नब्बे के दशक की सामाजिक स्थिति के बीच स्त्री-वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन किसी एक पहलू से नहीं किया जा सकता क्योंकि, वह एक परिवर्तनीय काल-खंड है जिसमें बहुत तेजी से हर स्तर पर बदलाव हो रहा था। यह बहुत प्रभावकारी था और वह प्रभाव आज और बढ़-चढ़कर दिखाई देता है । उसके स्वरुप में और गहरापन आया है । नवउदारवाद और भूमंडलीकरण ने लोगों के आधुनिक होने के असंख्य रास्ते खोले । इन रास्तों पर चलकर, उन आकांक्षाओं को पूरा कर लोग सभ्य, आधुनिक और दूसरों के जैसा दिखने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन स्त्री के मामले में या स्त्री के आधुनिक होने में इस प्रक्रिया ने कितनी छूट दी है यह गौर करने लायक है ।
मणिमाला जी ने आधुनिकता और परंपरा के बीच स्त्री की स्थिति को बताते हुए लिखा है कि “आधुनिकता ने कई मायनों में स्त्रियों के सवाल पर परंपरा के मुकाबले ज्यादा उदारता दिखाई है । प्रयोग करने और असफल होने की छूट भी ज्यादा मिली है । परंपरा की पाचन शक्ति बहुत कमजोर है । वह अनुदार है । उसका मन भी बहुत छोटा है। तयशुदा लीक से अलग स्त्रियों का हर कदम उन्हें नागवार गुजरा है । जो अच्छा लगा उसे समेट लिया, जो बुरा लगा उसके वजूद पर ही सवाल उठा दिया । वह किसी भी नए प्रयास को सहजता से नहीं पचा पाती । किसी भी नए प्रतीक से परंपरा चरमराने लगती है”।
इससे जुड़े हुए सवाल पर उनका यह महत्त्वपूर्ण कथन विशेष रूप से देखने लायक है जिससे स्त्री की स्थिति और अधिक स्पष्ट होती नजर आती है ।
“आज की सबसे बड़ी और मजबूत व्यवस्था है बाजार व्यवस्था। बाजार ने जितने फैसले औरतों पर थोपे हैं शायद किसी और ने नहीं। प्रगतिशीलता और आधुनिकता की परिभाषा बाजार ने गढ़ी है, परंपरा और संस्कृति की भी परिभाषा भी अब वह गढ़ने लगा है । आधुनिकता का दबाव स्त्री को बाजार के इशारों पर नचाने लगा है। सबसे ताजातरीन उदाहरण है – सौंदर्य स्पर्धाओं के प्रति हर रोज बढ़ता जा रहा रुझान और इस पर छिड़ने वाली सालाना बहस । औरत के लिए जगह निर्धारित करने में न तो परंपरा ने औरतों की इच्छाओं और उड़ानों की कद्र की, न ही आधुनिकता ने । दोनों ने अपनी-अपनी जरूरतें अक्सर ही औरत की आजादी और सुरक्षा देने के नाम पर पूरी की है”।
जब जरूरत होती है परंपरा और सुरक्षा के नाम पर उसकी आजादी की सीमाएँ बाँधी जाती हैं । पहले मात्र यौन-शुचिता की कसौटी पर खरा उतरना होता था, अब आधुनिकता के दौर में बाजार की हर माँग के अनुसार परीक्षाओं में सफल होना होता है । परीक्षा चाहे जैसी हो, कहीं न कहीं , किसी न किसी रूप में शारीरिक सौंदर्य और शारीरिक समर्पण (श्रम और स्वास्थ्य के रूप में नहीं, शरीर, केवल शरीर के रूप में) महत्त्व रखता ही है।
परंपरा और आधुनिकता के बीच संबंध और बदलाव को ‘मेंटेन’ करने का पूरा दायित्व स्त्रियों पर ही तय हुआ। बाजार इसमें एक महत्त्वपूर्ण कड़ी रही। स्त्री को परंपरा के दायरे में रहकर आधुनिक होते हुए बाजार की मनोकामना की पूर्ति करना था। इसलिए स्त्री से जुड़े जितने भी पहलू थे बाजार के शक्तियों ने उस पर अपना ध्यान केंद्रित किया। धार्मिक परंपराओं और रीति रिवाजों के बीच बाजार ने दखल देना शुरू किया। आधुनिक होने का एक तो यह मतलब होता है कि पुरानी जितनी भी चीजें हैं वह समूल नष्ट हों और नई-नई चीजें विकसित हों, लेकिन स्त्री से जुड़ी चीजों के मामले में ऐसा नहीं हुआ। स्त्री से जुड़ी चीजें चाहे वह जिस रूप में रहीं हो, विद्यमान रहीं या यह कह सकते हैं कि बाजार के आने से परंपरा और रीति रिवाज ने और भी अधिक मजबूती पाई । अनेक उदाहरण के माध्यम से इसे समझा जा सकता है।
