ट्रंप के डर से होगी हमारे किसान की लिंचिंग?

मोदी राज में किसान की यही नियति बन गई है। एक मुसीबत से जान छूटी तो दूसरी तैयार। ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने तीन किसान विरोधी कानूनों को हराया। इधर किसान एम.एस.पी. हासिल करने के लिए लंबे संघर्ष की तैयारी में जुटे लेकिन उधर सरकार इन्हीं कानूनों को पिछले दरवाजे से लाने के लिए नैशनल फ्रेमवर्क ऑन एग्रीकल्चर मार्केटिंग का मसौदा लेकर खड़ी हो गई।

किसान संगठनों के पुरजोर विरोध के चलते इस मोर्चे पर ब्रेक लगी। इतने में नई मुसीबत आन खड़ी हुई। अब भारत सरकार अमरीका के साथ एक बड़ा व्यापार समझौता करने जा रही है। इसकी गाज भारत के किसान पर पड़ेगी। अगर आने वाले कुछ महीनों में देश के किसान एकजुट होकर प्रतिरोध नहीं करते, तो किसान के भविष्य पर एक बार फिर संकट मंडरा सकता है।

25 से 29 मार्च तक ब्रैंडन लिंच के नेतृत्व में अमरीका के वाणिज्य विभाग का एक प्रतिनिधिमंडल भारत आया। एजैंडा था अमरीका और भारत के बीच एक द्विपक्षीय समझौते की रूपरेखा तैयार करना। भारत आकर लिंच ने अपने राष्ट्रपति ट्रम्प की तर्ज पर भारत के ही प्रधानमंत्री को आंखें दिखाईं। भारत सरकार ने चूं नहीं की। चार दिन की बातचीत को गुप्त रखा गया। आखिर में एक चिकना-चुपड़ा बयान जारी हो गया। लेकिन अंतरराष्ट्रीय व्यापार के जानकार बता रहे हैं कि भारत सरकार ने अमरीका के सामने घुटने टेक दिए हैं।

अमरीका भारत की बांह मरोड़ रहा है कि रूस से सस्ता कच्चा तेल लेने की बजाय महंगे बाजार भाव पर अमरीका से कच्चा तेल खरीदे। भारत सरकार पहले ही अमरीका से प्राकृतिक गैस लेने की हामी भर चुकी है। भारत के वाणिज्य मंत्री देश के उद्योगपतियों से अपील कर रहे हैं कि वे अपनी जरूरत का माल चीन से खरीदने की बजाय अमरीका से खरीदें। दिन-रात राष्ट्रवाद की दुहाई देने वाली मोदी सरकार अमरीकी साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेके बैठी है।

इस प्रतिनिधिमंडल के अचानक भारत आने के पीछे की कहानी छुपी नहीं है। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दुनिया भर में व्यापार युद्ध छेड़ दिया है। आज 2 अप्रैल से अमरीका ने दुनिया के हर देश पर जवाबी टैरिफ लगाने की घोषणा कर दी है। यानी जो देश अमरीका के आयात पर जितना शुल्क लगाता है, अमरीका भी उस पर उतना ही शुल्क लगाएगा। यही नहीं, जो देश अमरीका की विदेश नीति से सहमत नहीं होगा, उस पर विशेष शुल्क लगाया जाएगा। 

जब प्रधानमंत्री मोदी अमरीका गए तो उनके सामने ट्रम्प ने विशेष रूप से कहा कि भारत अमरीकी माल पर बहुत ज्यादा शुल्क लगाता है और अमरीका उसे ठीक करवाएगा। प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ समय की मोहलत मांगी। कहा कि हम कुछ महीने के भीतर ही अमरीका से एक व्यापक समझौता करेंगे। फिर भी अमरीका ने 2 अप्रैल की जवाबी कार्रवाई से भारत को मुक्त नहीं किया। साथ में इस प्रतिनिधिमंडल को भेजकर भारत सरकार पर दबाव बनाया है।

सवाल यह है कि ब्रैंडन लिंच के नेतृत्व वाले इस प्रतिनिधिमंडल के दबाव के चलते क्या भारत के किसान के हितों की लिंचिंग होगी? कृषि मामलों के जानकर और ‘रूरल वॉइस’ के संपादक हरवीर सिंह ने यह आशंका जताई है। उन्होंने याद दिलाया है कि हमारी सरकारों ने हमेशा अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों से कृषि क्षेत्र को बाहर रखा है। साथ ही सरकार को आगाह किया है कि इस वार्ता में कृषि उत्पाद को शामिल करने से भारत के किसान को नुकसान पहुंच सकता है। यह आशंका आधारहीन नहीं है।

