नेपाली युवकों और छात्रों के आंदोलन ने एक शानदार पहल का भ्रम पैदा किया, पर चंद घंटों के अंदर ही उसका अराजक, बर्बर और दिशाहीन स्वरूप नजर आने लगा। अतीत में पिछले 150 वर्षों के दौरान यहां अनेक आंदोलन हुए, बहुतों ने अपना बलिदान दिया, लेकिन सामंतवाद की जकड़ से जनता को मुक्ति नहीं मिल सकी। बेशक, 1996 में माओवादियों के नेतृत्व में शुरू हुए जनयुद्ध ने 2008 में राजतंत्र को उखाड़ फेंका। लगभग 250 साल की राजशाही का स्थान गणराज्य ने ले लिया। यह एक क्रांति थी-सफल क्रांति। और उस समय से ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रांतिकारी शक्तियां सक्रिय हो गई थीं।
नेपाल में माओवादियों की सफलता और समूचे देश में वामपंथ की लहर से प्रतिक्रांतियों का सरगना अमेरिका दहशत में आ गया। अगर पड़ोस में चीन नहीं होता और नेपाल कोई लैटिन अमेरिकी देश होता, तो वह बहुत पहले अपने सैनिक यहां उतार देता। उसने चाहा था कि नेपाल को भी इंडोनेशिया की हालत में पहुंचा दे, पर ऐसा हो नहीं सका। उसने बड़े धैर्य के साथ उचित समय का इंतज़ार किया।
इधर, 2008 के बाद से अब तक के 17 वर्षों में सत्ता के शिखर पर बैठे राजनेताओं के तौर-तरीकों ने, उनके भ्रष्टाचार ने और जनता की बुनियादी मांगों के प्रति उनके उपेक्षापूर्ण व्यवहार ने इन नेताओं और जनता के बीच ऐसी दूरी पैदा की, जिसे पाटना असंभव लग रहा था। केपी ओली हों या शेर बहादुर देउबा-दोनों में कौन ज़्यादा भ्रष्ट है, यह तय करना मुश्किल है, लेकिन प्रचंड का इस कतार में शामिल होना अत्यंत त्रासद है। बेशक, इन दोनों की तुलना में प्रचंड को कम भ्रष्ट कहा जाता है, पर प्रचंड तो एक विचारधारा से बंधे कम्युनिस्ट नेता थे। उनके साथ भ्रष्ट विशेषण का जुड़ना इन दोनों के भ्रष्टाचार की तुलना में कई गुना ज़्यादा गंभीर है।
राजतंत्र की समाप्ति से सबसे ज़्यादा बेचैनी अमेरिका को हुई। 28 फरवरी 2003 को वाशिंगटन में अमेरिका के उप सहायक विदेश मंत्री डोनाल्ड कैंप ने एक आयोजन में बोलते हुए कहा कि अगर नेपाल में माओवादियों को सफलता मिलती है, तो इससे अमेरिका के राष्ट्रीय हितों को चोट पहुंचेगी। उन्होंने यह भी कहा कि नेपाल की स्थिति पर अमेरिका ‘हर रोज़’ ध्यान दे रहा है। यह तब की बात है, जब माओवादी जनयुद्ध चल रहा था।
दक्षिण एशिया में भारत के सहयोग के बिना अमेरिका अपनी चौधराहट नहीं चला सकता, और भारत सदा से ही राजशाही का साथ देता रहा। नेपाल के संदर्भ में इसका मूल सिद्धांत था ‘ट्विन पिलर थ्योरी’ यानी दो स्तंभों का सिद्धांत-एक स्तंभ राजतंत्र और दूसरा राजनीतिक दल। नेपाल की स्थिरता के लिए वह इसे ज़रूरी मानता था। इन सबके बावजूद, प्रचंड के नेतृत्व वाली जनमुक्ति सेना ने राजा ज्ञानेंद्र के नेतृत्व वाली शाही नेपाली सेना को करारी शिकस्त दी और राजधानी काठमांडू को चारों तरफ से घेर लिया। अमेरिका मन मसोसकर रह गया।
अब अमेरिका ने नेपाली सेना में घुसपैठ शुरू की, और गणराज्य बनने के बाद यह काम बड़ी तेज़ी से हुआ। अब तक परंपरागत तौर पर माना जाता रहा है कि भारत और नेपाल की सेना के बीच एक भाईचारे का संबंध है। यह बात सच भी है। इस बारे में यहाँ विस्तार से लिखने का समय नहीं है। लेकिन अमेरिका की घुसपैठ पर आम तौर पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया। अगर इस तरफ प्रचंड का ध्यान दिलाया गया, तो उन्होंने इसे बहुत हल्के में लिया। एक अपुष्ट जानकारी के अनुसार, नेपाली सेना के 200 से भी ज़्यादा अधिकारी अमेरिका के लाभभोगी हैं, और यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है।
सोशल मीडिया पर लगाए गए प्रतिबंध को बहाना बनाकर ‘ज़ेन जी’ का जो आंदोलन शुरू हुआ, वह निश्चित रूप से युवकों की वास्तविक मांगों को लेकर था और पहली नज़र में स्वतःस्फूर्त लग रहा था, पर यह स्वतःस्फूर्त नहीं था, बल्कि बाकायदा अच्छी तरह संगठित और व्यवस्थित था। इन युवकों की वास्तविक शिकायतों का अपने पक्ष में इस्तेमाल करने वाली ताकतें परदे के पीछे से संचालन कर रही थीं, और अमेरिका नेपाल में जनतंत्र-विरोधी, गणराज्य-विरोधी, वामपंथ-विरोधी अपने एजेंडे को लागू करने और प्रतिक्रांति को अंजाम देने के लिए कमर कसकर मैदान में आ गया।
इसका आभास मुझे आंदोलन के दूसरे ही दिन हो गया, जब खबर आई कि सेना प्रमुख ने प्रधानमंत्री केपी ओली को इस्तीफा देने को कहा है। इससे पहले कभी भी नेपाल में किसी सेना प्रमुख ने यह साहस नहीं किया था कि वह निर्वाचित प्रधानमंत्री को आदेश/निर्देश दे। जितने बड़े पैमाने पर आंदोलनकारियों द्वारा सरकारी संपत्ति नष्ट की गई, उससे भी देश और जनता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का पता चलता है।
इस आंदोलन का संचालन कौन लोग कर रहे थे, इसकी जानकारी अब धीरे-धीरे सामने आ रही है। मुख्य किरदारों में हैं-बालेन्द्र (बालेन) शाह, जो काठमांडू के मेयर हैं, और सुदन गुरुंग, जो ‘हामी नेपाल’ नामक एनजीओ के संचालक हैं। टाइम पत्रिका के 2023 के शीर्ष 100 लोगों में बालेन शाह का नाम शामिल है। सुदन गुरुंग के ‘हामी नेपाल’ नामक एनजीओ को कुछ अमेरिकी कंपनियों से करोड़ों रुपये की वित्तीय सहायता मिली है।
अभी यह कहना कि भविष्य में नेपाल कौन-सी दिशा लेगा, जल्दबाज़ी होगी। फिर भी, इसमें कोई संदेह नहीं कि नेपाल अपने इतिहास के सबसे भीषण दौर से गुज़र रहा है। दो दिनों के पागलपन के बाद अब नेपाल के विचारवान लोग भी आत्ममंथन कर रहे हैं कि यह सब कैसे हुआ! बहुत सजग और सतर्क रहने की ज़रूरत है।
(आनंद स्वरूप वर्मा वरिष्ठ पत्रकार और नेपाल-भूटान मामलों के विशेषज्ञ हैं)