
भारत में बौद्ध धर्म की छह सदियों लंबी गुमनामी के बाद इसका फिर से खोज लिया जाना सिर्फ एक संयोग का नतीजा है। बनारस के राजा चेत सिंह के दीवान (प्रधानमंत्री) जगत सिंह ने सन 1794 ई. में चेतगंज बाजार बसाने के लिए शहर से थोड़ी ही दूर जंगलों से घिरे सारनाथ नाम के वीराने में मौजूद मिट्टी और ईंट-पत्थरों के एक ढूह से ईंटें निकालने का हुकुम जारी कर दिया। खुदाई-ढुलाई जारी थी कि एक दिन मजदूरों के बीच यह बात फैल गई कि ढूहे से कुछ इंसानी हड्डियां भी निकल रही हैं।
इसके कुछ दिन बाद वहां से हरे संगमरमर की एक पेटी में सोने के पत्तर, मोती और कुछ अन्य बहुमूल्य चीजें निकल आईं। सूचना मिलने पर अंग्रेज रेजिडेंट ने तत्काल खुदाई रोक देने को कहा। ये खंडहर किसी विशद निर्माण की ओर इशारा कर रहे थे, लेकिन प्रेक्षण बता रहे थे कि यह न तो कोई किला था, न महल, न कोई मंदिर।
सन 1798 में यहां से मिली लिखावटें और पुरातात्विक महत्व की कुछ अन्य चीजें यूरोपीय इतिहासकारों के पास अध्ययन के लिए भेजी गईं। सालोंसाल मगजमारी के बाद भी इनका किस्सा पश्चिमी विद्वानों की समझ से बाहर ही रहा। लेकिन सन 1818 में पिंडारियों का पीछा करते बंगाल घुड़सवार सेना के मेजर जनरल जेम्स टेलर का सामना सांची-कनिखेरा नाम की जगह पर कुछ विचित्र किस्म के ढूहों से हो गया।
इन ढूहों की शुरुआती खोजबीन के आधार पर 1819 में उन्होंने एक रिपोर्ट प्रकाशित कराई कि सांची-कनिखेरा के ये खंडहर न सिर्फ सारनाथ में मिले स्थापत्य से मिलते-जुलते हैं, बल्कि दोनों जगह पाई गई लिखावटें भी हूबहू एक जैसी हैं। फिर अगले बीस सालों में ईस्ट इंडिया कंपनी के तमाम फौजी अफसरों में इस तरह की बनावटें और लिखावटें खोजने की होड़ सी लग गई। जंगल में पड़ा कोई भी ढूहा खोदने पर ऐसी ही चीजें!
प्रिंसेप का कमाल
कमाल तब हुआ जब सन 1838 में बहुविषयी विद्वान और ‘एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल’ नाम की शोध पत्रिका के संपादक जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों को पढ़ने में सफलता प्राप्त कर ली। यह काम उन्होंने ‘असोक पियदसी’ नाम के राजा के शिलालेखों के अध्ययन के क्रम में किया, जिन्हें पढ़कर यह भी पता चला कि उसने ‘साकियमुनि’ के चलाए धर्म की दीक्षा ली थी।
बाद में श्रीलंका (सीलोन) में तैनात ब्रिटिश अफसरों के साथ हुए पत्राचार से पता चला कि यह राजा असल में वहां के धर्मग्रंथों में आया ‘पियदसिन असोक’ ही है। यह भी कि सारनाथ और सांची की विचित्र बनावटें ‘स्तूप’ कहलाती हैं, जो बौद्ध धर्म का एक नियमित ढांचा है। यह पुरातात्विक निष्कर्ष उस विक्टोरियन दौर के ब्रिटिश विद्वानों को अतीत के एक ‘अद्भुत नैतिक धर्म’ की खोज की तरफ ले गया, हालांकि इस रौ में उन्होंने हीनयान को ज्यादा तरजीह दी और ‘कम नैतिक’ दिखने वाली कुछ अलग मिजाज की महायानी और वज्रयानी बौद्ध कृतियों की अनदेखी भी की।
ठीक इसी बिंदु पर पांचवीं और सातवीं सदी के चीनी तीर्थयात्रियों फाह्यान और ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1830 के दशक में इनका चीनी से फ्रांसीसी भाषा में अनुवाद हुआ और 1840 के दशक में ये किताबें अंग्रेजी में भी आ गईं। ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों का आम मिजाज खजाने की खोज में जुटे रहने वालों जैसा ही था।
उन्हें पता था कि भारत की पुरानी चीजें यूरोप के कला संग्राहकों के बीच कितने ऊंचे भाव पर बिकती हैं। सो उन्होंने फाह्यान-ह्वेनसांग की किताबों को खजाने के नक्शों की तरह लिया और बौद्ध धर्म की खोज के क्रम में कई दुर्लभ पुरातात्विक वस्तुओं का वारा-न्यारा भी करते गए।
टकराव और विलोप