पिछले कई वर्षों से अमरीका की नजर भारत के कृषि उत्पाद बाजार पर रही है। कृषि विशेषज्ञ हरीश दामोदरन ने अमरीका के कृषि व्यापार का विश्लेषण कर बताया है कि पिछले कई साल से चीन ने अमरीकी कृषि उत्पाद की खरीद कम कर दी है और अब ब्राजील और अर्जेंटीना जैसे देशों से खरीदना शुरू कर दिया है। इसलिए अमरीका को नए बाजार की तलाश है, उसकी नजर भारत पर है।

अमरीका के कृषि मंत्रालय ने बाकायदा भारत के मांस उद्योग का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत में आने वाले दशक में चिकन फीड और पशुओं के लिए सोयाबीन और मक्का की मांग बढ़ेगी। यहां अमरीकी माल के खपत की अच्छी गुंजाइश है। अमरीका के लिए दिक्कत यह है कि भारत ने भारी आयात शुल्क लगा रखा है। साथ ही अमरीका की जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों के खतरे को देखते हुए इस पर पर भारत में पाबंदी है। अब ट्रम्प की दादागिरी के सहारे अमरीकी कृषि उत्पादक अपना माल भारत पर थोपने की कोशिश में हैं। कोशिश यह है कि अमरीका से होने वाले द्विपक्षीय समझौते में कुछ फसलों को भी शामिल कर लिया जाए।

हर कोई जानता है कि ये फसलें कौन सी होंगी। सोयाबीन और मक्का के अलावा अमरीका की मुख्य दिलचस्पी कपास में होगी। साथ ही ‘वॉशिंगटन सेब’, अमरीकी नाशपाती और कैलिफोर्निया के बादाम जैसे कुछ उत्पाद भी होंगे। फिलहाल अमरीका को गेहूं और दूध उत्पाद भारत में बेचने की कम गुंजाइश दिखती है लेकिन भविष्य में यह भी इस सूची में शामिल हो सकते हैं। इस आयात की वकालत सिर्फ अमरीका ही नहीं, भारत की कुछ कंपनियां भी कर रही हैं। पोल्ट्री उद्योग, मांस निर्यातकों और कपड़ा मिलों के मालिक भी चाहते हैं कि उन्हें सस्ते दाम पर माल मिले और उनका मुनाफा बढ़े। 

अगर इसका किसी को नुकसान है तो भारत के किसान को। पहले ही किसान अपनी फसल के वाजिब दाम से वंचित रहता है। ऐसे में अगर अमरीका जैसे बड़े देश के साथ कृषि व्यापार खुल गया तो भारत का किसान दोहरी मार झेलेगा। पिछले कुछ साल में मक्का उत्पादन अपने परंपरागत क्षेत्रों के बढ़कर बिहार और बंगाल तक पहुंचा है। वहां के गरीब किसान को इस साल ठीक दाम मिला है।

सोयाबीन का उत्पादन भी काफी बढ़ा है, हालांकि इस साल उसके दाम गिर गए। कपास का उत्पादन पिछले कुछ वर्ष में गिरा है और वहां कुछ समय के लिए आयात की जरूरत है। लेकिन इन तीनों का बाजार अमरीका के लिए खोल देने से किसान को अपनी मेहनत का दाम मिलने की रही-सही उम्मीद भी खत्म हो जाएगी। इसलिए अब किसानों का भविष्य बचाने के लिए फिर आंदोलन का रास्ता ही बचा है।

किसानों के देशव्यापी गठबंधन संयुक्त किसान मोर्चा ने पहले ही अमरीका से समझौते के विरोध में बयान जारी किया है। लेकिन अब बात बयान से नहीं बनने वाली। अब फिर सड़क पर उतर कर अहिंसक और संवैधानिक तरीके से अपनी आवाज उठाने का वक्त आ गया है। 

(योगेंद्र यादव चुनाव विश्लेषक एवं राजनीतिक चिंतक हैं)

First Published on: April 4, 2025 12:56 PM
Exit mobile version