
बिहार में भाजपा अकेले चुनाव मैदान में नहीं जाएगी। कोविड-19 के संकट ने भाजपा को अकेले चुनाव मैदान में जाने से अपने आप को रोक लिया है। इसे अमित शाह ने अपने भाषण में लगभग स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने नीतीश कुमार को बिहार चुनाव में चेहरा बता दिया है। कोविड-19 के संकट के दौरान भाजपा ने चुनावी बिगुल बजा दिया है। हाल ही में बिहार के भाजपा कार्यकर्ताओं को उन्होंने वर्चुअल रैली कर संबोधित किया। वैसे तो भाजपा हमेशा चुनावी मूड में रहती है।
लेकिन कोविड-19 के संकट के दौरान भाजपा की रैली ने विपक्ष को मौका दिया है। उधर बिहार की विकास की पोल खुल गई है। लेकिन बिहार विधानसभा का चुनावी रण जातीय आधार पर ही लड़ा जाएगा। अगड़ा, पिछड़ा, दलित, महादलित, अति पिछड़ा ही चुनावी जंग के हथियार होंगे। शायद लाखों प्रवासी भी अगले दो तीन महीने में लॉकडाउन का कष्ट भूल जाएंगे। जातीए आधार पर बंट जाएंगे। फिर वोट वहीं देंगे जहां उनकी जातीय गणित अनुमति देगी। यही बिहार का एक कटु सत्य है।
बिहार में जातीय विभाजन भाजपा की राह में रोड़ा है। भाजपा को यह पता है कि हिंदुत्व के लहर में अभी भी सिर्फ ऊंची जाति ही बह रही है। ऊंची जाति का बिहारी लालू विरोधी मानसिकता से ग्रस्त है। अगर लालू और उनका परिवार आज बिहार की राजनीतिक सीन से अलग हो जाएं तो ऊंची जाति हिंदुत्व की धारा में बहना छोड़ देगी। वो सेक्युलर भी हो सकते है। कांग्रेस के साथ भी जा सकते है। क्योंकि उनकी आर्थिक बदहाली पिछले बीस सालों में बढ़ी है। वो भी शहरों में चौकीदारी और कंस्ट्रक्शन साइटों पर लेबर का काम कर रहे हैं। इन परिस्थितियों में सिर्फ अपर कास्ट हिंदू वोटों के समर्थन के बल भाजपा अकेले बिहार विधानसभा के चुनाव मैदान में नहीं उतरेगी।
दरअसल नीतीश कुमार की एक बड़ी सफलता यह है कि उन्होंने दलितों और पिछड़ों को भी आगे बांट दिया है। लालू यादव का सामाजिक न्याय दलित और पिछड़ों तक सीमित था। बेशक इस सामाजिक न्याय का बड़ा लाभ यादव जाति को मिला। बाकी जातियां सिर्फ सामाजिक न्याय के नारे का आनंद लेती रही। सता का लाभ और मलाई यादव जाति को मिला। लेकिन नितिश कुमार ने चालाकी से बिहार के विकास के नाम पर पिछड़ों को अति पिछड़ा और पिछड़ा में बांट दिया। दलितों को दलित और महादलित में बांट दिया। भाजपा की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि पिछड़े और दलितों के बीच भाजपा आज भी बिहार के अंदर प्रभावी नहीं हो पायी है।
भाजपा बेशक बिहार के कुशवाहा, यादव और अति पिछड़ी जातियों के नेताओं को अपने ढांचे में जगह देती रही है। उन्हें लोकसभा से लेकर प्रदेश के विधानसभा मे पहुंचाती रही है। भाजपा कोटे से इन जातियों के नेता दिल्ली से लेकर पटना तक में मंत्री है। लेकिन ये पिछड़े नेता अपनी जाति में भाजपा का जनाधार बढ़ाने में विफल रहे है। इसका उदाहरण नित्यानंद राय, रामकृपाल यादव और नंद किशोर यादव जैसे यादव नेता है जो यादव जाति के नाम पर भाजपा में तो हिस्सेदारी पा गए। लेकिन भाजपा को यादव वोटों की हिस्सेदारी आजतक नहीं दिलवा पाए।
नीतीश कुमार के सुशासन पर तमाम सवाल है। शराबबंदी से राज्य को भारी नुकसान हुआ है। राज्य में होटल इंडस्ट्री तबाह हो गया है। पर्यटन का बुरा हाल हो गया है। वहीं राज्य में नीचले स्तर पर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। लेकिन सच्चाई तो यही है कि बिहार में चुनाव में जाति ही हावी होगी। तेजस्वी यादव अभी भी लालू यादव के राज की छाया से निकल नहीं पाए है। वैसे में जातीय गोलबंदी होना तय है। इस जातीय गोलबंदी में अभी भी नीतीश को कमजोर कर नहीं आंका जा सकता है।
