अशोक गहलोत ने फिलहाल वो काम किया है जिसे करने से देश के कई बड़े विपक्षी नेता और मुख्यमंत्री डरते है। गहलोत ने अपनी सरकार बचाने के लिए केंद्र सरकार से सीधा बड़ा टकराव मोल लिया है। केंद्र सरकार के मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत पर एफआईआर दर्ज कर अशोक गहलोत ने विपक्षी दलों को केंद्र सरकार से लड़ने का तरीका बताया है। वैसे अशोक गहलोत वाली हिम्मत कांग्रेस के दूसरे मुख्यमंत्री भी नहीं दिखा पाए है। कांग्रेस के बड़े नेता केंद्र सरकार से टकराव लेने से डरते रहे है। हालांकि गहलोत के तेवर से कई विपक्षी नेता अंदर से खुश है। किसी ने तो केंद्र सरकार का भय खत्म करने की कोशिश की है?
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी अंदर से खुश होंगी। क्योंकि केंद्रीय जांच एजेंसियों से उन्होंने भी टकराव लिया था। सरकार अशोक गहलोत की बचेगी या जाएगी यह समय बताएगा। लेकिन गहलोत ने संकेत दिए है कि वे केंद्रीय जांच एजेंसियों से नहीं डरते। निश्चित तौर पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उदव ठाकरे का भी मनोबल बढ़ा होगा। क्योंकि उनकी सरकार भी भाजपा के निशाने पर है। कहा जा रहा है कि मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ अशोक गहलोत की तरह हिम्मत दिखाते तो शायद सरकार मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस सरकार बच सकती थी? उधर अमरिंदर सिंह भी अशोक गहलोत से अलग क्यों दिख रहे है? क्या कांग्रेस के नेताओं में सीबीआई, आयकर और ईडी का खासा डर समाया हुआ है?
चाहते तो कमलनाथ भी अपनी सरकार बचा लेते। लेकिन कमलनाथ केंद्र सरकार के प्रति आक्रमक नहीं हो पाए। सीबीआई और ईडी का डर उन्हें सता रहा था। क्योंकि कमलनाथ का भांजा सीबीआई के गिरफ्त में आ चुका था। 1984 के दंगों में शामिल होने का आरोप आज भी कमलनाथ पर लगता है। कमलनाथ के भांजे रतुल पुरी एक बैंक से संबंधित कर्ज घोटाले में गिरफ्तार भी हो गए थे। इस कारण कमलनाथ बतौर मुख्यमंत्री डिफेंसिव रहे।
राजनीतिक हल्कों मे चर्चा है कि कमलनाथ सरकार को मध्य प्रदेश में सेक्स सीडी स्कैंडल हाथ लगा था। कमलनाथ चाहते तो सेक्स सीडी का इस्तेमाल अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए कर सकते थे। लेकिन उनकी सरकार ने सेक्स सीडी जांच को पूरी तरह से दबा दिया। अगर सेक्स सीडी स्कैंडल की जांच ईमानदारी से होती तो मध्य प्रदेश में सता, राजनीति और भ्रष्टाचार के कॉकटेल का खुलासा होता। आखिर कमलनाथ ने किस दबाव में सेक्स सीडी स्कैंडल की जांच धीमी कर दी?
