फासीवाद केवल एक राजनीतिक विचारधारा नहीं, बल्कि सत्ता का वह रूप है जिसमें लोकतांत्रिक संस्थाओं को खोखला करके राज्य को एक नेता, एक विचार और एक सत्ता केंद्र की ओर मोड़ दिया जाता है।
बीसवीं सदी के यूरोप-विशेषकर जर्मनी, इटली और स्पेन-हमें यह दिखाते हैं कि समाज किस तरह धीरे-धीरे फासीवादी ढांचे में ढलता है, अक्सर बिना यह महसूस किए कि वह विनाश की ओर बढ़ रहा है।
अमेरिकी होलोकॉस्ट संग्रहालय ने वर्षों के अध्ययन के बाद ऐसे संकेतों की सूची तैयार की है जिन्हें किसी भी लोकतांत्रिक समाज में गंभीर चेतावनी माना जाना चाहिए।
ये संकेत किसी देश की तत्काल स्थिति नहीं बताते, बल्कि यह समझने में मदद करते हैं कि फासीवाद का उभार किन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों से होकर गुजरता है।
- अतिराष्ट्रवाद और सांस्कृतिक श्रेष्ठता का मिथक
फासीवादी शासन हमेशा राष्ट्रवाद को उग्र रूप देता है-इतना कि नागरिकों का ध्यान वास्तविक समस्याओं से हटकर ‘महानता’ के भ्रम में खो जाता है। अतिराष्ट्रवाद अक्सर “हम बनाम वे” की सोच को जन्म देता है, जो लोकतांत्रिक मतभेदों को भी देशद्रोह के रूप में देखने लगता है।
- मानवाधिकारों के प्रति उदासीनता
फासीवादी सत्ता मानवाधिकारों को “बाधा” मानती है। गिरफ्तारियों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अल्पसंख्यकों के अधिकार-ये सब धीरे-धीरे सीमित किए जाते हैं और राज्य की शक्ति को सर्वोपरि बताया जाता है।
- दुश्मन की पहचान-एकता का हथियार
चाहे वास्तविक दुश्मन हो या काल्पनिक, फासीवादी राजनीति जनता की नाराजगी को किसी एक समूह, समुदाय या विचारधारा पर थोपती है। इससे सत्ता के चारों और एक कृत्रिम एकता पैदा होती है।
- सैन्य और सुरक्षा तंत्र की सर्वोच्चता
फासीवाद हमेशा पुलिस, सैन्य और सुरक्षा एजेंसियों को “राष्ट्र के रक्षक” बताकर उन्हें असामान्य शक्तियाँ देता है। नागरिक अधिकार इसके सामने गौण हो जाते हैं।
- मीडिया का नियंत्रण और प्रचारतंत्र
फासीवादी शासन की रीढ़ उसका प्रचार तंत्र होता है। या तो मीडिया सीधे राज्य के नियंत्रण में आ जाता है, या फिर आर्थिक-राजनीतिक दबाव के जरिए उसका मौन सुनिश्चित किया जाता है। स्वतंत्र पत्रकार और असहमत आवाजें “राष्ट्रविरोधी” बताई जाती हैं।
- धर्म और सरकार का मिश्रण
फासीवाद अक्सर धर्म को राज्य की नीतियों का औचित्य बनाने के लिए इस्तेमाल करता है। धार्मिक पहचान को राष्ट्रवादी पहचान के साथ जोड़कर एक ‘शुद्ध’ राष्ट्र की छवि गढ़ी जाती है।
- कॉर्पोरेट-राजनीतिक गठजोड़
फासीवादी व्यवस्था में कुछ चुने हुए कॉर्पोरेट समूह राज्य की नीतियों को प्रभावित करते हैं, बदले में वे सत्ता की स्थिरता में योगदान देते हैं। यह आर्थिक असमानता को चरम पर ले जाता है।
- मजदूर संगठनों का दमन
ट्रेड यूनियन और मजदूर संगठनों को कमजोर करना फासीवादी रणनीति का हिस्सा होता है, क्योंकि संगठित मजदूर किसी भी सत्तावादी शासन के लिए चुनौती बन सकते हैं।
- बौद्धिकों, कलाकारों और शिक्षाविदों के प्रति घृणा
फासीवादी समाज में आलोचना को ‘अव्यवस्था’ और बौद्धिक बहस को ‘धोखा’ कहा जाता है। विश्वविद्यालयों, कलाकारों और विचारकों को संदिग्ध, विदेशी-प्रभावित या राष्ट्रविरोधी करार दिया जाता है।
- ‘अपराध और दंड’ का असामान्य जुनून
कानून-व्यवस्था के नाम पर कठोर दंड, हिंसक भाषण और जनता को “सख्ती चाहिए” का माहौल-ये सभी कदम नागरिक स्वतंत्रताओं को सीमित करते हैं और राज्य के नियंत्रण को बढ़ाते हैं।
- भाई-भतीजावाद और भारी भ्रष्टाचार
फासीवादी शासन हमेशा अपने पसंदीदा लोगों को सत्ता, व्यवसाय और प्रशासन में स्थापित करता है। संस्थाओं के भीतर पारदर्शिता समाप्त हो जाती है, जिससे शासन पर सवाल उठाना कठिन हो जाता है।
क्या यह केवल इतिहास है?
फासीवाद का उभार अचानक नहीं होता-यह धीरे-धीरे, चरणबद्ध और अक्सर लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर ही विकसित होता है।
ऐसे संकेत किसी भी लोकतंत्र के लिए चेतावनी हैं, चाहे वह यूरोप हो, एशिया हो, अफ्रीका या अमेरिका।
इन हालातों लोकतंत्र की रक्षा नागरिकों के हाथ में
फासीवाद का मुकाबला केवल चुनावों से नहीं, बल्कि एक जागरूक, आलोचनात्मक और मानवतावादी समाज से किया जा सकता है। जब नागरिक अपने अधिकारों, संस्थाओं की स्वतंत्रता और असहमति के महत्व को समझते हैं-तभी लोकतंत्र मजबूत रहता है।
(इस्लाम हुसैन गांधीवादी कार्यकर्ता हैं)
