मोदी और नेतन्याहू से दूर-दूर क्यों है बाइडेन


मोदी और बाइडेन के बीच हुई बातचीत को भारतीय मीडिया ने उत्साह से नहीं  दिखाया। निश्चित तौर पर भारतीय मीडिया को यह लगा है कि मोदी और बाइडेन के बीच वो केमेस्ट्री नहीं है जो डोनाल्ड ट्रंप और मोदी के बीच थी।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
मत-विमत Updated On :

4 फरवरी 2012 को अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने बतौर राष्ट्रपति बाइडेन प्रशासन की विदेश नीति पर अपनी राय दी। उन्होंने अपने भाषण में वैश्विक जियोपॉलिटिक्स में अमेरिका की भावी भूमिका पर राय रखी। बाइडेन के पहले भाषण का दिलचस्प पहलू यह था कि इसमें मिडिल ईस्ट में अमेरिका के सबसे विश्वसनीय सहयोगी इजरायल और दक्षिण एशिया में महत्वपूर्ण भारत का जिक्र तक नहीं था।

हालांकि उन्होंने अपने भाषण में अमेरिका के मित्र देशों का खास उल्लेख किया था। बाइडेन के अनुसार मजबूत लोकतांत्रिक सहयोग बढाने के लिए दो सप्ताह में अमेरिका के नजदीकी दोस्त कनाडा, मेक्सिको, यूके, जर्मनी, फ्रांस, नाटो, जापान, साउथ कोरिया, आस्ट्रेलिया के नेताओं से बातचीत की थी। लेकिन इस सूची में इजरायल और भारत का नाम गायब था।

इजरायल तो मिडिल ईस्ट में अमेरिकी जियोपॉलिटिक्स का महत्वपूर्ण साझेदार है। जबकि चीन की बढ़ती ताकत के कारण भारत दक्षिण एशिया में अमेरिका का महत्वपूर्ण स्ट्रैटजिक पार्टनर है। बाइडेन प्रशासन का रवैया फिलहाल इजरायल और भारत दोनों को परेशान कर रहा है। आखिर क्यों बाइडेन फिलहाल भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ दूरी बना रहे है? क्या मीना हैरिस के ट्वीट और बाइडेन प्रशासन के रवैये को एक दूसरे से जोड़कर देखा जा सकता है ?

8 फरवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फोन पर बातचीत की। बातचीत के बाद व्हाइट हाउस ने बताया कि बाइडेन और मोदी के बीच जलवायु परिवर्तन, म्यांमार की परिस्थितियां और हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर बातचीत हुई। लेकिन दोनों के बीच हुई बातचीत का एक महत्वपूर्ण पक्ष था, लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थानों की रक्षा।

व्हाइट हाउस के अनुसार बाइडेन ने बातचीत के दौरान विश्व भर में लोकतांत्रिक संस्थानों की रक्षा करने के अपने संकल्प को दुहराया और कहा कि लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति साझा प्रतिबदता भारत और अमेरिका के बीच संबंधो का आधार है। निश्चित तौर पर इसमें लोकतांत्रिक संस्थाओं की रक्षा में भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं भी शामिल है, जिसे खत्म करने के आरोप नरेंद्र मोदी सरकार पर लगातार लग रहे है।

मोदी और बाइडेन के बीच हुई बातचीत को भारतीय मीडिया ने उत्साह से नहीं  दिखाया। निश्चित तौर पर भारतीय मीडिया को यह लगा है कि मोदी और बाइडेन के बीच वो केमेस्ट्री नहीं है जो डोनाल्ड ट्रंप और मोदी के बीच थी।

बाइडेन पर अमेरिकी लेफ्ट का दबाव है। खासकर डेमोक्रेटिक पार्टी में मौजूद लेफ्ट से। अमेरिकी राष्ट्रपति की सहयोगी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस भी लेफ्ट मानी जाती है। यही नहीं डेमोक्रेटिक पार्टी में मौजूद मानवाधिकार के समर्थकों का दबाव भी बाइडेन पर है। डेमोक्रेटिक पार्टी में मौजूद कई लोग मानवाधिकार के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी की सरकार पर सवाल उठा चुके है।

