नीतीश बाबू! बिहार आज भी दिल्ली के एम्स, मेदांता, फोर्टिज और मैक्स जैसे अस्पतालों पर क्यों निर्भर है ?


बिहार में आजादी के बाद गया, भागलपुर, बेतिया, मुजफ्फऱपुर आदि में मेडिकल कॉलेज खोले गए थे। लेकिन हुक्मरानों ने अपने स्वार्थ में पब्लिक सेक्टर के मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जंगल राज में तो जो बुरा होना था वो हुआ। लेकिन सुशासन में भी मेडिकल कालेजों का कोई भला नहीं हुआ।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
मत-विमत Updated On :

बिहार में अब कोरोना से बड़े और साधन-संपन्न लोग भी बच नहीं पा रहे हैं। भाजपा के एमएलसी सुनील कुमार और जदयू एमएलसी मनोरमा देवी के पति बिंदी यादव को कोरोना ने लील लिया। बिंदी यादव गया जिला परिषद के चेयरमैन भी रह चुके है। यही नहीं समस्तीपुर के सिविल सर्जन आरआऱ झा की भी मौत कोरोना से हो गई है। पटना शहर में और एक-दो और अधिकारियों की मौत कोरोना से हुई है। राजधानी पटना में हालत खराब है। बिहार में इसी साल चुनाव होने है। इसलिए राजनीतिक दलों की चिंता कोरोना महामारी ने बढ़ा दी है। गरीबी और स्वास्थ्य मानकों में बिहार नीचले पायदान पर है। कोरोना ने हालत और खराब कर दी है। चूंकि अब गरीब के साथ-साथ समाज का अमीर, मजबूत तबका भी कोरोना का शिकार हो रहा है, इसलिए राज्य की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था पर चर्चा हो रही है। 

चूंकि अमीरों का इलाज करने वाले देश के बड़े प्राइवेट अस्पताल भी कोरोना काल में अमीरों की भीड़ की समस्या से जूझ रहे हैं, इसलिए बिहार के आर्थिक, प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक तौर पर मजबूत तबके को पटना शहर में मौजूद पब्लिक सेक्टर के कुछ अस्पतालों का सहारा है। अगर दिल्ली के प्राइवेट अस्पतालों में भीड़ नहीं होती तो ज्यादातर अमीर बिहारी दिल्ली आकर इलाज करवा लेते। हालांकि बिहार में आजादी के बाद गया, भागलपुर, बेतिया, मुजफ्फऱपुर आदि में मेडिकल कॉलेज खोले गए थे। लेकिन हुक्मरानों ने अपने स्वार्थ में पब्लिक सेक्टर के मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जंगल राज में तो जो बुरा होना था वो हुआ। लेकिन सुशासन में भी मेडिकल कालेजों का कोई भला नहीं हुआ।  

बिहार की तकदीर देखिए। जनता कोरोना से त्राहि-त्राहि कर रही है। लेकिन सताधारी गठबंधन पूरी तरह से चुनावी मैनेजमेंट में व्यस्त हो गया है। जब बिहार में सत्ता पर काबिज एनडीए गठबंधन को कोरोसे बचाव की व्यवस्था करना चाहिए तो ये चुनावी तैयारियों में लगे हैं। कार्यकर्ताओं की जान की भी परवाह सत्ताधारी दल के नेताओं को नहीं है। दोनों दलों के बड़े नेता तो भीड़ भाड़ में जाने से बच रहे है। खुद तो बड़े नेता वर्चुअल रैली कर अपने को कोरोना से बचा रहे है। वहीं नीचले स्तर पर जिला और प्रखंडों में कार्यकर्ताओं को चुनाव प्रचार का निर्देश दिया जा रहा है।

सत्ता और जीत की लालच इस कदर है कि कोरोना के बढ़ते मरीजों के बीच प्रदेश भाजपा कार्यालय में राज्य भर के भाजपा नेताओं की बैठक बुला ली गई थी। बैठक का परिणाम यह निकला कि अच्छी संख्या में भाजपा नेता कोरोना पॉजेटिव हो गए। बैठक से भाग लेकर जिलों में वापस गए कई भाजपा नेता कोरोना पॉजेटिव हो गए। उन्हें खासी परेशानियों का सामना करना पड़ा। सता में भागीदार होने के कारण राजधानी पटना में बैठे भाजपा के बड़े नेताओं का कोरोना टेस्ट तो आसानी से हो गया। लेकिन जिले स्तर पर गए कार्यकर्ताओं को कोरोना टेस्ट करवाने में खासी परेशानी का सामना करना पड़ा। अब जिला और ब्लॉक स्तर पर कार्यकर्ताओ में हताशा है। कार्यकर्ताओं को घूम-घूम कर प्रचार करने को कहा जा रहा है। कार्यकर्ता कह रहे है कि अगर वे प्रचार के दौराना कोरोना संक्रमित हो गए तो उन्हें और उनके परिवार को देखे वाला कौन है ? 

