वतन का दर्द,कलम के आंसू…


प्रधानमंत्री जी एक दिवसीय जनता कर्फ्यू की सफलता से इतने अधिक उत्साहित हो जायेंगे कि एक दिवसीय कर्फ्यू को 40 दिवसीय विस्तार देंगे, यह किसे मालूम था। कोरोना भारत में महामारी का रूप तो नहीं ले पाई है पर प्रधानमन्त्री घोषित लॉकडाउन प्रधानमंत्री जी की कृपा से डिजास्टर का रूप ले चुका है। करोड़ों मेहनतकश मजदूर, बेरोजगार, छात्र, नौजवान भरपेट रोटी-भात के लिए तड़प रहे हैं। रेल की पटरी पर रेल की बजाय भारतवासी दौड़ रहे हैं।



पुष्पराज

25 वर्षों के पत्रकारीय तजुर्बे में हमने देश की बहुत सारी घटनाओं को अपनी कलम से लिखा पर 2020 के फरवरी महीने में दिल्ली में हुए जनसंहार के समय से जिस तरह का दृश्य उपस्थित हो रहा है,  हम सोचते हैं कि उसे हुबहू देश-दुनियां के सामने प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है। 1997 में मेरा एक रिपोर्ताज प्रभात खबर के पृष्ठ में छपा था-  ‘मुन्ना सदा को गर्म लोहे से दगाया गया है।’ 2003 में केरल के कोकाकोला विरोधी आन्दोलन को लिखने केरल गया था। हाथों में एक पत्थर उठाए बिना केरल के सचेतन समाज ने जनशक्ति की ताकत से भारत में पहली बार एक कोकाकोला फैक्टरी को बंद कराया था। अपने गांव के जयमंगला गढ़ मुसहर टोला में कालाजार से 40 मुसहरों के मौत की खबर हिंदुस्तान के लिए लिखा था। उस खबर को हिंदुस्तान टाईम्स ने भी छापा था। 2006 में आउटलुक के संपादक ने मुझे  मेरी गांव डायरी लिखने के लिए प्रेरित किया। भाषा सिंह को उस डायरी की कॉपी एडिटिंग का किस्सा याद होगा। गांव–डायरी छपने के बाद एक मुसहर मुहल्ले को रातों-रात उजाड़ दिया गया। 

2007 में बिहार की बाढ़ को हिंदुस्तान ने बाढ़ डायरी के रूप में कई किस्तों में छापा था। बाढ़ हाहाकार को देखते–लिखते हुए मेरे सामने एक दूसरा भारत दिखता था। माओवादियों के भूमिगत जीवन की डायरी 2006 में जनसत्ता में छपी थी। ओम थानवी सम्पादक थे। फ्रीलांसर के लिए मौखिक एसयान्मेंट ही सबसे बड़ा अनुबंध होता था। संपादक उस अंडरग्राउंड डायरी को छापने के लिए तैयार नहीं थे। फ्रीलांसर ने पंचायत बुलाई। अजीत भट्टाचार्जी ने पञ्च परमेश्वर की भूमिका निभाई। संपादक जी ने भूमिगत डायरी को 3 किस्तों में प्रकाशित किया और मुझसे कहा, ‘पंचायत बुलाकर इस तरह आप कब तक छपिएगा’। जनसत्ता का दरवाजा बंद हो गया। प्रभाष जोशी ने मृत्यु से पूर्व सलाहकार संपादक की कुर्सी का त्याग  किया। 

एक कम्युनिस्ट सरकार अपने ही लोगों पर हमले करेगी। यह दूर से यकीन करना मुश्किल था। मैंने अपनी आंखों से खड़े होकर हमले देखे। लाशें देखी। उजड़ी हुई,जली हुई बस्तियां देखी। कुछ रिपोर्ताज प्रेम जी ने सन्डे पोस्ट में छापे थे। जो चीजें नहीं छपी थी,पुस्तक रूप में सामने आई। 2009 में प्रभाष जोशी की मौत हुई तो मौत सिर्फ एक आदमी की नहीं हुई थी। प्रभाष जोशी की मौत के साथ हिंदी पत्रकारिता में संपादक युग का अवसान हो गया। नीलाभ दा भी असमय ही चले गए। हमारे एक संपादक जी अख़बार का संपादन करते हुए सरकार के एक विश्वविद्यालय का संपादन करने लगे। एक संपादक जी अख़बार को एक मुख्यमंत्री के चरणों में समर्पित कर संसदीय सर्वोच्च सदन में विराजे हैं। कुलपति और उपसभापति के आसन को हमारे भूतपूर्व आदरणीय संपादक गौरवांन्वित कर रहे हैं।