इस तरह भारत में कई उतार-चढ़ावों के साथ लगभग सत्रह सौ साल बहुतेरी छटाओं में मौजूद रहे और ईसा की तेरहवीं सदी में पूरी तरह विलुप्त हो गए बौद्ध धर्म को एक विदेशी सत्ता द्वारा फिर से खोजने में छह सौ साल लग गए। लेकिन मामले का दूसरा पहलू यह है कि इसको खोजे हुए अभी दो सौ साल भी नहीं हुए हैं और लोगों में कन्फ्यूजन इतना गहरा है कि आप किसी से पूछकर देखें, वह मानने को ही राजी नहीं होगा कि बुद्ध का धर्म तो क्या उनका नाम भी भारत से बहुत लंबे वक्त के लिए सिरे से गायब हो गया था।
सवाल यह है कि ऐसा हुआ क्यों। आसान जवाब यह दिया जाता है कि मोहम्मद गोरी के एक सरदार बख्तियार खिलजी ने सारे बौद्ध स्थल ढहा दिए। लेकिन थोड़ा भी तह में जाने पर हमें बौद्ध धर्म और सनातन धर्म के बीच शुरू से अंत तक टकराव के सबूत मिलते हैं। कल्कि पुराण में तो बाकायदा बौद्ध विरोधी अवतारी युद्ध दिखता है। ‘धर्म’ की रक्षा के लिए कीकट प्रदेश (मगध) में बौद्ध राजा का वध करने भगवान स्वयं चले जाते हैं!
वेदों की काव्यात्मकता, कल्पनाशीलता और कुछ मामलों में उनकी दृष्टि के खुलेपन की प्रशंसा पूरी दुनिया में होती आई है। लेकिन हजारों साल से हाशिये पर डाल दी गई भारत की बहुसंख्य आबादी को समस्या इन बातों से नहीं, वेदों की समाज दृष्टि से रही है, जिसपर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बहुत कम बात होती है।
यह कोई दो-चार-दस श्लोकों का नहीं, हजारों साल से चलती आ रही वर्णवादी समाज व्यवस्था और उसी के भीतर से उगी जातिप्रथा का मामला है। मनुष्यों के बीच ऊंच-नीच वाले बंटवारे की सोच दुनिया के सभी पुराने दर्शनों और धर्मग्रंथों में रही है, लेकिन वेदों में इसे ईश्वरीय पैमाने तक खींच दिया गया है।
इतिहास में ऐसे ग्रंथों को एक तरफ रखकर आगे बढ़ जाने की एक परंपरा भी रही है, लेकिन भारत में इस आत्यंतिक विभाजनकारी सोच ने कुछ-कुछ वजहों से कभी मद्धिम पड़ने का नाम ही नहीं लिया। भारत की अवैदिक संस्कृतियों में कुछेक स्वभावतः वैदिक संस्कृति से अलग बनी रहीं, लेकिन इनमें कुछ ऐसी भी हैं जो वैदिक संस्कृति का निषेध करती हुई खड़ी हुईं और कई अवैदिक कबीले भी स्वाभावतः उनमें शामिल होते गए।
खात्मे की नौबत क्यों आई
ऐसी सभी अवैदिक संस्कृतियों की अनदेखी करके केवल बौद्ध संस्कृति को लेकर ही मरने-मारने वाला सनातनी रवैया संभवतः दो कारणों से दिखता रहा है। एक तो इसलिए कि इस धारा ने बहिष्कारवादी (एक्सक्लूसिविस्ट) वैदिक समाज व्यवस्था का एक मजबूत विकल्प विकसित किया। दूसरा इसलिए कि बुधिज्म ने बाकी अवैदिक धाराओं की तरह अपनी अलग बस्ती बसाकर संतुष्ट रहने का रुख कभी नहीं दिखाया।
बौद्ध दर्शन डेढ़ हजार साल तक लगातार वैदिक दर्शन से ज्यादा उसकी समाज दृष्टि के खिलाफ सीधी बहस में उतरा रहा और इस क्रम में उन समुदायों के भी एक हिस्से को अपने दायरे में लेता गया, जिन्हें वैदिक समाज-व्यवस्था का दिमाग, भुजा और रीढ़ समझा जाता रहा है। यही वजह है कि इस कथित ‘मुख्यधारा’ को जब मौका मिला तो इसने भारत से बुद्ध का नाम मिटा दिया और देश की मुख्यभूमि में उनके धर्म की एक बस्ती भी न छोड़ी।
कुछ बड़े आसान से नुस्खे भारत से बौद्ध धर्म की विदाई को लेकर सुझाए जाते रहे हैं, जो लगभग आधी दुनिया में इस धर्म के फैलाव और अन्य धर्मों पर हुए इससे भी घातक हमलों को देखते हुए परिणाम की दृष्टि से अटपटे लगते हैं। विलोप इसी के हिस्से क्यों आया, औरों के क्यों नहीं? और सब छोड़िए, विपुल संस्कृत साहित्य में आपने क्या कभी जगत्प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय का कोई जिक्र सुना है? यहां, भाषा के भीतर इस महाविहार का विलोप करने कम से कम कोई खिलजी तो न आया होगा!
