अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति है। चीन दूसरे नंबर की आर्थिक शक्ति है। भारत भी आर्थिक शक्ति के रूप मे उभर रहा है। वैसे में इन देशों के लीडर डोनाल्ड ट्रंप, शी जिनपिंग और नरेंद्र मोदी की भी अपनी एक वैश्विक पहचान है। इसके बावजूद क्यों यूरोपीए देशों के लीडरों के सामने इनका कद छोटा नजर आ रहा है? जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कोरोना महामारी के दौरान अमेरिका, चीन औऱ भारत के लीडरशीप को काफी पीछे छोड़ दिया है। अमेरिका और भारत कोरोना से निपटने में बुरी तरह से विफल नजर आ रहे है। अमेरिका मे लगातार रोगियों की संख्या बढ़ रही है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप उधर अपनी चुनावी जीत के लिए तमाम तिकड़म लगा रहे है। अमेरिकी फेडरल सिस्टम को नुकसान पहुंचा रहे है। डेमोक्रेट प्रशासित राज्यो में फेडरल फोर्सेस भेज रहे है। अमेरिका में ही कोरोना से सबसे ज्यादा मौतें भी हुई है। इधर भारत मे भी कोरना की स्थिति भयावह हो गई है। कोरोना से निपटने में हेल्थ सिस्टम फेल हो गया है। उधर सख्त लॉकडाउन ने देश की अर्थव्यवस्था तबाह कर दी है। इस बीच राजस्थान की राज्य सरकार को कोरोना काल में ही अपदस्थ करने का खेल भी शुरू हो गया है। जब राज्य और केंद्र सरकार को मिलकर कोरोना से निपटना चाहिए, उस समय दोनों सरकारों के बीच जंग हो रही है। हालांकि चीन ने कोरोना को नियंत्रित करने का दावा किया है। वहां की इकनॉमी भी दुबारा चल पड़ी है। लेकिन जिनपिंग ने जिस तरह से भारतीय सीमा पर तनाव पैदा किया है, उससे पूरी दुनिया में उनकी साख गिरी है। एक तरफ जब चीन के पड़ोसी भारत, वियतनाम जैसे देश कोरोना से निपटने में लगे हुए है, चीन इन मुल्कों की सीमाओं में घुसपैठ कर रहा है।
जर्मनी और फ्रांस कभी एक-दूसरे के घोर दुश्मन थे। पहले औऱ दूसरे विश्व युद में अलग-अलग गुटों में रहे। लेकिन आज पूरी दुनिया को सहयोग की राह दिखा रहे है। खासकर कोरोना महामारी के दौर में। यूरोपीए यूनियन के सदस्य देशों ने महामारी के दौर में कोविड से सबसे ज्यादा पीडित यूरोपीए देशों की सहायता के लिए 857 अरब डालर का पैकेज मंजूर कर लिया है। इसमें 446 बिलियन डालर बतौर ग्रांट कोरोना से गंभीर रूप से प्रभावित सदस्य देशों को दिया जाएगा। 411 बिलियन डालर कर्ज के तौर पर दिया जाएगा। इस पैकेज पर सहमति बनाकर यूरोपीए देशों ने पूरे विश्व को सहयोग और शांति का रास्ता दिकाया है।
यूरोपीए देशों ने दुनिया को बताया है कि क्षेत्रीए सहयोग से संकट से निपटा जा सकता है। इस पैकेज ने एशियाई देशों के लीडरशीप पर सवाल उठाया है, जो आपस में कोरोना के दौरान भी तनाव पैदा कर रहे है। क्या कोरोना महामारी के दौर में एशियाई राष्ट्राध्यक्षों से इस तरह के सहयोग की उम्मीद की जा सकती है? कहने को तमाम क्षेत्रीए सहयोग संगठन बने हुए है। आर्थिक सहयोग संगठन बने हुए है। ब्रिक्स है, सार्क है, शंघाई सहयोग संगठन है, इस्लामिक सहयोग संगठन है। लेकिन कोविड-19 के दौर में ये संगठन किधर है ?