2017 में मेधा पाटकर को किसी अपराध के बिना धार जेल में बंद कर दिया गया था। एक कलक्टर ने धमकी दी थी कि आप एक अनुबंध पर हस्ताक्षर करें कि आप मध्य प्रदेश में प्रवेश नहीं करेंगी। अगर ऐसा नहीं करेंगी तो हम आपको जेल में बंद कर देंगे। मेधा पाटकर धार जेल में बंद थी। हमने धार जेल के अंदर जाकर जेल डायरी लिखी। देशबंधु जैसे क्षेत्रीय अख़बार के अतिरिक्त किसी राष्ट्रीय अख़बार ने  इस खबर को छापने का साहस नहीं जुटाया। 35 वर्षों से जारी नर्मदा बचाओ आन्दोलन के इतिहास में 2019 का वह बुरा दिन भी आया,जब प्रधानमंत्री के जन्मदिन के अवसर पर मध्य प्रदेश के 178 गांवों को उपहार स्वरूप राज्यपोषित बाढ़ का सामना करना पड़ा। हमने डूबे हुए गांवों को अपनी आंखों से नर्मदा में खड़ा होकर देखा पर देश की मीडिया के लिए यह बड़ी खबर नहीं थी। 

नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने अपने अहिंसक आन्दोलन की ताकत से जिस विस्थापन को 35 वर्षों से रोक कर रखा था। वह विस्थापन प्रधानमंत्री जी के जन्मदिन के निमित्त का उपहार बना। एनडीटीवी ने भी फेसबुक से वीडियो उधार लेकर सांकेतिक खबरें चलाई। नर्मदा के इस एतिहासिक विस्थापन को अपनी आंखों से देखने के बाद मुझे ऐसा यकीन हुआ कि सरकारें खबरों पर लगाम लगाने में सफल हो जाए तो देश के किसी भी हिस्से में कोई विपदा आए तो उससे देश को अनजान रखा जा सकता है।

अमरीका के राष्ट्रपति जब हमारे देश में पधारे हुए थे, उसी समय देश की राजधानी में राज्य पोषित रक्तपात शुरू हुआ। लाशों का पोस्टमार्टम रोक कर रखा गया ताकि अचानक मृतकों की गिनती में बढ़त से ट्रंप की यात्रा का स्वाद खराब ना हो जाए। सुनियोजित जनसंहार के साथ जुड़े सुनियोजित मीडिया नियंत्रण को देख कर हम स्तब्ध हुए कि भारत में अब पत्रकारिता क्या अध्ययन का विषय मात्र रह जाएगा, व्यवहारिक जीवन में पत्रकारिता का कोई नामोनिशान शेष नहीं होगा। हमने रंगों वाली होली को  ‘श्रद्धांजलि होली’ की तरह मनाया कि खून की होली के बाद रंगों वाली होली के क्या मायने होते हैं। 

दिल्ली दंगों का कवरेज करते हुए सुशील मानव सहित कई पत्रकारों को हमले का शिकार होना पड़ा था।ह म कर्फ्यू हटने के बाद अब जली हुई बस्तियों को अपनी आxखों से देखना चाहते थे। हम दिल्ली दंगे के पीड़ितों के आxसू जमा करना चाहते थे। मुझे थोडा आश्चर्य हो रहा था कि गुजरात के दंगों का विरोध करने वाले दिल्ली दंगे का मुखर विरोध क्योँ नहीं कर पाए। एक अजीज पत्रकार मित्र और अधिवक्ता आशुतोष मिश्र से मैंने इस सन्दर्भ में विमर्श किया कि पत्रकार दंगा कवरेज करते हुए घायल हुए, दुखद है पर दुखद यह भी है कि गणेश शंकर विद्यार्थी की लीक पर कोई दूसरा संपादक, लेखक, बुद्धिजीवी दुबारा दंगे रोकने खड़ा नहीं हुआ।

दिल्ली के रक्तपात को देखते हुए महसूस हुआ कि अगर पत्रकारिता नहीं बचेगी तो भारत भी नहीं बचेगा। हमें भारत को बचाने के लिए पत्रकारिता को बचाने का राष्ट्रव्यापी अभियान चलाना होगा। गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रभाष जोशी और रामचंद्र छत्रपति को प्रतीक बनाकर हमें पत्रकारिता को बचाने का एक उद्मम करना होगा। दुनिया के सबसे बड़े सेक्स स्कैंडल को उजागर करते हुए शहीद हुए पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की शहादत को क्या आप भूल रहे हैं।

