समान नागरिक संहिता : सवाल चिट्ठी के मजमून पर हो, लिफाफे पर नहीं


हमारे वक्त की एक पहचान ये है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और बीजेपी हिंदू-धर्म, परंपरा, राष्ट्रवाद आदि जिन जिन दायरों पर अवैध कब्ज़ा करते जा रहे हैं, सेक्युलर राजनीति खुद वहां से पलायन करती जा रही है। इसकी नई मिसाल समान नागरिक संहिता है।


योगेन्द्र यादव
मत-विमत Updated On :

बीजेपी ने समान नागरिक संहिता पर विवाद को फिर हवा दी है। चुनाव से पहले यह प्रत्याशित था। अफसोस यह है कि इस विवाद पर आने वाली प्रतिक्रियाएं भी बिल्कुल प्रत्याशित हैं। विपक्षी नेताओं ने बीजेपी के इस कदम की कड़ी निंदा की है। मुद्दे को उठाने के लिए विधि आयोग की ज़रूरत पर सवाल खड़े करते हुए विपक्ष के कई नेताओं ने समान नागरिक संहिता के खिलाफ कारगर तरीके से मोर्चा संभाल लिया है। मुस्लिम संगठन इससे भी एक कदम आगे हैं। उन्होंने समान नागरिक संहिता संबंधी पहल को भयावह करार देते हुए इसे अल्पसंख्यकों और संविधान के खिलाफ बताया है। इसे विडंबना कहें या त्रासदी कि बीजेपी समान नागरिक संहिता के संवैधानिक वादे को लागू करने पर आमादा दिख रही है तो दूसरी तरफ सेक्युलर राजनीति इसकी राह रोकती दिखाई दे रही है।

बीजेपी यही दिखाना चाहती है। नागरिक संहिता पर बहस ने अभी जो शक्ल अख्तियार की है वो बीजेपी के मनमाफिक है। हमारे वक्त की एक पहचान ये है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और बीजेपी हिंदू-धर्म, परंपरा, राष्ट्रवाद आदि जिन जिन दायरों पर अवैध कब्ज़ा करते जा रहे हैं, सेक्युलर राजनीति खुद वहां से पलायन करती जा रही है। इसकी नई मिसाल समान नागरिक संहिता है। अगर सेक्युलर राजनीति को इस पलायनवाद को रोकना है तो उसे समान नागरिक संहिता पर अपने एक सिद्धांतनिष्ठ और प्रगतिशील रूख पर अडिग रहना होगा।

सेक्युलर राजनीति को ये बात दावा-ठोक अंदाज़ में कहनी होगी कि समान नागरिक संहिता का किसी धर्म विशेष के रीति-रिवाज़ और आचार-व्यवहार से कोई लेना-देना नहीं बल्कि समान नागरिक संहिता तो विभिन्न धर्म-समुदायों और किसी एक धर्म-समुदाय के लोगों के बीच बराबरी की संविधान-सम्मत धारणा की सर्वोच्च प्रतिष्ठा का मामला है और यह धारणा लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करती है। समान नागरिक संहिता का विरोध एक आत्मघाती राजनीति है। साथ ही, यह विरोध साल 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र रणनीतिक तौर पर भी बुरा है।

समान नागरिक संहिता का तर्क

समान नागरिक संहिता की धारणा एक सीधे-सरल मगर ताकतवर तर्क पर टिकी है। यह तर्क कानून के समक्ष समानता का तर्क है। अगर देश के सभी नागरिक के लिए दंड-संहिता एक है तो फिर क्यों न सभी के लिए नागरिक संहिता भी एक समान हो? बेशक विभिन्न समुदायों के लोग अपने विभिन्न रीति-रिवाज़ों का पालन करें, लेकिन ऐसा तो नहीं होने दिया जा सकता न कि इन रीति-रिवाज़ों के पालन से व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन हो जाए! बेशक किसी समुदाय को धर्म और संस्कृति विषयक अधिकार हैं, लेकिन क्या इन अधिकारों को ये छूट दी जा सकती है कि वे उस समुदाय की स्त्रियों को हासिल बराबरी के अधिकार का उल्लंघन करें?

