विनाश काल में “विवेक बुद्धि”


क्या हिंदुस्तान इस हद तक कोविड महामारी से भयभीत या खौफज़दा हो गया है? जो हालात देश भर में दिखाए जा रहे हैं वे भयभीत तो करते ही हैं। जगह-जगह डाक्टर, नर्स या अन्य स्वास्थ्य व पुलिसकर्मियों के अलावा आम आदमी को भी हिंसा झेलनी पड़ रही है।आज महामारी में मानवीय भरोसा संकट में दिख रहा है।



संदीप जोशी 

जब दिल्ली में दंगे भड़काए जा रहे थे तब तक कोविड 19 को महामारी नहीं माना जा रहा था। उसी दौरान किसी ने कहा था, ‘‘कोरोना विषाणु जब भारत में आएगा तो हिंदू या मुस्लिम नहीं देखेगा।’’ महामारी से निकली महाबंदी को महीने भर से भी ज्यादा समय हो गया है। आज भी हालात ऐसे ही हैं कि हर बात में हिंदू-मुस्लिम देखा जा रहा है। शायद इसको ही ‘‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’’ कहते हैं। क्या हिंसा से कभी किसी ने भी कोई परिणाम हासिल किया है? क्या किसी ने भी हिंसात्मक रवैए से कुछ भी जीता है? आखिर हिंसा से हासिल क्या होता है? इन सवालों के जवाब सभी के पास नकारात्मक ही होंगे। फिर क्यों कुछ सिरफिरे लोग और उनके ही राजनीतिक पहलू समाज की समरसता को ठेस पहुंचाने पर आमादा हैं?

आजादी के समय गांधीजी ने सभी उत्सव-आयोजनों से किनारा कर लिया था। उस समय फैले सांप्रदायिक हिंसा के माहौल से वे बेहद विचलित और दुखी थे। एक प्रार्थना सभा में गांधीजी ने कहा था, ‘‘इसे दुर्भाग्य ही मानना होगा कि जैसी आजादी हमें मिली, उसमें भविष्य के हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य  के बीज बोए गए हैं। ऐसे समय में हम दिए कैसे जला सकते हैं? सच्ची आजादी मेरे हिसाब से तभी आएगी जब हिंदू और मुस्लिम अपने दिल साफ़ कर पाएंगे। अहिंसा ही मेरी पहली और आखिरी आस्था है’’। क्यां आज कोई नेता इस पक्ष को रखने की हिम्मत दिखा सकता है?

आज कोरोना महामारी की महाबंदी में जब मानव अपना जीवन बचाने में लगा है तब भी मनुष्य कहे जाने वाली ये प्रजातियां एक-दूसरे के प्रति वैमनस्य उगलने में लगी हैं। यह राजनैतिक नेत्तृत्व का लोप, और धर्म का विलोप है। हिंसा वह दोधारी तलवार है जो चलाने वाले और चलाए जाने वाले दोनों को ही काटती है। हिंसा उसी सेब की तरह है जो छुरी पर गिरे या छुरी सेब पर गिरे। हिंसा कैसी भी हो, उसके परिणाम तो समाज को ही भुगतने पड़ते हैं। हिंसा का हल हिंसा से निकालने की कोशिशों के कारण सिर्फ हिंसा ही पलती-पनपती देखी गई है। इसीलिए गांधीजी ने कहा था कि हिंसा का एकमात्र हल अहिंसा से ही निकाला सकता है।

सन् 1665 में लंदन में महामरी फैली थी। लेखक और व्यापारी डैनियल डेफॉए ने उसके बारे में लिखे एक पत्र ‘प्लेग साल का बही खाता’ में कहा था ‘‘यह वह समय था जब खुद की सुरक्षा इतनी प्रिय हो गई थी की दूसरों के दुख-दर्द पर ध्यान ही नहीं जाता था ….. महामारी से मौत का खौफ इतना ज्याादा था कि उसने दूसरों की प्रति प्रेम और पीड़ा हरने का कोई स्थान नहीं छोड़ा था।’’ बाकी दुनिया को अभी छोड़ देते हैं। लेकिन क्या  हिंदुस्तान इस हद तक कोविड महामारी से भयभीत या खौफज़दा हो गया है? जो हालात देश भर में दिखाए जा रहे हैं वे भयभीत तो करते ही हैं। जगह-जगह डाक्टर, नर्स या अन्य स्वास्थ्य व पुलिसकर्मियों के अलावा आम आदमी को भी हिंसा झेलनी पड़ रही है। आज महामारी में मानवीय भरोसा संकट में दिख रहा है।

हिंसा के सवाल पर हिंदुस्तान में बहुत कुछ कहा और किया गया है। गांधीजी का मानना था कि पारंपरिकता में सिर्फ अहिंसा से ही हिंसा को सुलझाया जा सकता है। जो मन से पक्का और पवित्र हो, वही शरीर की अहिंसा को समझ सकता है। अहिंसा के महत्व को हिंसा के समय ही समझाना हो सकता है। ऐसी महामारी के समय में हिंसा का उपयोग क्या व्यक्तिगत या सामूहिक भय और डर को नहीं दर्शाता? समाज में भीड़ के न्याय का जो माहौल पिछले कुछ सालों में बना है उसको सभ्यता के मानदंडो से देखना जरूरी है। गांधीजी शुद्ध तौर पर राजनीतिक योजनाएं बनाते थे मगर उनपर अमल वे आध्यात्मिकता की पवित्रता से करते थे। मन की स्वतंत्रता के लिए आत्मा की आध्यात्मिकता जरूरी है।

आजादी के समय गांधीजी से जयप्रकाश नारायण और समाजवादी लोग मिलने गए। देश की दिशा पर बात करने और आगे का रास्ता सोचने-समझने आए थे। गांधीजी ने सलाह दी ‘‘जाओ और गांवों में रहो। जिस गरीबी में लोग वहां रहते हैं, तुम भी रहो। जैसा जीवन वे बीताते हैं वेसे ही जीयो। आठ घंटे काम करो। अपने लिए उन्हीं उत्पादनों का इस्तेमाल करो जो गांव के आसपास आसानी से मिल जाएं। वहां रहकर अशिक्षा दूर करो,अस्पृश्यता दूर करो और महिलाओं को स्वावलंबी बनाओ।’’ आज ठीक इससे उलटा हुआ है। आज गांव सूने और वीरान हो गए, वहीं शहर भीड़-भाड़ वाली गंदी बस्ती‍ हो गयी हैं। संघर्ष सुविधा के अभाव, और अस्तित्व के भय का हो गया है। सुविधा की कमी और अस्तित्व के भय से ही राजनीति का सत्ता खेल चलता है। भय ही हिंसा को भी जन्म देता है। विवेक बुद्धि ही विनाश काल से उबारती है। 

(सामाजिक,राजनीतिक और खेल विषयों के टिप्पणीकार संदीप जोशी पूर्व क्रिकेटर हैं।)