भारत की राजधानी में राज्यपोषित जनसंहार से भारत की छवि दुनिया के देशों में कितनी कलंकित हुई, इन बातों पर विचार करने का वक्त भी सियासत हमसे इस तरह छीन लेगी, हमें कहां मालूम था। भारत में अब अजब–गजब ही देखना है। अगर भारत में कौमी एकता के पक्ष की राजनीति इतनी ही कमजोर हो गई है कि वे दिल्ली दंगा के खिलाफ ‘भारत बंद’ का एलान करने में अक्षम थे तो उन्हीं के संघर्षों के शब्दकोश से चुराकर ‘जनता कर्फ्यू’ की घोषणा प्रधानमंत्री ने ही कर दी। समाजवादी आंदोलनों के प्रतीक ‘जनता कर्फ्यू’ की घोषणा एक लोकतान्त्रिक सरकार करती है और जनता कर्फ्यू के बाद ऐतिहासिक लॉकडाउन का उपहार बांटती हो। 

ब्रिटिश सरकार ने 1857 के गदर से लेकर हैजा-प्लेग, भूकंप, अकाल जैसे विषम काल में भी संपूर्ण राष्ट्र को लॉकडाउन करने का साहस नहीं जुटाया था। लॉकडाउन का मतलब तालाबंदी होता है पर तालाबंदी तो जीवनबंदी साबित हो रहा है। बेहतर था कि इसे कर्फ्यू या इमरजेंसी ही कहा जाता। प्रधानमंत्री जी एक दिवसीय जनता कर्फ्यू की सफलता से इतने अधिक उत्साहित हो जायेंगे कि एक दिवसीय कर्फ्यू को 40 दिवसीय विस्तार देंगे, यह किसे मालूम था। कोरोना भारत में महामारी का रूप तो नहीं ले पाई है पर कोरोना का राज्यपोषित दहशत लोगों की जीवनीशक्ति को क्षरित कर रहा है। 

प्रधानमन्त्री घोषित लॉकडाउन प्रधानमंत्री जी की कृपा से डिजास्टर का रूप ले चुका है। करोड़ों मेहनतकश मजदूर, बेरोजगार, छात्र, नौजवान भरपेट रोटी–भात के लिए तड़प रहे हैं। रेल की पटरी पर रेल की बजाय  भारतवासी दौड़ रहे हैं। सड़कों पर चलते हुए पदातिक भूख से तड़पते हुए कब –कहां कितने मर रहे हैं, उसका सही हिसाब किसी के पास नहीं है। हुकूमत ने सबको नाक पर मास्क लगाकर घरों में बंद रहने का हुक्म दिया है तो पत्रकार भूख से मृत की खबर खोजने में अपनी जान क्योँ गंवाएं। पीयूष श्रीवास्तव और आलोक पाण्डेय जैसे अंग्रेजी पत्रकार आगे बढ़कर एक –एक पदातिक को लावारिस होने से बचाना चाहते हैं। कुछ पोर्टल सच को उजागर करने में तत्पर हैं पर नीतीश कुमार जैसे मुख्यमंत्री ने तो साबित कर दिया है कि उनके लिए एक श्रमिक की लाश और एक आवारा कुत्ते की लाश में रत्ती सा का भी फर्क नहीं है।

प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर कहते थे कि देश विभाजन के बाद सियालकोट से दिल्ली आया तो कत्ल-ए -आम से उजड़े लोग हर तरफ इस तरह पसरे हुए थे कि पूरी दिल्ली एक शरणार्थी शिविर में तब्दील हो गयी थी। आज कुलदीप नैयर होते तो देखते कि लॉकडाउन डिजास्टर ने मुल्क के ऐसे हालात कर दिए हैं कि पूरा भारत शरणार्थी भारत का चित्र प्रस्तुत कर रहा है। प्रसिद्द चित्रकार अशोक भौमिक बंगाल के अकाल पर केन्द्रित चित्तो प्रसाद की अकाल पेंटिंग लगातार फेसबुक से साझा कर रहे हैं। आपदा -अकाल और भूख से तड़पते भारत को क्या हम पदातिक पत्रकार की दरकार है।

(लेखक यायावर पत्रकार और चर्चित पुस्तक नंदीग्राम डायरी के लेखक हैं।)