समाज को क्यों खटकती हैं ‘एकल स्त्रियाँ’ ?

डॉ. आकांक्षा
मत-विमत Updated On :

हमारे समाज में हमेशा से ही एकल स्त्री का होना अप्राकृतिक माना जाता रहा है और ऐसी स्त्री को ‘सशंकित दृष्टि’ से भी देखा जाता रहा है । अकेली स्त्री का आशय उस स्त्री से है जो कि, विवाह नामक संस्था से अलग हटकर अपनी खुद की पहचान के साथ जीना चाहती हो । यह अकेली स्त्री अविवाहित लड़की हो सकती है या फ़िर विधवा या तलाकशुदा भी हो सकती है । अकेली स्त्री का अपना घर भी हो सकता है यह तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। हाँ, समाज में यदि कोई इस तरह की स्त्री है तो वह स्थिति समाज/परिवार और उस महिला सभी के लिए अपमानजनक मानी जाती है।

समाज हो या राज्य के तंत्र, किसी महिला को ‘सम्मानित या आदर्श महिला’ का दर्जा तभी देता है जब वह अपने अधिकार, निर्णय लेने की क्षमता, आत्मसम्मान और यहां तक कि अपना शरीर भी किसी पुरुष (अधिकांशत:, सधर्मी/सजातीय) को सौंप देती है । इस तरह आज भी हमारा मध्यवर्गीय समाज स्त्री को रक्षिता या प्रॉपर्टी के ही रुप में स्वीकार करता है न कि इंसान के रुप में।

आज ढेर सारी चुनौतियों के बावजूद मध्यमवर्ग की लड़कियां/महिलाएं एक इंसान के रुप में अपनी सामाजिक पहचान बनाने के लिए हिम्मत जुटाने लगी हैं। इन लड़कियों/महिलाओं को इस बात का अंदाजा है कि समाज में उनकी निम्नतर स्थिति का एक महत्त्वपूर्ण कारण है, सत्ता और शक्ति पर उनका नियंत्रण का न होना। इस नियंत्रण को हासिल करने का एक मुख्य जरिया आय का स्रोत भी है जिससे अधिकांश महिलाएं महरूम हैं। अमूमन महिलाएं इस स्थिति को स्वीकार कर लेती हैं और सारी स्थितियों को समझने के बाबजूद परंपराओं, मूल्यों और संस्कारों को ढोती रहती हैं ।

परंपराओं-संस्कारों की इस ढुलाई के पीछे पीढ़ी- दर- पीढ़ी चली आ रही सामाजिकीकरण की प्रक्रिया बहुत हद तक जिम्मेदार होती है। लड़कियों पर नानी-दादी, मां-बहन द्वारा बचपन से पढ़ाया जाने वह पाठ हावी रहता है जिसमें यह पढ़ाया जाता है कि लड़की को कैसे हंसना चाहिए, कैसे चलना चाहिए, ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे कि परिवार/समाज की ’इज्जत’ पर आंच आए । क्योंकि, परिवार की ’इज्जत’ लड़की के ही कंधों पर रखी होती है ।

इसी प्रक्रिया में वे धीरे-धीरे विवाह-संस्था से भी परिचित होती हैं। घरों में होने वाले ऐसे अवसर उनके लिए एक प्रशिक्षण कार्यशाला की तरह होते हैं। इस तरह के प्रशिक्षण के जरिए उन्हें यह भी सिखाया जाता है कि विवाह ही उनका कैरियर है। क्योंकि, विवाह-संस्था में शामिल होने के बाद उसे अपने बारे में कुछ भी सोचने की जरुरत नहीं होती है । उसके विषय में कुछ भी सोचने-समझने, निर्णय लेने की जिम्मेदारी उस पुरुष की होती है जिससे उसका विवाह कर दिया जाता है। इस तरह से कहीं-न-कहीं एक अनकहा बोझ लड़कों पर भी डाल दिया जाता है और उसे उसकी ज़िम्मेदारी बना दी जाती है। समाजिकीकरण की यह प्रक्रिया इस तरह से लड़के और लड़की दोनों को पितृसत्ता के भंवर में धकेल देता है।

विवाह स्त्री को उसके शरीर और श्रम के बदले आजीवन रोटी, कपड़ा और रहने के लिए छत मुहैया कराता है और ’बाहरी पुरुष’ से सुरक्षा का आश्वासन भी देता है। गलती से भी उस लड़की को यह एहसास नहीं होने दिया जाता है कि इस ’सुरक्षा’ के बदले में उससे हमेशा के लिए उसका आत्मबल खत्म किया जा रहा है। अनजाने में खत्म किए जाने वाले इस आत्मबल के अभाव का ही परिणाम है कि स्त्री कई बार शिक्षित और स्वावलंबी होने के बाबजूद पिता, पति और पुत्र पर निर्भर रहने वाले संस्कार और परंपरा से जकड़ी रहती है। दूसरी तरफ, पुरुष किसी भी परिस्थिति में पैसे कमाने और जिम्मेदार पुरुष बने रहने के होड़ में लगा रहता है ताकि, अपने परिवार पर उसका स्वामित्व बरकरार रहे।