इसका वैचारिक पक्ष देखें तो काफी अलग विचारधारात्मक पहचान वाले मध्यकाल के तीन आधुनिक व्याख्याताओं राहुल सांकृत्यायन, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और हजारीप्रसाद द्विवेदी की उस दौर के प्रभावी बौद्ध पंथों वज्रयान/ सहजयान के बारे में कुछ ऐसी साझा राय पढ़ने को मिलती है कि इतने अतार्किक और अनैतिक धर्म का तो भारत भूमि से विलुप्त हो जाना ही अच्छा था।
निरंतरता में दिखता कैसा था
मेरा शोध उन चार सौ वर्षों की अवधि पर ही केंद्रित है, जब भारत में इस धर्म की जड़ें खोद दी गई थीं। इस काम के लिए सबसे पहले यह जानना जरूरी था कि बौद्ध धर्म अपनी निरंतरता में दिखता कैसा था। थोड़ा-बहुत संपर्क मेरा महाराष्ट्र के नवबौद्धों से भी रहा है, लेकिन उनका धर्म इतना नया है कि इससे मेरा मकसद पूरा नहीं होने वाला था। बता दूं कि इस दिशा में मेरी शुरुआत 2015 की तिब्बत यात्रा और इसकी निरंतरता में ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ किताब लिखने के क्रम में हुई थी।
नेपाल और तिब्बत के बौद्धों से मिलना इस लिहाज से काफी अच्छा रहा, लेकिन पुरानी बौद्ध संस्कृति के सबसे दूरस्थ रूप से संपर्क दिल्ली में ही हुआ। यहां निजामुद्दीन के पास स्वर्ण जयंती पार्क में विश्व शांति स्तूप परिसर में ही कुटिया बनाकर रहने वाली कात्सू बेन के साथ उनकी सायं पूजा में मैं कुछ दिन बैठा। दुनिया में बौद्ध धर्म के बहुत सारे रूप देखने को मिलते हैं, जिनमें इसके कुल चार-पांच रूपों से ही मैं सीधे संपर्क में आ सका। ज्यादातर के बारे में पढ़कर या वीडियो देखकर ही जानकारी हासिल की।
लेकिन इतनी भागदौड़ भी एक खास नतीजा निकालने के लिए काफी थी कि कथित ‘सनातन धर्म’ की दो विशेषताएं संसार में कहीं भी पाई जाने वाली बौद्ध धर्म की किसी भी शाखा में मौजूद नहीं हैं। 1. जन्म के आधार पर किसी को अपने लिए सदा-सर्वदा पराया समझ लेना, पारिभाषिक रूप में कहें तो नस्लवाद। और 2. जाति/वर्णवाद, यानी जन्म के ही आधार पर किसी का पूरा जीवन निर्धारित करना, सबके लिए अलग-अलग पिंजरे बनाकर एक को औरों से ऊंचा और दूसरे को नीचा घोषित करना।
जैसा ऊपर कहा जा चुका है, ये दोनों बातें वैदिक या सनातन धर्म का आधार रही हैं। आधुनिक युग में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इसे स्पष्ट चिह्नित किया, लेकिन बौद्धों के बीच ऐसी एक समझ उनके समूचे इतिहास और आधे से ज्यादा एशिया में फैले भूगोल में इतनी मजबूती से बनी रही कि वर्ण-जाति की ‘पवित्र बीमारी’ उन्होंने कभी अपने भीतर नहीं पनपने दी।
घर में रहकर भी पराये
यह इस धर्म की आंतरिक शक्ति ही है कि श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, लाओस से लेकर चीन, तिब्बत, कोरिया, जापान, विएतनाम और कंबोडिया तक सारी उथल-पुथल के बावजूद इस धर्म के ढांचे में जन्म के आधार पर किया गया स्थायी श्रेणीकरण, यानी जाति या वर्ण जैसी व्यवस्था कहीं भी नहीं बनाई जा सकी। यह ‘सभ्यतागत विशिष्टता’ जितना भारत को बाकी दुनिया से अलग करती है, उतना ही बौद्ध धर्म को भी भारत के लिए पराया बनाती है।
