली जैसे ग्रंथों में अपनी काव्य साधना के माध्यम से अपने जीवन की इस छवि को उजागर भी किया है। लेकिन दिक्कत सिर्फ इतनी है कि तुलसी के सन्दर्भ में इस देश का आम इंसान रामचरित मानस के अलावा और कुछ पढ़ ही नहीं पाता है। यहां प्रसंगवश यह बात गौरतलब है कि जब हम रामचरित मानस के सन्दर्भ में तुलसी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और खंगालने की कोशिश करते हैं तो हमको यह अहसास भी होता है कि पिछली पांच सदियों से भारतीय लोक जीवन में मूल्यगत चेतना के निर्माण में गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ का सतत योगदान रहा है। पारिवारिक जीवन, मित्रता, सत्संगति, सामाजिक जीवन और राजनय जैसे विषयों को समेटते हुए लोक में रमते हुए तुलसीदास जी ने लोकोत्तर का जो संधान किया उसमें एक ओर यदि दर्शन की ऊंचाई दिखती है तो दूसरी ओर रस की गहरी और स्निग्ध तरलता भी प्रवाहित होती मिलती है।

विष्णु के अवतार श्रीराम के लीला-काव्य में सशक्त भाषा और शब्द-प्रयोग का यह अद्भुत जादू ही है कि उनके दोहे और चौपाइयां शिक्षित और गंवार सभी तरह के लोगों की जुबान पर आज भी छाए हुए हैं। मानस में पहले से चली आ रही राम-कथा में कई प्रयोग भी किए गए हैं। भक्त कवि तुलसीदास का मन लोक में भी अवस्थित है। वह अपने समय की चिंता से भी आकुल हैं और समकालीन समाज में व्याप्त हो रहे अंधकार से लड़ने का साहस जुटाने का यत्न भी किया है।

तुलसीदास अपने कर्म को लेकर भी बहुत विचारशील थे, उन्होंने जो कुछ भी लिखा वो सिर्फ इसीलिये नहीं उसके खुद को सुख मिले। महज स्वान्तः सुखाय के लिए लिखने के स्थान पर तुलसीदास यह चाहते थे कि वो जो कुछ भी लिखें उसे ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ें भी। इसी उद्देश्य के तहत उन्होंने अपनी रचनाओं की भाषाओं का भी विशेष ध्यान रखा था।

राम काव्य लिखने के सम्बन्ध में उनका यह स्पष्ट मानना था कि यह काव्य वो लोग जरूर पढ़ें जो राम के जन्म स्थल के आसपास के रहने वाले हैं। सब लोग जानते हैं कि राम का जन्म कहां हुआ था और उस क्षेत्र की भाषा क्या है, इसीलिए उन्होंने रामचरित मानस की रचना अवधी भाषा में की और बीच- बीच में सन्दर्भ के लिए संस्कृत के श्लोक भी उन्होंने उद्धृत किये हैं।
तुलसीदास के सन्दर्भ में भाषा का यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि अवधी उनकी मूल भाषा नहीं थी। मूल रूप से तुलसीदास अवध के नहीं बल्कि बुंदेलखंड के थे और उनकी मूल भाषा बुन्देली थी। रामचरि मानस की रचना के समय उत्तर भारत में अवधी और ब्रज भाषा का ही बोलबाला था और ये दोनों ही भाषाएं उनके लिए अलग थी इसलिए उन्होंने राम के क्षेत्र की भाषा अवधी को ही इस रचना की भाषा के रूप में चुना। कहना गलत नहीं होगा कि अपनी कड़ी मेहनत और लगन से तुलसीदास ने अवधी के साथ ही ब्रज और बुन्देली लोकभाषाओं में भी बेहतर रचना कर्म किया था।