कोरोना से यूरोप बुरी तरह प्रभावित हुआ है। यूरोप में लगभग 27 लाख लोग कोरोना से संक्रमित हो गए। 1.35 लाख लोगों की जान कोरोना से चली गई। पूरे यूरोप की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई। वैसे में यूरोपीए यूनियन के कुछ अमीर सदस्य देशों ने महामारी से सबसे ज्यादा पीड़ित देशों की सहायता पर विचार किया। इसी विचार का परिणाम 857 अरब डालर का पैकेज है। इसका सबसे ज्यादा लाभ दक्षिणी यूरोप के देशों को होगा। इसका सबसे ज्यादा लाभ कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों को होगा। यूरोप के कई देश कोरोना से बुरी तरह से प्रभावित हुए है।
हालांकि बहुत आसानी से यूरोपीए यूनियन के देशों के बीच इस पैकेज पर सहमति नही बनी है। आस्ट्रिया, स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड जैसे देश इस आर्थिक पैकेज के विरोध में थे। उनका तर्क था कि उतरी यूरोपीए देशों के धन का बेजा इस्तेमाल दक्षिणी यूरोपीए देश करेंगे। इन देशों का तर्क था कि दक्षिणी यूरोपीए देश पैकेज का दुरूपयोग भी करेंगे। लेकिन जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने मोर्चा सम्हाला। कोरोना प्रावित पीड़ित देशों को ग्रांट के रुप में सहायता देने के पक्षधऱ ये दोनों राष्ट्राध्यक्ष थे। अंत में उन्होंने सारों को राजी कर लिया। इस पैकेज की सबसे बडी खासियत यह है कि कुल पैकेज की आधी राशि ग्रांट के रुप में यूरोपीए यूनियन के सदस्य देशों को दी जाएगी। इस पूरे पैकेज के लिए धनराशि का इंतजाम अंतराष्ट्रीय मुद्रा बाजार से किया जाएगा। इसके लिए यूरोपीए यूनियन के सदस्य देश अपने सामूहिक वित्तीय दबदबा का इस्तेमाल करेंगे।
इतिहास गवाह है कि किसी जमाने में फ्रांस और जर्मनी एक दूसरे के दुश्मन थे। पहले विश्व युद में दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ थे। दूसरे विश्व युद मे भी दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ जंग के मैदान में रहे। जमकर एक दूसरों को नुकसान पहुंचाया था। इस समय यूरोप के देश पूरी दुनिया के सामने एक आदर्श प्रस्तुत कर रहे है। क्या यह एशियाई देशों में संभव है ? क्या पूरे एशिया में कोई राष्ट्राध्यक्ष नजर आ रहा है जो एंजेला मर्केल और इमैनुएल मैक्रों के तर्ज पर एकजुटता दिखा कोरोना की मार से निपटने का रास्ता दिखाए ? भारत-पाकिस्तान सीमा पर कोविड-19 के दौरान तनाव में कोई कमी नहीं आयी है।
उधर चीन और भारत की सीमा पर तनाव इस हद तक बढ़ गया कि भारतीय सैनिकों को शहादत देनी पड़ी। चीन ने कोरोना महामारी के दौर में शांति बनाए रखने के बजाए भारतीय इलाकों में ही घुसपैठ कर दिया। भारत को इस समय एक साथ तीन फ्रंट पर मोर्चा सम्हालना पड़ रहा है। कोविड-19 के फ्रंट पर भारत एक तरफ लड़ रहा है। आर्थिक संकट देश में काफी है। इस फ्रंट पर भी भारत लड़ रहा है। उधर सीमा पर चीन से फ्रंट खुल गया है। महत्वपूर्ण संसाधन और धनराशि का इस्तेमाल इस समय कोविड-19 पर होना चाहिए। लेकिन चीन की घुसपैठ ने भारत के सैन्य खर्च को बढाया है। कोविड-19 के दौरान ही भारत-नेपाल सीमा पर तनाव पैदा हो गया है। एशियाई देशों का आपसी सहयोग मेडिकल फ्रंट पर भी नहीं है। चीन ने कोविड-19 का फायदा उठाते हुए जरूरी मेडिकल उपकरणों को महंगा कर दिया है। दवाइयों में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल को भी महंगा कर दिया।
उधर इस्लामिक देशों का आपसी तनाव भी कोविड-19 के दौरान कम नहीं हुआ है। जबकि ईरान, सऊदी अरब समेत कई इस्लामिक देश कोविड-19 के शिकार हुए है। लेकिन उनके बीच आपसी सहयोग की बात दूर की कौड़ी है। ये देश सैन्य मोर्चों पर मुस्तैद होकर एक दूसरे को जवाब देने को तैयार है। यूरोपीए देशों में कोरोना के कारण बेरोजगारी में काफी बढ़ोतरी हुई। इससे बचने के लिए कई यूरोपीए देशों ने अपने यहां लोगों के जीवन स्तर को बचाए रखने के लिए राहत पैकेज दिए। क्योंकि लॉकडाउन के कारण यूरोपीए इकनॉमी को भारी नुकसान हुआ है। इधर कई एशियाई देशों की जीडीपी में अच्छी खासी गिरावट की संभावना है। बेरोजगारी और भूखमरी बढ़ी है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आपसी तनाव के काऱण कोरोना के दौर में भी एशियाई देशों को अपने सैन्य खर्चे बढ़ाने पड़ रहे है।