ये कोई आज बीजेपी के बनाए तर्क नहीं। महिला संगठनों की समान नागरिक संहिता की मूल मांग के पीछे ये ही तर्क दिए गए थे। संविधान-सभा में इस बात को लेकर एक व्यापक सर्व-सम्मति थी। दरअसल एक प्रस्ताव तो ये आया था कि समान नागरिक संहिता के प्रावधान को मौलिक अधिकारों वाले हिस्से में रखा जाए, लेकिन देश-विभाजन की पृष्ठभूमि में इसे टाल दिया गया। ऊपर जो तर्क दिए गए हैं उनका इस्तेमाल समान नागरिक संहिता की पैरोकारी में जवाहरलाल नेहरू, भीमराव आंबेडकर और राम मनोहर लोहिया ने किया है और इन्हीं तर्कों की ज़मीन पर स्वतंत्र भारत में नारीवादी आंदोलन ने समान नागरिक संहिता की मांग की है।

संविधान के अनुच्छेद-44 में राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत के अन्तर्गत यह सिद्धांत (गैर-न्यायिक) वर्णित है कि: ‘‘राज्य भारत के पूरे भू-क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान अचार संहिता लागू करने के प्रयास करेगा’’। हममें से जो लोग लगातार मांग करते रहते हैं कि राजसत्ता को संविधान में वर्णित नीति-निर्देशक सिद्धांतों का पालन करना चाहिए वे इन्हीं नीति-निर्देशक सिद्धांतों में शामिल एक प्रमुख सिद्धांत से अचानक मुंह नहीं मोड़ सकते। हम ये नहीं कह सकते कि संविधान को अंगीकार करने के 73 साल बाद भी देश अभी इस विचार पर अमल करने को तैयार नहीं हो सका है।

सवाल चिट्ठी के मजमून पर हो, लिफाफे पर नहीं

आम चुनाव से महज़ 10 माह पहले और मोदी सरकार के हाथों गठित विधि आयोग में पूरे विचार-विमर्श से खारिज़ होने के पांच साल बाद अगर यह प्रस्ताव फिर से सामने लाया गया है तो इसलिए कि अल्पसंख्यकों और खासतौर पर मुसलमानों के खिलाफ एक मोर्चा और खोला जा सके। मकसद जनता-जनार्दन के सामने ये ज़ाहिर करना है कि कांग्रेस सरीखे दल पारिवारिक कानूनों में सुधार की घुट्टी हिंदुओं के गले उतारने में तो आगे-आगे रहते हैं, लेकिन मुसलमानों और ईसाइयों के साथ ऐसा करने की उनकी हिम्मत नहीं होती। इरादा ये जताने का रहता है कि विपक्ष अपने नज़रिए में मुस्लिम और ईसाई समुदाय के रूढ़ि परस्त नेतृत्व से मेल में है। तीन तलाक मामले में उठी बहस की तरह समान नागरिक संहिता के मामले में भी विपक्ष बीजेपी के बिछाए जाल में फंसता दिख रहा है।

विपक्ष को समान नागरिक संहिता के विचार का विरोध करने की जगह ये सवाल उठाना चाहिए कि बीजेपी समान नागरिक संहिता की भावना का सत्यानाश कर रही है—वह समान नागरिक संहिता को गलत अर्थ और आशय देना चाहती है। नाम देखकर भड़कने से अच्छा है कि आलोचक समान नागरिक संहिता के सार-तत्व पर बात करें- उसके अर्थ और आशयों पर बहस खड़ी करें। इस मामले में विपक्ष नारीवादी आंदोलन के सिद्धांत निष्ठ और बारीक नज़रिये से सबक ले सकता है।

रूढ़िवादी धर्मसत्ता और बीजेपी दोनों ही समान नागरिक संहिता को अपने हित और नजरिए से परिभाषित करना चाहते हैं और नारीवादी आंदोलन बारीक सैद्धांतिक समझ के सहारे इन दोनों ही कोशिशों के खिलाफ खड़ा हुआ है। साथ ही विपक्ष चाहे तो 21वें विधि आयोग के विमर्श-पत्र (डिस्कशन पेपर) की भी मदद ले सकता है जिसमें समान नागरिक संहिता विषयक बातें अत्यंत विस्तार और स्पष्ट तर्कों के साथ दर्ज की गई हैं।

