नए कृषि विधेयक से क्या बचेगा किसानों का वजूद


केंद्र की मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार द्वारा लाए जा रहे बहुचर्चित कृषि विधेयक को लेकर सरकार और विपक्ष में जबरदस्त तकरार देखने को मिल रही है। विपक्ष इसे किसान विरोधी मान रहा है और सरकार का विपक्ष पर आरोप है कि कई दशक सत्ता में बने रहे विपक्ष के नेता इस विधेयक को लेकर किसान को दिग्भ्रमित कर रहे हैं।

विगत गुरुवार 17 सितम्बर 2020 को जब ये विधेयक, जिसे पहले ही अध्यादेश के रूप में लागू किया जा चुका है और विधेयक पारित कर क़ानून बनाने की पूरी तैयारी की जा रही है। विधेयक को जब संसद में चर्चा के लिए रखा गया था तब प्रधानमंत्री सदन में मौजूद नहीं थे और जब इस विधेयक पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला तो प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी सरकार और बिल का बचाव करते हुए न केवल देश के किसान समुदाय को आश्वस्त किया बल्कि अपने राजनीतिक विरोधियों को भी यह कहते हुए आड़े हाथों लिया कि वो विधेयक को लेकर किसानों को गुमराह कर रहे हैं।

विपक्ष का मतलब अगर कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी या ऐसी ही धुर भाजपा विरोधी पार्टी समझा जाए तो प्रधान मंत्री के इस बयान पर यकीनन भरोसा किया जा सकता है कि विपक्ष राजनीतिक कारणों से सरकार को नीचा दिखाने की गरज से इस विधेयक को लेकर किसान समुदाय को गुमराह और दिग्भ्रमित कर रहा है। पर तस्वीर का दूसरा पहलू भी एकदम साफ़ है जिसमें प्रधानमंत्री के जन्म दिन के ही दिन, देर रात केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन के एक प्रमुख और सबसे पुराने घटक शिरोमणि अकाली दल के कोटे की इकलौती केन्द्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने अपने संवैधानिक पद से इस्तीफा दे दिया था।

हरसिमरत कौर के इस्तीफा देने की वजह साफ़ है और वजह यह है कि किसान विधेयक किसान विरोधी है और देश का किसान इससे नाराज है । किसान की यह नाराजगी सरकार यानी केंद्र में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल से है और जो भी पार्टी सत्तारूढ़ दल के साथ दिखाई देगी उसे चुनाव में नुक्सान उठाना पड़ सकता है।

इस विधेयक को लेकर किसानों की नाराजगी काफी पहले से समझ में आ भी रही थी और शायद इसी डर को भांप कर ही हर सिमरत कौर के सांसद पति और अकाली दल के प्रमुख, पंजाब के पूर्व उप मुख्य मंत्री सुखबीर सिंह बादाल ने उसी दिन जब संसद में यह विधेयक पेश किया जा रहा था तब न केवल विपक्षी सांसदों के साथ मिल कर किसान विधेयक का विरोध किया था बल्कि विरोध करते हुए संसद के निचले सदन लोकसभा से बहिर्गमन भी किया था।

उन्नत और बम्पर खेती की दृष्टि से उत्तर भारत के किसान बहुल समझे जाने वाले दो प्रमुख राज्य पंजाब और हरियाणा में किसान कई महीनों से इस विधेयक के खिलाफ आन्दोलन कर रहे हैं। किसानों का यह आन्दोलन तबसे चल रहा है जब से इस विधेयक को राष्ट्रपति के अध्यादेश से लागू किया गया था।

अब इसे संसद से पारित करवा कर स्थायी क़ानून बनाने की कोशिश की जा रही है तो विरोध और नाराजगी की आंच देश के सर्वोच्च विधायी निकाय संसद तक भी पहुंची है। विपक्ष इसे संसद की प्रवर समिति को सौंपने की बात कर रहा है ताकि इसके तमाम पहलुओं पर विस्तार में चर्चा के बाद देश और किसानों की जरूरत के अनुरूप संशोधन किये जा सके और किसान हित में इसे लागू भी किया जा सके।