यही नहीं कमलनाथ मुख्यमंत्री बनने के बाद व्यापम घोटाले को लेकर भी बीजेपी को घेर सकते थे। लेकिन उन्होंने इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं की। बताया जाता है कि कमलनाथ केंद्र की भाजपा सरकार के साथ नूरा-कुश्ती कर रहे थे। इसी में वे ज्योतिरादित्य सिधिया से झटका खा गए। राजनीतिक हल्कों में यह भी कहा जा रहा है कि अगर कमलनाथ की जगह दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री होते तो शायद मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बच जाती। क्योंकि दिग्विजय सिंह सरकार को बचाने के हर तरीके जानते है। भाजपा दिग्विजय सिंह को आसानी से घेरने में सफल नहीं होती। लेकिन कांग्रेस के कई नेताओं ने दिग्विजय सिंह की घेरेबंदी पहले ही कर दी थी। कांग्रेस में सक्रिय दिग्विजय सिंह विरोधियो का तर्क था कि दिग्विजय सिंह का मध्य प्रदेश में पिछला कार्यकाल बहुत अच्छा नहीं था। प्रदेश की जनता उनसे काफी नाराज हो गई थी। इसलिए उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनाए जाने से नुकसान होता।
कांग्रेस के एक और मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की चर्चा इस समय होती है। पंजाब में बतौर मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह अपनी दूसरी पारी खेल रहे है। कांग्रेस के अंदर ही उनके विरोधी आरोप लगाते है कि अमरिंदर सिंह नरेंद्र मोदी सरकार के प्रति सॉफ्ट है। वहीं मोदी सरकार भी अमरिंदर सिंह के प्रति सॉफ्ट है। अमरिंदर सिंह केंद्र सरकार के खिलाफ उतने आक्रमक नही है, जितना उन्हें होना चाहिए। दरअसल कुछ मुद्दों पर अमरिंदर सिंह ने केंद्र सरकार का समर्थन किया था। इस कारण उनपर सवाल उठना लाजिमी है। अमरिंदर सिंह विरोधी इसके पीछे तमाम कारण बताते है। उनका तर्क है कि अमरिंदर सिंह के दामाद पर सीबीआई ने बैंक कर्ज को लेकर मामला दर्ज कर रखा है। वहीं भाजपा स्विस बैंक एकाउंट को लेकर भी अमरिंदर सिंह के परिवार को घेरती रही है। इस कारण अमरिंदर सिंह केंद्र सरकार से टकराव लेने से बचते है। हालांकि कुछ राजनीतिक कारणों से भी अमरिंदर सिंह ज्यादा आक्रमक नहीं होते है।
अमरिंदर सिंह इस बात को बखूबी जानते है कि पंजाब में भाजपा की रूचि फिलहाल बहुत ज्यादा नहीं है। क्योंकि पंजाब का धार्मिक समाजशास्त्र भाजपा के पक्ष में नहीं है। अगर भविष्य में हो जाए तो बात अलग है। वर्तमान में पंजाब में भाजपा अकाली दल की सहयोगी की भूमिका में है। इसलिए भाजपा को इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि पंजाब में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह हो या प्रकाश सिंह बादल। पंजाब के राजनीतिक हल्कों में इस बात की भी चर्चा है कि पंजाब की नौकरशाही के महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती भी अमरिंदर सिंह केंद्र सरकार की सलाह से कर रहे है।
वैसे तो कहा जाता है कि नीतीश कुमार भी केंद्र सरकार के दबाव में ही लालू यादव का साथ छोड़ 2017 में फिर से भाजपा के साथ गठजोड़ कर बिहार में सरकार बना गए। 2014 के लोकसभा और 2015 के विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी का घोर विरोध करने वाले नीतीश का एकाएक हृदय परिवर्तन हो गया। 2015 में नीतीश कुमार लालू यादव और कांग्रेस के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़े थे। चुनावी रैलियों में भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को जमकर नीतीश ने कोसा था।
लालू यादव ने नीतीश को मुख्यमंत्री तो माना ही, उनकी पार्टी के लिए 101 विधानसभा सीटें भी चुनावों में छोड़ी थी। चुनाव परिणाम आने के बाद लालू यादव की पार्टी राजद गठबंधन में सबसे ज्यादा सीट जीतने वाली पार्टी थी। नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाइटेड दूसरे नंबर पर आयी थी। फिर भी लालू यादव ने नीतीश को ही मुख्यमंत्री माना। फिर एकाएक क्या बात हुई कि नीतीश ने लालू यादव का साथ छोड़ दिया। जिस भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनावों और 2015 के विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार कोस रहे थे, उससे दुबार दोस्ती कर बैठे। क्या केंद्र सरकार का कोई दबाव नीतीश कुमार पर था ? क्या केंद्र सरकार ने किसी जांच एजेंसी का भय नीतीश कुमार को दिखाया था ? राजनीतिक हल्कों में इसकी चर्चा आज भी होती है।