बाइडेन प्रशासन की एक समस्या और है। एक तरफ अगर बाइडेन प्रशासन ने म्यांमार पर लोकतांत्रिक सरकार के तख्ता पलट के कारण वहां की सेना पर प्रतिबंध लगाए है। चीन के अंदर उइगुरों, और तिब्बतियों के मानवाधिकार उल्लंघन पर बाइडेन प्रशासन पूर्व सराकरों की भांति अपना स्टैंड बनाए रखेगा। इन परिस्थितियों मे बाइडेन पर अपनी ही पार्टी के नेताओं का दबाव भारत को लेकर भी बनेगा। उनकी पार्टी के कुछ नेता किसान आंदोलन के साथ सहानभूति जता रहे है। ऐसे में बाइडेन प्रशासन भविष्य में भारत सरकार के लिए परेशानी बन सकता है।

बाइडेन प्रशासन के सत्ता सम्हालते ही भारत के एक ब़ड़े कारपोरेट घराने के लिए दो बुरी खबर विदेश से आयी है। इसमें एक खबर के लिए सीधे बाइडेन प्रशासन जिम्मेवार है। अमेरिका ने हाल ही में म्यांमार की सेना पर प्रतिबंध लगाया है। इस प्रतिबंध का अप्रत्यक्ष असर भारत के अदानी ग्रुप पर पड़ सकता है। अदानी ग्रुप का म्यांमार में चल रहे कारोबार का नुकसान हो सकता है।

अमेरिका ने म्यांमार में तख्ता पलत के बाद म्यांमार के 10 वर्तमान और पूर्व सैन्य अधिकारियों समेत म्यांमार सेना से जुड़ी कारोबारी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाया है। इसका सीधा असर भारत का अदानी ग्रुप पर पड़ सकता है। अदानी ग्रुप ने म्यांमार के रंगून में एक कंटेनर पोर्ट विकसित करने का काम म्यांमार की सेना से हासिल किया था। कंटेनर पोर्ट विकसित करने के लिए अदानी ग्रुप को जमीन म्यांमार सेना की कंपनी म्यांमार इकनॉमिक कॉरपोरेशन ने दी थी।

म्यांमार इकनॉमिक कॉरपोरेशन अमेरिका के निशाने पर है। इसका सीधा असर अदानी का रंगून में बनाए जा रहे कंटेनर डेवलमेंट पोर्ट पर पड़ेगा। दरअसल अदानी को कंटेंनर पोर्ट के विकास का जब काम मिला था तब भी तमाम सवाल उठे थे। अंतराष्ट्रीय मीडिया में अडानी के रंगून में मिले इस काम पर लगातार सवाल उठाया गया था।

2019 में म्यांमार इकनॉमिक कॉरपोरेशन पर म्यांमार में मानवाधिकार उल्लंघन के गंभीर आरोप लगे थे। म्यांमार की सेना की इस कारोबारी कंपनी पर संयुक्त राष्ट्र के जांचदल ने मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगाया था। रोहिंग्या मुसलमानों के दमन का आरोप भी इस कंपनी पर लगा है।

दिलचस्प बात है कि इससे पहले श्रीलंका में अदानी ग्रुप को झटका लगा था। कोलंबो स्थित ईस्ट कंटेनर टर्मिनल संबंधित प्रोजेक्ट श्रीलंका ने रद्द कर दिया था जिसमें भारत हिस्सेदार था। दरअसल यह पोर्ट एक त्रिपक्षीय समझौते के तहत विकसित किया जा रहा था जिसमें श्रीलंका, जापान और भारत शामिल थे। इसमें 51 प्रतिशत हिस्सेदारी श्रीलंका की और 49 प्रतिशत हिस्सेदारी भारत और जापान की थी। भारत की तरफ से ईस्ट कंटेनर टर्मिनल में अडानी ग्रुप निवेश कर रहा था।