विपक्ष की यह मांग मानने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई देती क्योंकि उस पर देश-विदेश के उन उद्योगपतियों और खरीद-फरोख्त के व्यवसाय में लगे धन पशुओं का दबाब है जो इस विधेयक के जल्दी से जल्दी क़ानून बनने का इन्तजार कर रहे हैं। इस वर्ग को किसान किसान विधेयक के पारित होने का इन्जार इसलिए भी है क्योंकि इसके बाद यह वर्ग कानूनी तौर पर न केवल किसानों को अपनी पसंद की फसल उगाने के लिए बाध्य कर सकता है बल्कि इस वर्ग को इस क़ानून से किसान को फसल का दाम भी यह अपनी सुधा और जरूरत के हिस्साब से चुकाने का अधिकार भी मिल जाएगा।

इस कानून के बनने से किसान को सबसे बड़ा खतरा यह भी नजर आने लगा है कि जब उसकी जमीन पर उद्योगपति अपनी सुविधा के हिसाब से ही पैदावार करवाएगा, फसल का दाम भी अपनी सुविधा से चुकाएगा और किसान के पास अपनी फसल को अपनी सुविधा से बेचने का विकल्प ही नहीं रह जाएगा तो एक दिन उसकी जमीन भी उसके हाथ से निकल जायेगी।

जमीन छिनने का यह डर किसान के मन में इसलिए भी पैदा हुआ क्योंकि नए क़ानून में कुछ प्रावधान ऐसे हैं जिनमें यह व्यवस्थ है कि किसान को अपनी फसल बेचने के लिए दर-दर भटकना नहीं पड़ेगा। क्योंकि जो भी पूंजीपति फसल की बुवाई से पहले जमीन का ठेका लेगा उसे किसान को पैदावार का पैसा पहले ही अदा करना होगा। यह एक तरह से जमीन को ठेके पर लेने जैसा होगा।

ठेके की कीमत अदा करने के बाद उस जमीन में फसल की बुवाई से लेकर निराई, गुड़ाई, कटाई और फसल को खलिहान तक पहुंचाने तथा खलिहान से बाजार और बाजार से उपभोक्ता तक पहुंचाने तक के सारे काम उसी कंपनी के जिम्मे होंगे जिसने जमीन ठेके पर ली है। इन सभी कामों में होने वाले खर्च की भरपाई भी वही कंपनी करेगी और जो भी फायदा होगा वो उसी कंपनी का ही होगा। अलबत्ता ठेके के रूप में अपनी जमीन की कीमत मिल जाने के बाद किसान को उसी फसल की पैदावार करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा वह कंपनी चाहती है।

एक तरह से उस जमीन का मालिकाना हक़ परोक्ष रूप से उस कंपनी के पास चला जाएगा और किसान जमीन का मालिक होते हुए भी अपनी ही जमीन पर बेगारी करने को विवश हो जाएगा। ऐसे में एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि किसान जमीन बेचने को ही मजबूर हो जाए। अपनी जमीन हाथ से निकल जाने का यह डर देश के आम किसान के अन्दर इस कदर डरावने रूप में घर कर गया है कि उसे आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प नजर आने लगा है।

इसी डर ने किसान को आन्दोलन करने पर विवश कर दिया है। पंजाब में तो 18 सितम्बर को ही धरना देते हुए एक किसान ने जहर खाकर आत्म हत्या कर ली थी और हरियाणा के कुरुक्षेत्र में मनोहर लाल खट्टर की नेतृत्व वाली सरकार को कुछ दिन पहले ही आन्दोलन कारी किसानों पर लाठी और गोली चलाने के आदेश तक देने पड़े थे।