बीजेपी समान नागरिक संहिता के छिछले शाब्दिक अर्थ के सहारे अपना खेल रच रही है। बीजेपी ‘समरूप (यूनिफॉर्म)’ को इकहरा और एकरूप बता रही है। इस कुतर्क की रौशनी में समान नागरिक संहिता का अर्थ होगा एक नया कानून जो देश में अभी मौजूद तमाम पारिवारिक कानूनों की जगह लेगा और इस कानून में तमाम धर्म-समुदाय के लोगों के लिए विवाह, तलाक, उत्तराधिकार तथा गोद लेने संबंधी प्रावधान एक जैसे होंगे। बीजेपी समान नागरिक संहिता का यही अर्थ भला रही है और बीजेपी के आलोचक समान नागरिक संहिता के इसी अर्थ को सही मानकर समान नागरिक संहिता का विरोध कर रहे हैं। लेकिन समान नागरिक संहिता का ऐसा अर्थ करना तो संविधान के नीति-निर्देशों का कुपाठ कहलाएगा।

समान नागरिक संहिता सही अर्थ

देश के समाज-सुधारकों के स्वप्न, संविधान-निर्माताओं की मंशा और नारीवादी आंदोलन की मांगों का तकाज़ा है कि हम समान नागरिक संहिता का बारीकी से पाठ करें और इसमें जो ‘समान’ शब्द आया है उसके अर्थों पर गहराई से गौर करें। किसी संहिता के ‘समान’ होने का अर्थ यह कत्तई नहीं कि उसे सबके लिए एक-रूप और एक-रंग होना चाहिए। ऐसी संहिता समान सिद्धांतों पर आधारित हो सकती है साथ ही उसमें रंग-रूप का वैविध्य भी हो सकता है। यह बहुत कुछ क्लाइमेट-जस्टिस (पारिस्थितिकीय न्याय) की वार्ताओं की तरह है जिसमें सिद्धांत तो समान होते हैं, लेकिन अलग-अलग देशों के लिए ज़िम्मेदारियों का स्वरूप अलग-अलग होता है, जिसे “कॉमन बट डिफ्रेंशिएटेड रिस्पांसिबिलिटी” का सिद्धांत कहा जाता है।

इस तर्ज पर सोचें तो समान नागरिक संहिता में ‘समान’ का अर्थ होगाः सभी धार्मिक और सामाजिक समुदायों के लिए एकरूप संवैधानिक सिद्धांतों को अमल में लाना। किसी भी समुदाय से संबंधित पारिवारिक कानूनों को इस बात की इज़ाज़त नहीं होगी कि वह समानता के अधिकार, भेदभाव के विरुद्ध अधिकार तथा लैंगिक-न्याय की धारणा का उल्लंघन करे। जो कोई रीति-रिवाज़ या पारिवारिक कानून इन सिद्धांतों के उल्लंघन में है, उन्हें खत्म होना होगा।

साथ ही, ये सर्व-सामान्य सिद्धांत विभिन्न समुदायों के लिए उनकी आचार-संहिता के हिसाब से विभिन्न रूप ले सकते हैं। मिसाल के लिए मुस्लिम समुदाय में शादी निकाहनामे पर आधारित एक अनुबंध होती है। समान नागरिक संहिता के लिए ज़रूरी नहीं कि मुस्लिम समुदाय अपनी इस प्रथा का त्याग कर दे या फिर हिंदू समुदाय इस प्रथा को अपना ले। अलग-अलग समुदाय अपने अलग-अलग रीति-रिवाज़ का पालन कर सकते हैं और कई बार विवाह, तलाक, गोद लेने तथा उत्तराधिकार संबंधी ये रीति-रिवाज़ एक-दूसरे के विपरीत भी हो सकते हैं, लेकिन शर्त यही है कि ऐसे रीति-रिवाज़ संविधान सम्मत सिद्धांत-समुच्चय का उल्लंघन न करते हों।