जिन महिलाओं के पास आय के स्रोत हैं भी, उनमें से ज्यादातर महिलाओं का स्वअर्जित धन के उपयोग पर अधिकार नहीं होता है इसकी मुख्य वजह आत्मबल का अभाव ही है। पैसे को कहां खर्च करना है, कब खर्च करना है और किस मद में खर्च करना है इस पर उस महिला का नियंत्रण नहीं होता है। महिलाओं के मन में यह बात बैठा दी जाती है कि इन सारी बातों पर निर्णय लेने की जिम्मेदारी पुरुषों की है।

आदर्श महिलाओं की वास्तविक जिम्मेदारी और कार्यक्षेत्र तो परिवार, बच्चों की देखभाल और पति के शारीरिक और भावनात्मक जरुरतों की पूर्ति के साधन के रुप में सदैव बने रहना ही है। इसके बाबजूद यदि कोई महिला आत्मनिर्भर बनना चाहती है तो उसे अपनी ’वास्तविक जिम्मेदारी’ का ध्यान रखते हुए ही कोई कदम उठाना चाहिए । अधिकांश स्त्रियाँ इन्हीं मान्यताओं के आधार पर ‘आत्मनिर्भर’ बनाना चाहती हैं।

देखा जाए तो, जीवन का जो समय कैरियर बनाने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होता है वही समय महिलाओं के जीवन में प्रजनन के हिसाब से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। पुरुष जब कैरियर बना रहा होता है तब महिलाएं बच्चे पैदा कर रही होती हैं और उन्हें पाल-पोस रही होती हैं। फलत:, वह कैरियर की दृष्टि से पिछड़ जाती हैं। सच तो यह है कि परिवार में खासकर विवाह के बाद उसकी शैक्षणिक क्षमता, योग्यता, महत्त्वाकांक्षा का कोई महत्व ही नहीं रह जाता।

परंपरा को तोड़ते हुए यदि कोई एकल स्त्री (अविवाहिता, विधवा, तलाकशुदा) अपने बल पर अपनी पहचान और जगह बनाना चाहती है तो समाज और राज्य के तंत्र कई तरह से बाधा उत्पन्न करते हैं । ऐसी महिलाओं को समाज शंका की दृष्टि से देखता है क्योंकि, ऐसी महिलाएं किसी की ‘रक्षिता’ नहीं होतीं। ‘रक्षिता’ न होने का यहां आशय यह है कि उनकी सेक्शुअलिटी पर कोई अधिकृत नियंत्रण (पति का) नहीं होता।

किसी भी लड़की का परिवार इस बात की इजाजत नहीं देता कि वह बिना विवाह किए अकेले अपनी जिंदगी बसर करे। इसका मूल कारण परिवार पर सामाजिक दबाव होता है। बहुत हद तक इस तरह का सामाजिक दबाव लड़कों के मामले में नहीं बन पाता। क्योंकि लड़कियों के साथ उसके परिवार की इज्जत, शुद्धता और यौन-शुचिता की अवधारणा जुड़ी होती है। लगभग यही मामला विधवाओं और तलाकशुदा महिलाओं के साथ भी है।

ऐसी महिलाओं पर घर-परिवार का दबाव तो होता ही है साथ ही समाज का अप्रत्यक्ष नियंत्रण भी होता है। इन महिलाओं की सेक्शुअलिटी पर नियंत्रण का दायरा और भी बढ़ जाता है। यौनिकता पर नियंत्रण का जो दायरा विवाह नामक संस्था में जीवन गुजारने पर केवल उसके पति तक सीमित रहता है वह अब परिवार और परिवार से निकलकर सामाजिक नियंत्रण का मसला बन जाता है।

यह सामाजिक नियंत्रण का मसला इसलिए भी बन जाता है क्योंकि समाज में यह ‘भ्रामक धारणा’ व्याप्त है कि अकेली स्त्री हर मामले में स्वच्छंदतावादी होती है। समाज इसे इस रूप में कतई नहीं देखता कि अकेली स्त्री अपने स्वाभिमान, पहचान, अधिकार और अपनी महत्त्वाकांक्षा के साथ सुनहरा भविष्य भी देखना चाहती है और उसके लिए संघर्षरत है। स्त्रियों के इस संघर्ष को समझने के लिए, सबसे पहले उसे एक ‘इंसान’के तौर पर देखना सीखना होगा।