बुद्ध के धर्म के शुरुआती तीन सौ वर्षों में उसके खुले नजरिये के चलते ही बड़ी तादाद में यूनानी इसमें शामिल हुए। छोटी सी लेकिन दर्शनशास्त्र की अत्यंत गहरी पुस्तक मिलिंद पन्ह (मिलिंद प्रश्न) दूसरी सदी ईसा पूर्व में शागल (मौजूद स्यालकोट) पर राज करने वाले ग्रीक राजा मिनांडर (मिलिंद) और भिक्षु नागसेन के बीच दर्शन के कुछ बुनियादी सवालों पर हुई लंबी बातचीत पर आधारित है। फिर उत्तर से आए हुए शक (सीथियन) इसका हिस्सा बने। दो हजार साल से ज्यादा पुराने कई अवशेषों में ‘शकस्थान’ के कल्याण के लिए की गई बुद्ध प्रार्थनाएं मिलती हैं।
ईसा युग की शुरुआत के साथ पश्चिमी चीन से निकली यूची जाति का सम्राट कनिष्क इस धर्म में आया, जिसकी राजधानियां मथुरा और पेशावर में थीं लेकिन जिसका राज पूरब में सीरिया तक और उत्तर में मंगोलिया से सटे चीन के कांसू प्रांत तक जाता था। अफगानिस्तान, उत्तरी ईरान और चीनी तुर्किस्तान सैकड़ों साल तक इस धर्म का गढ़ बने रहे। तिब्बत समेत समूचे चीन, मंगोलिया, कोरिया प्रायद्वीप और कंबोडिया-वियतनाम का शासक, मंगोल सम्राट कुबलाई खान अशोक और कनिष्क के बाद बौद्ध धर्म से जुड़ा तीसरा सबसे प्रतापी सम्राट बना।
एक सुंदर प्राचीन बुद्ध मूर्ति अभी दो-तीन साल पहले रोम में भी पाई गई है। प्राचीन भारत की विश्वव्यापी महिमा काफी कुछ इस धर्म से ही आई है, फिर भी क्या कमाल कि देखते-देखते भारत से यह इस तरह गायब हुआ कि और तो और, भक्तिकालीन कवि भी इसका नाम लेना भूल गए!
विश्व गुरुआई का दावा
भारत में बौद्ध धर्म के विलोप को लेकर खोजबीन करने का मकसद किसी में अपराधबोध जगाना या किसी को दोषी ठहराना नहीं, अपनी सभ्यता के डीएनए में मौजूद एक छोटे से आत्मघाती हिस्से पर मार्कर रखना है। जैसे मानसिक बीमारियों में लोग दवा खाना भूल जाते हैं, या डॉक्टर के बताए समय पर याद करके सारी दवाएं निकालते हैं, फिर उठाकर कहीं फेंक आते हैं, वैसे ही हमारी प्रवृत्ति ‘जन्म-आधारित नियति’ की अपनी सामाजिक बीमारी से नजर फेर लेने या इसका औचित्य बताने की है।
भारत के बौद्धिक जगत में इस बीमारी की फिक्र डॉ. आंबेडकर तक ही सीमित क्यों रहनी चाहिए थी? मुड़कर देखें तो भारत से बौद्ध धर्म की विदाई के बाद दिल्ली सल्तनत से लेकर अंग्रेजी राज तक भारत के आधुनिक जन-गण के मन की रचना सूफिज्म और भक्ति की फेंटफांट से ही हुई है। साम्राज्य के षड्यंत्र अपनी जगह, लेकिन 1947 में एक साथ आए देश विभाजन, स्वतंत्रता और लोकतंत्र हमारे इसी कटे-फटे राष्ट्रीय मानस की देन हैं।
हालत यह है कि बुद्ध की छायाओं से बना कबीर, रैदास और नानक का इंसानी बराबरी का सपना कब चलन से बाहर हुआ, पता भी नहीं चला। भूमंडलीकरण के भड़कीले हल्ले में ‘राम-राज्य’ का वर्णाश्रमी यूटोपिया देखते-देखते यूं छा गया, जैसे यही हमारी संस्कृति का लक्ष्य हो। ‘विश्वगुरु’ की दावेदारी वाला यह रास्ता असल में असह्य असमानता, संकीर्णतम विभाजन और चिरंतन अशांति का है। ऐसे में आज जब नवबौद्धों को भी एक जाति तक महदूद किया जा चुका है, तब इस चिंता पर लौटना कैसे हो पाएगा कि बुद्ध को भूलकर आखिर हम जा कहां रहे हैं!
(चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)