ऐसा भी नहीं कि समान नागरिक संहिता कानून के जोर से लोगों के बरताव में एक ही दिन में दाखिल हो जाए और जो कुछ पीछे से चला आ रहा है वो सब तत्काल ही खत्म हो जाए। इस नज़रिए से देखें तो समान नागरिक संहिता को अमल में लाने के लिए तीन दूरगामी विधायी परिवर्तन करने होंगे। पहली बात ये कि 21वें विधि आयोग के सुझावों की रोशनी में मौजूदा पर्सनल लॉ में व्यापक सुधार करने होंगे। इसमें ये भी शामिल है कि मुसलमानों में जब-तब जारी और कानूनी तौर पर मान्य बहुविवाह के चलन पर अंकुश लगे, उसे हतोत्साहित किया जाए और साथ ही महिलाओं के हितों की रक्षा के प्रावधान किए जाएं।

इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि हिंदुओं तथा अन्य समुदायों में कानूनी तौर पर अमान्य, लेकिन व्यवहार में जब-तब दिखाई पड़ने वाले बहुविवाह के चलन पर अंकुश लगे, ईसाइयों में तलाक तथा गोद लेने संबंधी प्रथाओं को सरल बनाया जाए तथा विशेष विवाह अधिनियम के तहत ज़रूरी करार दिए गए नोटिस पीरियड को खत्म किया जाए। विधि आयोग ने हिंदू विधि के अंतर्गत जारी सह-दायिकता (कोपार्सेनरी) के सिद्धांत तथा हिंदू अविभाजित परिवार के कर-विशेषाधिकारों को भी खत्म करने की सिफारिश की है। बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक समुदाय के रूढ़ि परस्त तत्व इन परिवर्तनों का विरोध कर सकते हैं, लेकिन सेक्युलर राजनीति को ऐसे विरोधों की परवाह नहीं करनी होगी।

दूसरा विधायी बदलाव ये करना होगा कि विभिन्न समुदायों में जो रीति-रिवाज़ और प्रथाएं प्रचलित होने के बावजूद अभी तक कानून के दायरे में नहीं आ पाई हैं उन्हें संहिताबद्ध किया जाए। मिसाल के लिए, एक सिद्धांत यह है कि किसी बच्चे की गार्जियनशिप या उसकी कस्टडी से संबंधित विवाद में सबसे ज्यादा ध्यान बच्चे के हित का रखा जाना चाहिए। इस सिद्धांत को कानून में जगह दी जानी चाहिए।

तीसरी बात ये कि मौजूदा विशेष विवाह अधिनियम के दायरे का विस्तार होना चाहिए ताकि जो नागरिक किसी समुदाय-विशेष के पारिवारिक कानूनों से बंधकर नहीं चलना चाहते उनके लिए समान आचरण संहिता तैयार की जा सके। ऐसी संहिता का एक रूप गोवा में प्रचलित है और गोवा के तमाम नागरिकों पर लागू भी है चाहे वे किसी भी धर्म-समुदाय के हों। बाबासाहेब आंबेडकर ने इसी तर्ज पर स्वैच्छिक आचार-संहिता की बात कही थी।

बीजेपी ने जिन दायरों पर अवैध कब्ज़ा जमाया है, सेक्युलर राजनीति लंबे समय से उन दायरों को छोड़ती जा रही है। यह आत्मघाती राजनीति है और सेक्युलर राजनीति के लिए समान नागरिक संहिता ऐसी आत्मघाती राजनीति का एक और उदाहरण न बने तो ही अच्छा होगा! समान नागरिक संहिता के विचार से पीछा छुड़ाने की जगह सेक्युलर राजनीति को बेधड़क खड़ा होना चाहिए और ऊपर बताए गए ढर्रे पर लागू करने की मांग करनी चाहिए। बीजेपी की बनाई कहानी में फंसकर अल्पसंख्यक समुदायों के रूढ़िपरस्त नेतृवर्ग से हाथ मिलाने की जगह सेक्युलर राजनीति को बीजेपी से साफ-साफ कहना होगा कि झांसा पट्टी नहीं चलेगी, आप प्रस्तावित समान नागरिक संहिता का पहले कोई ठोस मसौदा तो लेकर आइए!

(योगेन्द्र यादव राजनीतिक कार्यकर्ता और चुनाव विश्लेषक हैं।)