जैसे, करवा चौथ, भारतीय स्त्री के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पर्व है जो स्त्री के जीवन में खासा महत्त्व रखता है, इस त्यौहार को मनाने में बाजार ने अपने रास्ते निकाले। आज बाजार में करवा चौथ के सेट जिसमें पूजा की सामग्री से लेकर स्त्री के परिधान तक सभी चीजें शामिल होती हैं, बिक रही हैं। उसकी रेंज भी सामान्य से लेकर बहुत ऊँची दरों तक है। यह मध्य-वर्ग के साथ-साथ कथित संभ्रांत-वर्ग की महिलाओं को खासा ध्यान में रखकर बनाया और बेचा जा रहा है। स्थिति यह है कि जो करवाचौथ पहले जल और चलनी केवल दो चीजों पर आधारित था, उसकी जगह अब तमाम नई-नई सामग्रियों ने ले ली है जिसमें स्त्री के सौंदर्य प्रसाधन, कपड़े, बर्तन तथा अन्य बहुत सारी सामग्रियां उसमे शामिल कर ली गईं हैं।
इतना ही नहीं पुरुषों को भी इस त्यौहार का हिस्सा बनाते हुए उनकी भी कथित नैतिक जिम्मेदारी ‘उपहार भेंट करना’ भी शामिल कर लिया गया है । कहने का मतलब यह कि यदि स्त्री से जुड़ी चीजें खरीदी जा रही होंगी तो आवश्यक रूप से पुरुष के नैतिक उत्तरदायित्व को पूर्ण करने वाली सामग्री भी अनिवार्य रूप से खरीदी जाएगी। बाजार, परंपरा के इस निर्वहन में अपना रास्ता तय कर चुका है। इसी तरह अक्षय तृतीया, दीपावली, धनतेरस इत्यादि ऐसे कई त्यौहार हैं जिनमें बाजार की दखल बन ही नहीं चुकी है बल्कि दृढ़ता से स्थापित भी हो चुकी है। इन सारी चीजों को पूरा करने का जो केंद्र है, वह है स्त्री द्वारा निभाई जाने वाली परंपरा। अब सवाल यहाँ यह है कि परंपरा भी निभाना है लेकिन, आधुनिकता की सीढ़ी को चढ़ते हुए।
मतलब बाजार को अपनाकर आप आधुनिकता के रास्ते तय कर सकते हैं लेकिन, परंपरा का परित्याग आपके वश में नहीं है। इससे परंपरा और अधिक जड़ता के साथ स्थापित होती है। यह केवल परंपरा को स्थापित ही नहीं करती बल्कि सैद्धांतिक रूप से समाज और संस्कृति के बीच बाजार के हस्तक्षेप को बढ़ावा देती है और बाजार की पैठ को मजबूत करती है। त्यौहारों के दिन विशेष तौर पर महँगी, विलासितापूर्ण सामग्री का खरीदना अब अनिवार्य हो चुका है। बाजार ऐसी तिथियों की सूची बनाकर बहुत पहले से ही अपनी तैयारी ऐसे दिनों के लिए कर लेता है। इतना ही नहीं वह एक दिन के त्यौहारों को महीने भर विस्तार भी देता है ताकि उसका व्यापार सुगमता से फल-फूल सके। भारत में इन सभी चीजों ने बीसवीं सदी के आख़िरी दशक तक अपने जड़ जमाने शुरू कर दिए थे।
इन स्थितियों को प्रभा खेतान इस रूप में व्याख्यायित करती हैं – “पूँजीवाद के पास संप्रेषण का, उपभोक्ताओं से बातचीत का सबसे सशक्त माध्यम विज्ञापन है । प्रत्येक विज्ञापन में स्त्री उपस्थित है और उपभोक्ता संस्कृति की संदेश वाहिका है, दूसरी स्त्रियों से वह कहती है- ‘तुम भी मेरी तरह बनो’ । मगर वास्तविक स्त्री एवं उसका यथार्थ कम होता जा रहा है क्योंकि, उसके सपने कोई और बुनता है – विज्ञापन के द्वारा उससे कहा जा रहा है कि तुम ऐसा दिखो, ऐसा जीवन जियो, व्यवस्था चलाने में इस तरह का सहयोग दो”। अत:, स्पष्ट तौर पर परिलक्षित होता है कि नब्बे के दशक के बाद से महिलाएं एक साथ पारंपरिक और आधुनिक बनने की होड़ में इस कदर उलझ गईं हैं कि उन्हें अपनी वास्तविक अवस्था का अंदाजा ही नहीं लग पा रहा है।
(डॉ. आकांक्षा सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन- कार्य, नई दिल्ली।)