राज्य में जिला स्तरीय स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। सरकार की घोषणा तो खूब हो रही है। लेकिन जिला स्तर पर भी कोरोना से निपटने की व्यवस्था फेल हो रही है। गंभीर मरीजों को पटना रेफर किया जा रहा है। जिला स्तर पर कोई सुविधा ढंग से जनता को उपलब्ध नही करवायी जा रही है। हालात यह है कि राजधानी पटना के एम्स जैसे अस्पतालों में मरीजों को बेड तभी मिल रहा है, जब राज्य सरकार के मंत्री फोन कर रहे है। बेड नहीं मिलने की स्थिति में लोग बाहर ही मरने के लिए मजबूर है।

कोरोना बिहार में आपदा में अवसर लेकर आया है। लोग परेशान है। उधर बहुत सारे लोग इसका फायदा उठा रहे हैं। कोरोना के नाम पर आए फंड में भी हेराफेरी की खबरें आ रही है। कई जिलों से शिकायत आयी है कि प्रवासी मजदूरों के लिए बनाए गए क्वारंटाइन सेंटरों के फंडों में हेराफेरी हो गई। क्वारांटाइन सेंटरों मे रखे गए प्रवासी मजदूरों को जरूरी सामान तक उपलब्ध नहीं करवाए गए। उधर सांसद और विधायकों की परेशानी चुनावी साल में बढ़ गई है। जनता से दूरी बनाएंगे तो चुनाव हार सकते है। नजदीकी बनाएंगे तो कोरोना संक्रमण हो सकता है। अब डर यह सता रहा है कि घर से निकलने के बाद जनता से हाथ मिलाने में कोरोना हो सकता है। लेकिन चुनाव भी सर पर है। उधर दूसरे राज्यों से वापस पहुंचे प्रवासी मजदूरों का गांवों में संकट बढ़ा हुआ है। वे वापस उन राज्यों में लौटने को तैयार है, जहां नौकरी करते थे। क्योंकि बिहार में उन्हें गांवों में रोजगार उपलब्ध नहीं हो पा रहा है।  

बिहार में स्वास्थ्य कभी चिंता का विषय नहीं रहा है। बिहार के नेता, सांसद, विधायक तो दिल्ली स्थित एम्स औऱ राम मनोहर लोहिया अस्पताल में ही इलाज करवाते है। बिहार के नेताओं के साथ अटैच एक सहयोगी की डयूटी एम्स में सिफारिशी इलाज करवाने की होती है। वैसे नेता जो एम्स जाना नहीं पसंद करते उनके पास इतना पैसा है कि दिल्ली-गुड़गांव के फोर्टिज, मैक्स और मेदांता में अपना इलाज करवा ले। जनता जाए भांड़ में। बिहार में पब्लिक सेक्टर के अस्पताल की जरूरत ही क्या है? बिहार की स्वास्थ्य सेवा की एक विशेषता है। सरकारी अस्पतालों में कार्यरत डॉक्टर निजी प्रैक्टिस पर ज्यादा ध्यान देते है। सरकारी अस्पतालों में गए मरीजों को वहां कार्यरत डॉक्टर अपने प्राइवेट क्लिनिक में आने के लिए जमकर प्रोत्साहित करते है।

नीतीश कुमार समय पर चुनाव चाहते हैं। अगर चुनाव तय समय पर नहीं हुआ तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाएगा। इसका नुकसान नीतीश कुमार को हो सकता है। राष्ट्रपति शासन में भाजपा सीधे सरकार को नियंत्रित करेगी। इसलिए नीतीश कुमार की प्राथमिकता कोरोना नहीं चुनाव है। उधर भाजपा के सामने असमंजस की स्थिति है। भाजपा को महसूस हो रहा है कि जनता इस समय बेहद नाराज है। जनता अब जंगल राज को याद करने के लिए तैयार नहीं है। हालांकि भाजपा किसी भी कीमत पर जंगल राज को जिंदा रखना चाहती है। 
लेकिन अब बिहार में मुद्दा कोरोना और रोजगार है। लोग कोरोना के कारण जंगल राज और लालू यादव को भूल भी सकते है। वैसे में भाजपा और जद यू को मदद सिर्फ तेजस्वी यादव का संभावित मुख्यमंत्री वाला चेहरा ही कर सकता है। दरअसल बिहार में बेरोजगारी और बीमारी अब मुख्य मुद्दा है। इसे बड़ी आबादी प्रभावित होती नजर आ रही है। आने वाले दिनों में कोरोना अगर गांवों में फैल गया तो हालात काफी नाजुक होंगे। क्योंकि जिला और प्रखंड स्तर पर बिहार में स्वास्थ्य सेवा पूरी तरह से खत्म होने के करीब है।