लेकिन एकाएक श्रीलंका के अंदर अडानी ग्रुप का विरोध खड़ा हो गया। स्थानीय श्रम संगठनों और नागरिक संगठनों ने कंटेनर टर्मिनल में अदानी ग्रुप के निवेश के खिलाफ राष्ट्रव्यापी हड़ताल की धमकी दी थी। इसके बाद श्रीलंका सरकार ने इस भारत और जापान के साथ कंटेनर टर्मिनल को लेकर हुए समझौते को रद्द कर दिया। समझौता रद्द करना महज संयोग नहीं हो सकता है, क्योंकि श्रीलंका सरकार ने यह फैसला जो बाइडेन के सत्ता में आने के बाद लिया है।

बाइडेन प्रशासन का रवैया ट्रंप के नजदीकी रहे इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के प्रति भी अभी तक रूखा है। मध्य पूर्व में अमेरिका के सबसे नजदीकी सहयोगी नेतान्यहू को अमेरिका के नए राष्ट्रपति से कोई सुखद संदेश नहीं मिला है। बाइडेन प्रशासन नेतान्यहू को झटका देने के मूड में नजर आ रहा है। हाल ही में अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन ने कहा है कि बाइडेन प्रशासन पूर्ववर्ती ट्रंप प्रशासन के उस आधिकारिक ब्यान से अलग हो सकता है जिसमें इजरायल के कब्जे वाले गोलन इलाके को ट्रंप प्रशासन ने आधिकारिक तौर पर इजरायल का हिस्सा माना था।

गौरतलब है कि डोनाल्ड ट्रंप ने 2019 में गोलन इलाके को आधिकारिक रुप से इजरायली इलाका माना था। बाइडेन प्रशासन ने स्पष्ट किया है कि ट्रंप के इस फैसले को बाइडेन प्रशासन मान्यता नहीं देगा है। विदेश मंत्री ब्लिंकन के इस ब्यान के बाद इजरायली प्रधानमंत्री नेतान्यहू भड़क गए है। उन्होंने साफ कहा है कि गोलन का इलाका इजरायल का ही है बेशक यह किसी समझौते के तहत हो या बिना समझौते के। गोलन इलाका इजरायल ने सीरिया से 1967 के मध्य-पूर्व युद के समय छीना था। इसके 13 साल बाद इसे इजरायल में घोषित तौर पर मिला लिया था।

इसमें कोई दो राय नहीं कि मिडिल ईस्ट में अमेरिका की कूटनीति में बदलाव के संकेत है। अमेरिका ईऱान के साथ 2015 में हुए परमाणु करार को दुबारा बहाल कर सकता है जिसे ट्रंप प्रशासन ने रद्द कर दिया था। यमन में चल रहे युद से भी अमेरिका ने दूरी बना ली है। सऊदी अरब को यमन में अब कोई सहायता अमेरिका नहीं करेगा। अमेरिका का यह फैसला ईरान को राहत देने वाला है, पर सऊदी अरब और इजरायल के लिए परेशान करने वाला है।

दरअसल सऊदी अरब और इजरायल के बीच बढ़ती नजदीकियां भी ईऱान की परेशानी का कारण है। डोनाल्ड ट्रंप के दामाद जेर्रड कुशनर के निजी प्रयासों से इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और सऊदी अरब के प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के बीच नजदीकियां ब़ढी थी। लेकिन अब कुशनर और उनके ससुर ट्रंप की विदाई व्हाइट हाउस से हो गई है।

बाइडेन से मोहम्मद बिन सलमान और नेतन्याहू को ट्रंप जैसा सहयोग नहीं मिलेगा। बाइडेन ईरान और सऊदी अरब के बीच संतुलन चाहते है। वे इजरायल की नकेल भी थोड़ा कसना चाहते है। इधर बाइडेन ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ का नारा भी भूल नहीं पाए है।