बिहार की ऊंची जातियों को इस बात का अहसास है कि लालू के राष्ट्रीय जनता दल की पराजय तभी तय होगी जब नीतीश और भाजपा एक साथ लड़ेंगे। इसकी जमीनी जानकारी भाजपा के पास भी है। भाजपा कुछ राज्यों में हुए राजनीतिक परिवर्तन से भी परेशान है। महाराष्ट्र में कांग्रेस ने अपने घोर विरोधी शिवसेना से गठबंधन कर दिया। भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया। नीतीश पहले भी राजद के सहयोग से बिहार में सरकार बना चुके है। अगर आज भाजपा नीतीश का साथ छोड़ देगी तो नीतीश फिर से राजद के पाले में जा सकते है।
नीतीश राजद के सहयोग से चुनाव लड़ने को तैयार हो जाएंगे। क्योंकि नीतीश कुमार कुमार ने पहले भी सत्ता हासिल करने के लिए वैचारिक आधार को त्यागा है। फिर भाजपा को यह पता है कि नीतीश कुमार पिछडों की मजबूत जाति कुर्मी और कोयरी में खासी पैठ रखते है। लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रवाद के नाम पर इनमें से कुछ वोट जरूर भाजपा को मिल सकते है, लेकिन राज्य में इनकी पहली पसंद नीतीश कुमार है। कुर्मी नीतीश को किसी भी कीमत पर छोड़ नही सकते हैं। दरअसल जनसंख्या के लिहाज से मजबूत पिछड़ी जातियां यादव, कुर्मी और कोयरी आज भी भाजपा विरोधी खेमे में है।
उधर भाजपा समर्थक ऊंची जातियों की एक और समस्या है। ज्यादातर ऊंची जाति के लोग गांव छोड़ शहरों में आकर बस गए है। वैसे में ऊंची जातियां लोकसभा चुनावों में भाजपा के लिए काफी मददगार साबित होती है। लेकिन विधानसभा में ग्रामीण प्रभुत्व वाले विधानसभा क्षेत्रों में ऊंची जातियों की कम आबादी भाजपा के लिए नुकसानदायक होती है। वैसे में भाजपा नीतीश के साथ समीकरण बनाकर ही ग्रामीण विधानसभाओं को जीत सकती है।
हालांकि भाजपा के कुछ नेताओं ने नीतीश कुमार के खिलाफ खुलकर मोर्चेबंदी कर रखी है। पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान इसमें से एक है। भाजपा के निचले कार्यकर्ताओं में भी नीतीश कुमार से नाराजगी है। यह सच्चाई है। लेकिन भाजपा कोटे के तमाम बड़े नेता और मंत्री नीतीश कुमार से टकराव लेने के मूड में नहीं है। क्योंकि उन्हें 2015 का चुनाव परिणाम याद आ जाता है। इस चुनाव में नीतीश कुमार और लालू यादव ने मिलकर भाजपा को बिहार की सत्ता से बाहर कर दिया था। 2015 के विधानसभा चुनाव ने भाजपा नेताओं का सत्ता सुख छीन लिया था।
हालांकि नीतीश कुमार की परेशानी कोविड-19 के कारण बढ़ी है। निचले स्तर पर कोविड-19 के दौरान राज्य में चिकित्सा समेत कई दूसरे फ्रंट पर सरकार का प्रबंधन खराब था। दूसरे राज्यों से आए बिहारी प्रवासियों ने नीतीश कुमार की चिंता बढ़ायी भी है। हालांकि नीतीश को यह पता है कि जितनी नाराजगी प्रवासी श्रमिकों की बिहार सरकार से उससे कहीं ज्यादा नाराजगी केंद्र सरकार से है। प्रवासी श्रमिकों को इस बात से खासी नाराजगी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दवारा एकाएक लॉकडाउन की घोषणा ने उनकी हालत काफी खराब कर दी।
केंद्र सरकार के श्रमिक स्पेशल ट्रेनें भी काफी हंगामे के बाद चलायी गई। श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में भी मजदूरों की हालात खराब रही। जब श्रमिक बिहार में पहुंचे तो उनके लिए बनाए गए क्वारंटाइन सेंटरों की हालत काफी खराब थी। इन सेंटरों पर नीचले स्तर पर लोगों को अच्छी सुविधा नहीं मिली। लेकिन भाजपा इस सच्चाई को जानती है कि बिहारी प्रवासी श्रमिकों की नाराजगी सिर्फ नीतीश से ही नहीं भाजपा से भी काफी है। क्योंकि लॉकडाउन ने प्रवासियों की हालात परदेश में खासी खराब कर दी थी। हालांकि ये भी आशंका है कि चुनाव आते-आते ये प्रवासी श्रमिक भी जातीय आधार पर बंट जाएंगे। लॉकडाउन का कष्ट भूल जाएंगे।